
शुरुआत करते हैं, उस चिट्ठी से.
‘सेवा में,
माननीय महिला आयोग
नई दिल्ली
विषय- सरकारी स्कूल में पढ़ रही नौजवान लड़कियों को प्रिंसिपल द्वारा अपने कमरे में बुलाकर गलत जगहों पर हाथ लगाने की शिकायत...
निवेदन है कि हम सभी छात्राएं जींद के ...स्कूल में पढ़ती हैं, जहां प्रिंसिपल करतार सिंह बंद कमरे में हमारे साथ अश्लील हरकतें करता है. उसने अपने कमरे में काले शीशे लगवा रखे हैं, जिससे अंदर वालों को बाहर दिख जाता है, लेकिन बाहर से भीतर का अंदाजा नहीं हो पाता.
प्रिंसिपल को जो भी लड़की पसंद आ जाती है, उसे किसी न किसी बहाने से वो ऑफिस में बुला लेता है. वहां लड़कियों को अपनी कुर्सी के पास खड़ा करके उनसे गंदी-गंदी बातें करता और गलत जगहों पर छूता है. जब मैंने इसका विरोध किया तो उसने मुझे धमकाया कि जैसा कह रहा हूं, तू चुपचाप मान ले, वरना मैं घरवालों से शिकायत कर दूंगा कि तुझे एक लड़के के साथ देखा है. इसके बाद वे तुझे स्कूल भी नहीं भेजेंगे और पढ़ाई भी छुड़वा देंगे.
प्रार्थी
XYZ...’
पांच पन्नों की इस चिट्ठी पर नजर डालते ही दिखता है कि भेजने से पहले उसे कई बार स्टेपल किया और खोला गया होगा. नए पन्ने जोड़े-घटाए गए होंगे. सफेद पेजों पर स्याह करतूतों का खुलासा करने वालियों का नाम बदला हुआ है, ये बात चिट्ठी लिखने-वालियों ने खुद जोड़ी.
14 से 17 साल की बच्चियों को 57 साल के रसूखदार शख्स के खिलाफ बोलने में अपनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी होगी. लेकिन अगस्त से फरवरी की दूरी तय करते-करते वो हौसला पस्त पड़ चुका. पीड़िताएं चुप. परिवार चुप. गांववाले चुप. यहां तक कि अधिकारी तक बोलने को तैयार नहीं.
कुरेदो तो जवाब मिलेगा- ‘जवान होती लड़कियों का मामला है. हम-आप तीली दिखाकर चले जाएंगे, उनके घर बर्बाद हो जाएंगे.’
इन्हीं बंद कपाटों को खटखटाने हम जींद से 20 किलोमीटर दूर उस गर्ल्स स्कूल पहुंचे.
मेन एंट्री बंद मिली. सामने ही खंभों पर लिखा था- 'आइए, मैं आपका जीवन बदल दूंगा.'
स्कूल की पुकार! बच्चों से वादा कि इस इमारत में आओगे तो जिंदगी पहले-सी न रहेगी. हुआ भी बिल्कुल ऐसा ही. यहां पढ़ने-वालियों का जीवन बदल चुका है. वे नजरें झुकाए आती हैं, और सिर झुकाए हुए ही लौट जाती हैं...और वहां से गुजरने वाले लोग, झुके सिरों का मुआयना करते हुए.
9वीं से 12वीं तक की हर लड़की फुसफुसाहट के घेरे में. क्या इसके साथ भी कुछ हुआ होगा! सिर से पांव तक टटोलकर लक्षण खोजती हुई आंखें.
आसपास की दुकानों पर घूमकर बात करने पर कइयों ने कहा- स्कूल में हजार से ऊपर लड़कियां हैं. कुछ को ही कमरे में क्यों बुलाया गया. कुछ तो 'कसूर' उनका भी रहा होगा.
इन लड़कियों पर चर्चा शुरू हुई 31 अगस्त को लिखी हुई चिट्ठी के बाद. महिला आयोग से लेकर राष्ट्रपति को लिखी चिट्ठी में प्रिंसिपल करतार सिंह पर यौन शोषण के आरोप लगाए गए थे. बच्चियों का कहना था कि वो फेल करने या बदनाम करने की धमकी देकर उन्हें ब्लैकमेल करता और गलत तरीके से छूता है.
अगस्त में लिखी गई अर्जी पर पॉक्सो के तहत 24 घंटों के भीतर एक्शन होना था, लेकिन आरोपी की गिरफ्तारी हुई 4 नवंबर को.
