
अयोध्या मामले पर मंगलवार को जो कुछ हुआ उसे देखकर यह आसानी से समझ में आ जाता है कि अयोध्या सियासी दलों के लिए मुकदमा नहीं बल्कि अब भी एक राजनीतिक मसला ही बना हुआ है. मंगलवार को इस मसले पर कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने जमकर राजनीति शुरू की और दोनों पार्टियों की बयानबाजी ने फिर से यह साफ किया है कि उनके लिए यह एक चुनावी या राजनीतिक मसला ही है.
सच तो ये है कि दोनों राजनीतिक दल इस मसले पर सियासत ही करते दिख रहे हैं. दोनों का हित इसी में है कि यह मसला लंबा खिंचे. बीजेपी का हित जहां इस बात में है कि इस मसले पर गुजरात चुनाव और आगे 2019 के लोकसभा चुनाव तक टेम्पो बना रहे. वहीं कांग्रेस शायद यह चाहती है कि इसे किसी तरह 2019 से आगे तक टाल दिया जाए, ताकि लोकसभा चनाव में बीजेपी को किसी तरह का फायदा न मिल पाए.
दूसरे को फायदा न मिल जाए!
यानी मंदिर बनाने या न बनाने से ज्यादा बेताबी इस बात की है कि इस मसले का किस तरह से खुद राजनीतिक फायदा उठाया जाए और दूसरे दल को इसका फायदा उठाने से रोका जाए. तो कांग्रेस पर जहां यह उंगली उठ रही है कि वह कपिल सिब्बल के माध्यम से इस मसले को टालने की जुगत बना रही है, वहीं बीजेपी पर भी यह आरोप लगते रहे हैं कि वह इतने साल से इस मसले को खींचती रही है ताकि ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक फायदा उठाया जा सके. बीजेपी पर तंज कसते हुए, विरोधी दल कहते रहे हैं कि-'मंदिर वहीं बनाएंगे, लेकिन तारीख नहीं बताएंगे.' सोचिए अगर मामले को सुप्रीम कोर्ट से ही निपटाना था तो यह काम तो पहले ही किया जा सकता था, इस पर इतने साल तक आंदोलन करने, बवाल काटने और मसला बनाने का फिर क्या फायदा रहा, सिवाय इसके कि इतने साल तक इससे बीजेपी को सत्ता मिलती रही.
राजनीतिक असर का हवाला
सुनवाई के दौरान मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में जोरदार हंगामा हुआ. सर्वोच्च अदालत में राजनीति का जबर्दस्त मंजर दिखा. मुस्लिम पक्षकारों ने केस तैयार न होने के आधार पर सुनवाई का पुरजोर विरोध किया. मामले के राजनीतिक असर का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि यह सुनवाई का उचित समय नहीं है. आखिर इतनी जल्दबाजी क्या है?
मामले में सुनवाई आम चुनाव के बाद जुलाई 2019 में होनी चाहिए. उनके वकीलों ने यहां तक विरोध किया कि अगर कोर्ट सुनवाई जारी रखेगा तो वे उसमें हिस्सा नहीं लेगें और अदालत कक्ष छोड़ कर चले जाएंगे. करीब दो घंटे तक शोरशराबे और बहस चलने के बाद कोर्ट ने सुनवाई टाल दी और दस्तावेजों का आदान-प्रदान पूरा होने के बाद 8 फरवरी को फिर सुनवाई की बात कही.
मुस्लिम पक्षकारों की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, राजीव धवन और दुष्यंत दवे ने सुनवाई रोकने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया. शुरुआत सिब्बल ने की. उन्होंने कहा कि केस अभी सुनवाई के लिए तैयार नहीं है. पूरे दस्तावेज भी दाखिल नहीं हुए हैं. हालांकि, उत्तर प्रदेश की ओर से पेश एएसजी तुषार मेहता ने इसका विरोध करते हुए कहा कि सारे अनुवाद और दस्तावेज दाखिल हो गए हैं. सुनवाई रोकने के लिए ऐसी दलीलें नहीं दी जा सकती.
लेकिन सिब्बल ने विरोध जारी रखते हुए कहा कि ऐसे सुनवाई नहीं हो सकती. उन्हें हजारों दस्तावेज पढ़ने हैं उसके लिए चार महीने का समय मिलना चाहिए. उन्होंने मामले को अति महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि इस केस का बहुत ज्यादा राजनैतिक असर है, इसलिए कोर्ट को इस पर 15 जुलाई 2019 से सुनवाई शुरू करनी चाहिए. यानी तब तक देश में आम चुनाव खत्म हो जाएगा. उन्होंने अपनी दलील पर जोर देने के लिए सुब्रमण्यम स्वामी के प्रधानमंत्री को लिखे पत्र, जिसमें अयोध्या में मंदिर निर्माण पर बीजेपी घोषणापत्र का जिक्र था और मोहन भागवत के 2018 में मंदिर निर्माण के मीडिया में आए बयान का हवाला भी दिया.
फिर वही आरोप-प्रत्यारोप
कोर्ट की कार्रवाई के बाद ही भाजपा आक्रामक हो गई. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस से यह साफ करने को कहा कि वह बताए कि मामले में सुप्रीम कोर्ट में उसके नेता कपिल सिब्बल द्वारा पेश की गई दलीलें उसकी अपनी थी या सुन्नी वक्फ बोर्ड की? उन्होंने कहा कि मंदिर-मंदिर घूमने वाले राहुल गांधी इस पर अपना रुख साफ करें. तो दूसरी तरफ, कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने पलटवार करते हुए कहा कि इस मामले पर विवाद खड़ा करने से पहले भाजपा को अपना इतिहास देखना चाहिए.
सुरजेवाला ने कहा, 'कोर्ट में सिब्बल किसका प्रतिनिधित्व करते हैं, यह उनका व्यक्तिगत मामला है. कांग्रेस का इससे कोई लेना-देना नहीं है. भोपाल गैस त्रासदी मामले में अरुण जेटली जी वकील थे, क्या इसके लिए पूरी बीजेपी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.'
तथ्य महत्वपूर्ण या राजनीति
अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस संवेदनशील मसले पर कार्रवाई और निर्णय सबूतों, तथ्यों के आधार पर करता है या राजनीतिक असर को देखकर. क्या सुप्रीम कोर्ट को इस बात से कोई फर्क पड़ेगा कि इस मसले पर क्या राजनीति हो रही है और इसका किसे फायदा या नुकसान हो सकता है?