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जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को माना था अपराध, कांग्रेस-बीजेपी नेताओं ने बताया था गलत

सुप्रीम कोर्ट ने समान सेक्स के दो लोगों की परस्पर सहमति से बनाने वाले यौन संबंध को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है. लेकिन पहले सुप्रीम कोर्ट के ही एक खंडपीठ ने इसे अपराध के दायरे में माना था और तब कई नेताओं ने इसको गलत बताया था.

सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले से LGBT समुदाय में खुशी की लहर सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले से LGBT समुदाय में खुशी की लहर
दिनेश अग्रहरि
  • नई दिल्ली,
  • 06 सितंबर 2018,
  • अपडेटेड 3:06 PM IST

सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने दो वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाले कानून को धारा 377 से बाहर कर दिया है. हालांकि, खुद सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने पहले इसे अपराध के दायरे में माना था और तब कांग्रेस-बीजेपी के कई नेताओं ने इस फैसले को गलत बताया था.

सुरेश कौशल बनाम नाज फाउंडेशन केस

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इसी फैसले की पुनर्विचार या‍चिका पर सुनवाई करने के बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने नया फैसला सुनाया है. गे सेक्सुअलिटी को क्राइम के दायरे से बाहर रखने के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन केस में 11 दिसंबर 2013 को निर्णय आया था. इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने 2 जुलाई 2009 के दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले को पलट दिया था जिसमें हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर किया था. तब इस निर्णय को बीजेपी और कांग्रेस के कई नेताओं ने गलत बताया था.

तब सुप्रीम कोर्ट की जस्ट‍िस जी.एस. सिंघवी और ए.जे. मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने कहा था कि इस मसले पर न्यायालय के हस्तक्षेप की जरूरत ही नहीं है. इस फैसले की वजह से फिर से 'अप्राकृतिक यौन संबंध' को अपराध की श्रेणी में ला दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस बारे में दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय कानून सम्मत नहीं है. खंडपीठ ने कहा कि इस मामले में संसद को बहस कर कोई निर्णय लेना चाहिए.

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यूपीए सरकार ने दायर की थी पुनर्विचार याचिका

इसके बाद केंद्र सरकार ने 21 दिसंबर, 2013 को इस मामले की समीक्षा याचिका दायर की. अपनी समीक्षा याचिका में केंद्र सरकार ने कहा था, 'यह फैसला संविधान की धारा 14, 15 और 21 के तहत आने वाले मूल अधिकारों के दायरे में सर्वोच्च अदालत द्वारा स्थापित और मान्य सिद्धांतों के खिलाफ है.'

याचिका में कहा गया कि इंडियन पैनल कोड 1860 में ही बनाया गया था, इसलिए इसके तमाम दंड प्रावधान तब के हिसाब से उचित थे, लेकिन अब इसमें बदलाव की जरूरत है.

नाज फाउंडेशन ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के लिए पुनर्विचार याचिका दायर की. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 28 जनवरी, 2014 को केंद्र सरकार और नाज फाउंडेशन की पुनिर्विचार याचिकाओं को खारिज कर दिया.

इसके कुछ महीनों बाद ही जब पीएम मोदी की सरकार आई तो पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश का ही हवाला देकर अमेरिकी राजनयिकों के समान लिंग वाले साथियों को गिरफ्तार करने की मांग की. सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भारत में कुछ वर्गों सहित अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना होने लगी.

1860 के दौर में चला गया देश!

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने धारा 377 पर संसद को विचार करने को कहा. राहुल गांधी भी यह चाहते थे कि धारा 377 के उक्त प्रावधानों को हटाया जाए और उन्होंने गे अधिकारों का समर्थन किया था. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि वे समलैंगिकों के बीच यौन संबंधों पर हाई कोर्ट के फ़ैसले से ज़्यादा सहमत हैं. तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि समलैंगिकता को अपराध बनाने के फ़ैसले से भारत वापस 1860 के दौर में चला गया है.

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बीजेपी के कई नेताओं ने भी समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने का समर्थन किया. बीजेपी नेता और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कहा था कि समलैंगिकों के अधिकारों की रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है.

बीजेपी नेता अरुण जेटली ने भी तब कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को आईपीसी की धारा 377 (दो वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध ठहराने वाली धारा) पर फिर से विचार करना चाहिए.

इस साल 8 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दो जजों की खंडपीठ द्वारा दिए गए निर्णय पर पुनर्विचार को मंजूरी दे दी. पांच जजों के सामने क्यूरेटिव बेंच में मामला चला.

क्या था धारा 377 के पुराने प्रावधान में

आईपीसी की धारा 377 के अनुसार यदि कोई वयस्‍क स्वेच्छा से किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करता है तो, वह आजीवन कारावास या 10 वर्ष के कारावास और जुर्माने से भी दंडित हो सकता है. अब सुप्रीम कोर्ट ने समान सेक्स के दो वयस्क लोगों के किसी निजी स्थान पर बनाए गए यौन संबंध को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है.

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