इस बीच बहुत कुछ बदल गया. इसी बदले हुए की पड़ताल के लिए हम उचाना समेत आरोपी के गांव बड़ौदा और उस गांव भी पहुंचे, जहां पहले भी प्रिंसिपल का इसी आरोप के चलते तबादला हुआ था.
स्कूल पहुंचते हुए दोपहर के 1 बज चुके थे. दो-चार सवालों और दसेक मिनट का इंतजार करवाने के बाद नई प्रिंसिपल सामने आईं. हाथ बंधे हुए. चेहरे पर अनचाहे मेहमानों को टरकाने वाली सख्ती.
महिला प्रिंसिपल, जिन्हें काफी सोच-समझकर विवादित स्कूल का जिम्मा दिया गया होगा. जल्द ही ये अंदाजा सही भी लगने लगा. वे इस विषय पर कोई भी बात करने को तैयार नहीं थीं. ‘आप मीडिया से हैं. बात करूंगी लेकिन दो मिनट से ज्यादा नहीं. और उस मामले पर बिल्कुल नहीं.’
हम प्रिंसिपल ऑफिस में घुसते हैं. लंबा-आयताकार कमरा. सामने ही सीसीटीवी स्क्रीन लगी हुई, जहां से क्लासरूम दिखते हैं. यहीं से आरोपी बच्चियों को आइडेंटिफाई करता रहा होगा.
कितनी लड़कियां हैं, पढ़ाई कैसी चल रही है, जैसी छुटपुट शुरुआत के बीच एक शख्स दरवाजे पर आता है. खुद को किसी बच्ची का चाचा बताते हुए उसे जल्दी ले जाने की दरख्वास्त करता हुआ. प्रिंसिपल रुखाई से झिड़क देती हैं. मां-पिताजी के अलावा और कोई नहीं आ सकता. आप जाइए.
मैं मौका पाकर पूछ डालती हूं- काले शीशे, जिनका बार-बार जिक्र हो रहा था, वो हट गए क्या?
मेरे आने पर तो वैसा कुछ दिखा नहीं. पहले का मैं नहीं जानती.
वे लड़कियां कैसी हैं. स्कूल आती हैं, काउंसलिंग मिली उन्हें?
कौन सी लड़कियां! सब पढ़ाई कर रही हैं. सब ठीक चल रहा है.
आपके स्कूल में काउंसलिंग...सवाल पूरा होने से पहले ही प्रिंसिपल अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुईं. मैं बाहर निकलते हुए कहती हूं- स्कूल का एक राउंड ले लें?
‘नहीं. लड़कियां डिस्टर्ब होती हैं. नमस्कार.’ ये कहते हुए वे खुद मेन गेट तक चली आईं. हमारे पूरी तरह बाहर निकलने से पहले ही ‘मीडियावालों के लिए’ गेट बिल्कुल न खोलने की तीखी हिदायत.
अगला पड़ाव मखंड गांव था.
यहां वो स्कूल है, जहां सालों पहले करतार सिंह पर यही आरोप लगा था. गांववालों ने दबाव बनाकर उसकी बदली दूसरी जगह करवा दी, ये बात गांव के पूर्व सरपंच राजकुमार कहते हैं.
धुंधभरे रास्ते पर चलते हुए देर हो गई. स्कूल बंद हो चुका था. हम सीधे पूर्व मुखिया के पास पहुंचते हैं.
खेतों में हुक्का गुड़गुड़ाता हुआ ये शख्स एक वॉइस रिकॉर्डिंग सुनाता है, जो तब की है, जब आरोपी गांव में हुआ करता था. इसमें एक महिला शिकायत कर रही है कि उसने प्रिंसिपल को मिड-डे मील तैयार करने वाली दूसरी महिला से छेड़खानी करते देखा है.
तभी आप लोगों ने शिकायत क्यों नहीं की?
मैं तब सरपंच नहीं था. कहने से कोई फर्क नहीं पड़ता.
क्या लड़कियों के साथ भी ऐसा करता था?
करता होगा तभी तो गांववालों ने उसे भगा दिया.
उस समय जो सरपंच थे, वे कहां मिलेंगे, बात करनी है.
वो तो यहां नहीं हैं. महिला सरपंच थी. बोलने से बचती है.
चलिए, आप ही जो जानते हैं, कैमरा पर बता दीजिए.
नहीं. कैमरा मत चालू कीजिए. मैं जितना जानता था, बता चुका. सुनी-सुनाई बात है. मैं तब पद पर भी नहीं था. ऑडियो आप खुद सुन चुकीं.
बात खत्म हो जाती है. मिड-डे मील बनाने वाली उस महिला से मिलना चाहती हूं तो कहा जाता है कि उसका दिमाग 'फिर' चुका. अब वो किसी से बात नहीं करती.
