
दक्षिण की राजनीति के पितामह एम करुणानिधि अब इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन जब तक वह रहे तमिलनाडु की राजनीति उनके इर्द-गिर्द घूमती रही. उन्होंने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) की कमान लगातार 50 साल तक संभाले रखी.
राजनीति में एंट्री से पहले करुणानिधि दक्षिण में जाना-पहचाना नाम बन गए थे. उन्होंने तमिल सिनेमा में अपने कलम के जादू से सभी को दीवाना बना रखा था. इससे पहले वह हिंदी के विरोध में आंदोलन कर चुके थे.
करुणानिधि के बारे में कहा जाता है कि वह बेहद मेहनती थे. उनकी याददाश्त भी कमाल की थी और अपनी शानदार याददाश्त के जरिए 94 साल की उम्र में वह राजनीति की तिकड़मों में रुचि लेते रहे. उन्हें राजनीतिक रणनीति बनाने का माहिर माना जाता है.
दक्षिण की राजनीति में उनकी हैसियत चाणक्य जैसी रही. उनके करीबी लोग मानते हैं कि करुणानिधि बहुत होशियार और तिकड़मी थे और इसी की बदौलत उन्होंने जमकर कामयाबी हासिल की और कभी भी चुनावी समर में उन्हें शिकस्त का सामना नहीं करना पड़ा.
फरवरी 1969 की एक घटना ने उन्हें तमिल की राजनीति में स्थापित कर दिया. 3 फरवरी को राज्य के लोकप्रिय नेता सीएन अन्नादुरै के निधन पर डीएमके के लाखों कार्यकर्ता वहां मौजूद थे. सभी अपने दुलारे नेता के निधन पर दुखी थे.
इस बीच करुणानिधि ने चेन्नई में लाखों लोगों के सामने अपने गुरु और तमिलनाडु के पहले द्रविड़ मुख्यमंत्री सीएन अन्नादुरै की अंत्येष्टि से पहले उनका शव अकेले ही उठाया और अंतिम संस्कार के लिए लेकर चल दिए.
करुणानिधि के इस भावपूर्ण कदम से पार्टी कार्यकर्ताओं में उनकी अच्छी छवि बन गई और लोग उन्हें चाहने लगे. इसके बाद ही करुणानिधि पार्टी में कई वरिष्ठ नेताओं को पछाड़कर अन्नादुरै के निर्विवाद उत्तराधिकारी के रूप में उभरे और पार्टी के अगले अध्यक्ष बन गए.
गौर करने वाली बात यह है कि जब अन्नादुरै ने 1949 में घोर नास्तिक और ब्राह्मणवाद विरोधी नेता ईवीके रामास्वामी या पेरियार की द्रविड़ कडगम (डीके) पार्टी छोड़कर नई पार्टी बनाई थी तब करुणानिधि उनके साथ भी नहीं आए थे. हालांकि बाद में वह पार्टी के सुप्रीमो बन गए.
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