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करुणानिधि और जयललिता के बाद अब ऐसे बदल जाएगी तमिलनाडु की सियासत

तमिलनाडु के दो बड़े दिग्गज करुणानिधि और जयललिता के बाद राज्य में आए राजनीतिक शून्य में इन दोनों दलों की विरासत संभालने वालों की कड़ी परीक्षा होनी है जब तमिल राजनीति नए सत्ता संघर्ष और नई विचारधाराएं दस्तक दे रही है.

करुणानिधि के समर्थक, फाइल फोटो करुणानिधि के समर्थक, फाइल फोटो
विवेक पाठक
  • नई दिल्ली,
  • 08 अगस्त 2018,
  • अपडेटेड 1:18 PM IST

द्रविड़ आंदोलन के महत्वपूर्ण स्तंभ पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि और एक वर्ष पहले एआईएडीएमके प्रमुख जे जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति एक ऐसे मुहाने पर जा खड़ी हुई है जब राज्य में नए तरह की विचारधाराएं और नए तरह के संघर्ष जन्म ले रहे हैं.

लगभग डेढ़ साल से डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में एम के स्टालिन की क्षमता और ताकत की कड़ी परीक्षा हुई है. स्टालिन के नेतृत्व में ही डीएमके ने 2016 का विधानसभा चुनाव लड़ा और पार्टी को लगातार दूसरी बार हार का सामना करना पड़ा. यह पार्टी के लिए किसी बड़े झटके से कम न था जब डीएमके सरकार विरोधी लहर के बावजूद सत्ता में वापसी नहीं कर पाई. यही नहीं साल 2017 में जयललिता के निधन के बाद आर के नगर उपचुनाव में डीएमके प्रत्याशी की जमानत भी जब्त हो गई.  

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आर के नगर विधानसभा उपचुनाव के परिणाम से स्टालिन को नई चुनौतियों से रूबरू होना पड़ा जब टीटीवी दिनाकरन का नाम एक लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरा. पार्टी में इस तरह की चर्चा होने लगी कि स्टालिन को डीएमके के केंद्रीकृत ढ़ांचे के बारे में दोबारा सोचना चाहिए जो उनके कुछ चुने हुए लोगों द्वारा चलाई जा रही है.   

तमिलनाडु की राजनीति में यह सब तब हो रहा था जब डीएमके लगातार दूसरा चुनाव हार गई थी और एआईएडीएमके भी जयललिता की मौत के बाद बिखर गई थी. ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी राज्य की राजनीति में प्रवेश करने की संभावना तलाश रही थी.

यह दौर तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके के बने रहने के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण है जब विस्तारवादी भाजपा किसी भी दल के लिए एक इंच भी जमीन छोड़ने को तैयार नहीं है. आज की डीएमके 70 और 80 के दशक वाली डीएमके से बिलकुल अगल है. उस समय में पार्टी के पास दूसरी श्रेणी के काबिल नेताओं का अच्छा खासा समूह था जो इसके संस्थापक सीएन अन्नादुरई की विचारधारा को लेकर जनता में संघर्ष करते थे. साथ में करुणानिधि जैसे राजनीति के माहिर खिलाड़ी का नेतृत्व भी था.

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जबकि आज की डीएमके में तो परिवार में ही संघर्ष जारी है. स्टालिन को अपने बड़े भाई एम के अलागिरी से गाहे बगाहे चुनौती मिलती रही है. पिता की मौत के बाद अलागिरी का रूख क्या होगा यह देखने वाली बात होगी. जबकि पार्टी के अन्य बड़े नेता और करुणानिधि परिवार के सदस्य जिनमें राज्य सभा सांसद कनिमोझी, ए राजा और दयानिधि मारन से फिलहाल स्टालिन को कोई खतरा नहीं है. करुणानिधि की तीसरी पत्नी रजति अम्मल की बेटी कनिमोझी दिल्ली में करुणानिधि के दाहिने हाथ माने जाने वाले मुरासोली मारन की भूमिका निभा सकती हैं.

बात एआईएडीएमके की करें तो जयललिता की मौत के बाद पार्टी में हुए बिखराव के बाद भले ही मुख्यमंत्री ई पलानीस्वामी और उपमुख्यमंत्री ओ पनीरसेल्वम एक होकर सरकार चला रहे हों लेकिन पार्टी में वर्चस्व और टीटीवी दिनाकरन की राज्य में बढ़ती लोकप्रियता की वजह से एआईएडीएमके का शक्ति संतुलन कभी भी गड़बड़ा सकता है. बीजेपी को इसी रास्ते राज्य में प्रवेश की संभावना दिख रही है.

वहीं तमिल सिनेमा से आए दो बड़े चेहरे कमल हसन और रजनीकांत की राज्य में नए तरह की राजनीति से दोनों महत्वपूर्ण दल डीएमके और एआईएडीएमके के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है. हालांकि अभी इन दोनों अभिनेता से राजनेता बने शख्सियतों की राजनितिक ताकत का परीक्षण होना शेष है. लेकिन तमिलनाडु का राजनितिक इतिहास देखें तो प्रदेश की राजनीति में सिनेमा से आए नेताओं का ही दबदबा रहा है.

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कांग्रेस की बात करें तो राज्य में डीएमके की पहली सरकार के बाद कांग्रेस की वापसी कभी नहीं हुई. और कालांतर में कांग्रेस की भूमिका एक पिछलग्गू दल की ही रही है.

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