अगला पड़ाव बड़ौदा था. आरोपी का गांव.
मुख्य सड़क से ऐन सटा हुआ रास्ता कीचड़ और गड्ढों से भरा हुआ. गाड़ी से पैर निकालते रपटन होती है. छोर पर ही ठहरकर हम सरपंच के बारे में पूछताछ करते हैं. नुक्कड़ पर खड़ा एक शख्स नंबर बताते-बताते खुद ही फोन लगा देता है. थोड़ी देर में एक झुंड दिखा. सरपंच कौन है, ये पहचान नहीं आता. न ही पूछने पर बताया जाता है. फिर भी बातचीत शुरू हो जाती है.
करतार सिंह कैसा आदमी था?
बढ़िया था जी. सबसे ‘राम-राम’ करता था. चाय-हुक्का बांटता था. झुंड की आवाज आती है.
तो बच्चियों ने झूठ-मूठ ही उसे फंसाया होगा!
इस बार झुंड चुप था. फिर एक आवाज आती है- बच्चियां क्यों झूठ बोलेंगी, कुछ गलतफहमी रही होगी. आप ही बताइए, ऐसा कैसे हो सकता है कि एक आदमी का कैरेक्टर स्कूल-स्कूल में खराब रहे, बाकी सब जगह अच्छा हो जाए. ढीला चरित्र तो सब जगह वही रहेगा न!
मैं इसी चेहरे से पूछती हूं- जब आदमी भला है, बच्चियां गलतफहमी में हैं, तो आप लोग खुलकर बातचीत क्यों नहीं कर रहे?
‘भाईचारा. गांव का भाईचारा खराब होगा बेकार में.’ वही आवाज संभलते हुए कहती है.
अच्छा उनके यहां वाले घर में अभी कौन मिलेगा?
भाई हैं, लेकिन बात नहीं करेंगे.
आपको कैसे पता, बात नहीं करेंगे. एक बार फोन तो मिलाइए.
उन्हें सब पता है जी. शाम हो रही है. रोटी खाकर जाइए. मनुहार के पीछे बातचीत खत्म करके चुपचाप लौट जाने की समझाइश.
अगले दिन हम दोबारा उचाना पहुंचे. स्कूल से निकलती-पहुंचती लड़कियों से मिलने की उम्मीद में.
गेट बंद था. सामने कुछ ऑटो लगे हुए, जो बच्चियों को घर लाते-छोड़ते हैं. सजा-धजा ऑटो, जिसपर फूल-पत्ते उकेरे हुए, साथ में कोई नाम भी लिखा है. वही नाम लेते हुए मैं बात करने लगती हूं. तुक्का सही निकला. थोड़ी झिझक के बाद चालक खुल जाता है.
काफी ज्यादती हुई लड़कियों के साथ. बड़ी हैं. कइयों का रिश्ता पक्का हो चुका होगा. 12वीं पास करने का इंतजार हो रहा होगा. अब पता नहीं क्या होगा.
मतलब आपको भी लगता है कि स्कूल में कुछ हुआ है!
‘लगना क्या है इसमें.’ बात काटते हुए जवाब आता है. ‘सब जानते हैं. डेढ़ सौ कह रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा लड़कियों से छेड़खानी हुई होगी. क्या पता और भी क्या हुआ हो. सब गुमसुम हो गई हैं.’
आप उनमें से किसी लड़की को जानते हैं?
अबकी बार ड्राइवर कुछ सेकंड्स देखता है, फिर पूछता है- वैसे आप कौन?
मैं दिल्ली से आई हूं, जांच कर रही हूं.
इतना जवाब काफी था. ऑटोचालक ने धड़ल्ले से कई बातें बोल डालीं. बेकार आदमी ही रहा होगा. छोटी लड़कियां हैं. धमकाकर मनमानी की होगी.
तो अब सब पीछे क्यों हट गई हैं. कोई भी बात क्यों नहीं कर रही?
ये हरियाणा है जी. इज्जत से बड़ा यहां कुछ नहीं. बोलेंगी तो शादी कैसे होगी! ये बोलते हुए वो गुलेल से आसपास के बंदरों को भगाने में जुट जाता है.
हम स्कूल के सामने ही डटे हुए हैं.
छुट्टी के आसपास गेट खुलता है और एक चेहरा बाहर झांकता है. थोड़ी देर में दूसरा चेहरा आता है. कल इन दोनों से भीतर मुलाकात हो चुकी. दो-चार मिनट में स्कूल की प्रिंसिपल बाहर आ जाती हैं. दरवाजे पर आधी अंदर, आधी बाहर खड़ी हुई. झुंझलाया चेहरा.
छुट्टी के समय लड़कियों का झुंड प्रिंसिपल के पास रुककर आगे निकलता हुआ. ऑटोवाले उन्हें बिठाकर फटाफट भागते हुए. एक के बाद एक सामने से कई खेप निकल गईं. बात करना तो दूर, मुझसे लगभग छिटकते हुए. आगे बढ़ने पर पांचेक लड़कियां एक दुकान के आगे रुकी हुई हैं. मैं भी रुक जाती हूं.
कौन सी क्लास में हैं?
12वीं. कटे बालों वाला एक चेहरा कहता है.
अरे वाह! अभी तो प्री-बोर्ड हो चुके होंगे?
नहीं. चल रहा है.
तैयारी हो चुकी?
हां. लेकिन डर तो लगता है.
अरे, आप लोग तो बहादुर हैं. मुश्किलों से नहीं डरतीं, एग्जाम से क्या डर. पुचकारते हुए मैं पूछ डालती हूं- आपकी जिन सहेलियों के साथ वो सब हुआ था, कैसी हैं वे सब?
‘कांड’ की बात पूछ रही हैं आप! हां. आती हैं वे भी. कुछ घर रहती हैं.
कैसे बात हो सकती है उनसे?
सवाल का कोई जवाब मिले, इसके पहले ही आसपास के लोग वहां जमा होने लगते हैं. लड़कियां फुर्ती से चली जाती हैं.
लौटते हुए हमारी मुलाकात जींद की एक्टिविस्ट डॉ सिक्किम से हुई.
मामले पर शुरुआत में काफी बोल चुकी सिक्किम सीधे कहती हैं- न तो लड़कियां बोलेंगी, न ही उनका परिवार. भारी दबाव है. गरीब बच्चियां थीं. कल को शादी भी होनी है. लड़के वाले पड़ताल करेंगे. तब कोई इतना भी कह दे कि फलां स्कूल में, फलां साल में पढ़ती थीं तो बात बिगड़ जाएगी. आप तो खुद महिला हैं, समझती होंगी.
दबाव की क्या बात कह रही थीं आप?
अजी, ये प्रेशर ही तो है. पहले डेढ़ सौ लड़कियां थीं. घटते-घटाते मुट्ठीभर बाकी हैं. पहले मैंने कई मीडियावालों से मिलवाया. अब जाओ तो किवाड़ बंद कर देते हैं. तोड़ना-जोड़ना, खरीदना-धमकाना भीतरखाने सब चल रहा है.
एक स्कूल प्रिंसिपल के पास इतनी ताकत कैसे आई?
अकेला तो वो नहीं होगा. बात कहीं आगे तक होगी. तभी तो लगातार ऐसे मामलों के बाद भी वो अब तक बाहर रहा. अब अंदर गया तो है, लेकिन जो हालात हैं, जल्द ही बेदाग निकल आएगा.
आपका मतलब, केस खारिज हो जाएगा?
अबकी बार ठिठका हुआ जवाब आता है- जिससे भी बात करो, सब यही मानते हैं. उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं. वरना आप ही बताएं. सरकारी स्कूल के ऑफिस में काले शीशों का क्या मतलब था. वहां बीओ, डीओ सब आते थे. किसी ने दरयाफ्त क्यों नहीं की. कोई तो बात रही होगी!
चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के चेयरमैन नरेंद्र अत्री से मुलाकात में कई कड़ियां जुड़ती हैं.
स्कूल में जो घटना हुई, उसमें आंकड़ा काफी ज्यादा था, लेकिन आखिर में सब पीछे हट गईं. डेढ़ सौ बच्चियों ने काउंसलिंग में मना कर दिया कि उनके साथ कुछ गलत हुआ है. अब 6 लड़कियां ही बाकी हैं. कुछ रोज पहले कैथल के एक स्कूल में भी ऐसी ही घटना सामने आई. ये लगातार हो रहा है.
तो इसका क्या सॉल्यूशन है?
हमने सरकार को सुझाया कि वो हर स्कूल में एक परमानेंट काउंसलर रखे. फिलहाल बच्चियों के साथ-साथ उनका परिवार भी ट्रॉमा में है. हम रोज बात नहीं कर सकते. स्कूल में काउंसलर होगी तो उन्हें समझाती रहेगी. वो ये भी बता सकेगी कि ऐसा हादसा हो तो कैसे बचा जाए.
क्या आपको लगता है कि सेक्स एजुकेशन भी मिलनी चाहिए?
सवाल शायद ज्यादा सीधा था. कुछ देर चुप रहने के बाद आवाज आती है- नहीं. स्कूल में इतनी जानकारी तो दी जाती है कि एड्स कैसे होता है और साफ-सफाई कैसे रखें. रुटीन जानकारी ही ठीक है.
जींद के बाद कैथल के स्कूल से भी ऐसा मामला आने को लेकर हम एक अन्य अधिकारी से मिलते हैं. वे मानते हैं कि पॉक्सो के मामले तेजी से बढ़े.
पहचान छिपाने की शर्त पर कहते हैं- बच्चियों के ऊपर परिवार का इतना दबाव है कि रेप होने पर भी वे चुप रह जाएंगी. अंदर-अंदर कोई एक्शन होना हो तो वो होगा, या आनन-फानन शादी करा दी जाएगी. इस केस में भी यही होगा. गरीब घरों की बात थी. परिवार को पैसे खिला दिए जाएंगे. शादी में मदद का भरोसा दिया जाएगा.
चुप रहने के बदले अगर बच्ची का घर बस सके तो क्या हर्ज है. बोलकर भी कौन-सा इंसाफ मिल जाना है.
निकलते हुए अधिकारी कहता है- देखिएगा, उसे क्लीन चिट मिल जाएगी.
गांव में घूमने के दौरान कई लोगों ने बात करते हुए कहा था कि आरोपी प्रिंसिपल लड़कियों को 'आइडेंटिफाई' करता था.
वो कैसे?
स्कूल में खेलते-कूदते हुए, प्रेयर के समय या किसी और एक्टिविटी के दौरान वो अपने मनलायक लड़की चुन लेता है. उसे किसी काम के बहाने कमरे में बुलाता और छेड़खानी करता.
लड़कियां चुप क्यों रहती थीं?
उनकी कोई न कोई कमजोर नब्ज वो दबाए रखता था. जैसे बदनाम करने की धमकी.
मामले का इंस्टाग्राम एंगल भी दबेछिपे सुनाई पड़ा.
असल में कोविड के बाद से हरियाणा सरकार ने बच्चों को डिजिटल पढ़ाई के लिए फ्री टैबलेट स्कीम शुरू की. पढ़ाई के लिए मिले टैबलेट का इस्तेमाल सोशल मीडिया पर आने और रील्स बनाने जैसे कामों में होने लगा. हालत यहां तक आ गई कि राज्य की कई खाप पंचायतों ने सरकार से टैबलेट लेने की गुहार तक लगा डाली.
इंस्टाग्राम के जरिए भी आरोपी प्रिंसिपल लड़कियों पर नजर रखा करता. अगर कहीं भी कोई लड़की, किसी लड़के से इनवॉल्व होती लगे तो तुरंत उसे कारण मिल जाता. बदनाम करके स्कूल छुड़ाने के बहाने वो बच्ची का यौन शोषण किया करता. पानी सिर से ऊपर चले जाने पर लड़कियों ने हिम्मत करके लेटर लिखा होगा.
वहीं केस से संबंधित एक शख्स कहता है- उचाना स्कूल की लड़कियों के पास इतनी समझ नहीं. वे तो एक लाइन सही नहीं लिख पाती हैं. इसे जरूर किसी ने ड्राफ्ट करवाया होगा.
पड़ताल पर एक टीचर का पता लगता है, जिसने चिट्ठी लिखने में कथित मदद की.
फोन पर झुंझलाते हुए वो कहता है- यहां तो रोज ऐसे दो-चार मामले आ जाते हैं. आप पीछे क्यों लगे हैं. मेरा नाम इस झंझट से दूर ही रखिए. परिवार भी पालना है मुझे.
3 फरवरी को एडिशनल सेशन जज के पास पहली हीयरिंग थी.
प्रॉसिक्यूशन विटनेस मतलब पीड़िताओं को बुलाकर उनसे गवाही ली जाने वाली थी. इस बीच खबर आती है कि बची हुई 6 लड़कियों में से भी 1 ने पैर पीछे खींच लिए.
आरोपी भले ही जेल में है, लेकिन खुले में जीती लड़कियों की कैद उससे कहीं सख्त है. वे स्कूल जाती हैं, लेकिन किताबों से ज्यादा हिदायतों का बोझ संभाले हुए. वे घर भी लौटती हैं, लेकिन हंसते हुए नहीं, सिर झुकाए हुए.
नजर की एक हरकत, बालों की एक खुली लट, खुलकर ली गई एक सांस उन्हें ‘कांड-वालियों’ की कतार में ला सकती है.