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त्रिपुरा का संदेश साफ, अकेले चलते-चलते साफ न हो जाए वाम

भारत में वामपंथी दलों की सरकारों की संख्या अब एकवचन बन गई है. अब वाम के पास दुर्ग के नाम पर केवल केरल बचा है. पश्चिम बंगाल पहले ही हाथों से जा चुका है. त्रिपुरा का जाना वाम को और नीचे खींच लाया है.

त्रिपुरा का जाना वाम को और नीचे खींच लाया है त्रिपुरा का जाना वाम को और नीचे खींच लाया है
पाणिनि आनंद
  • नई दिल्ली,
  • 03 मार्च 2018,
  • अपडेटेड 11:44 PM IST

त्रिपुरा के विधानसभा चुनाव परिणाम ने वामदलों को और खासकर सीपीएम को एक बड़ा झटका दिया है. 25 साल से त्रिपुरा में वाम नेतृत्व वाली सरकार है. माणिक सरकार दो दशक से राज्य की बागडोर संभाले हैं. लेकिन शनिवार की मतगणना में भाजपा अभूतपूर्व बढ़त लेकर सत्ता संभालती दिख रही है. और इस तरह भारत में वामपंथी दलों की सरकारों की संख्या अब एकवचन बन गई है. अब वाम के पास दुर्ग के नाम पर केवल केरल बचा है. पश्चिम बंगाल पहले ही हाथों से जा चुका है. त्रिपुरा का जाना वाम को और नीचे खींच लाया है.

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खासकर एक ऐसे मुख्यमंत्री का जाना जो लोगों का मुख्यमंत्री था. माणिक सरकार वाम राजनीति में नैतिक और सादगी का जीवंत उदाहरण हैं. आज के दौर की राजनीति में ऐसे उदाहरण अब देखने को नहीं मिलते. माणिक सरकार अकेले एक पूरे योद्धाओं से भरे चक्रव्यूह से टकरा रहे थे. माणिक सरकार अकेले थे. उनके सामने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा. केंद्र में भाजपा की सरकार है. नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री, अमित शाह जैसे पार्टी अध्यक्ष और संघ जैसा विशाल संगठन. इसके अलावा 19 राज्यों में भाजपा की सरकार. माणिक सरकार का वजूद और राज्य इनके आगे बहुत छोटा था. फिर भी वो मोर्चा लेते रहे. उनको अपने कौशल और संचालन पर विश्वास था. लेकिन आखिर में वो हार गए.

जिस समय माणिक सरकार ये चुनाव हार रहे थे, सीपीएम इस प्रश्न से जूझ रही थी कि पार्टी के लिए कौन बड़ा दुश्मन है- भाजपा या कांग्रेस? वो देख रही है कि देश में लगातार कमज़ोर होता विपक्ष एक अच्छा राजनीतिक संकेत नहीं है. यह भी देख रही है कि अगर विपक्षी दल अकेले लड़ने के बजाय एकजुट होकर खड़े नहीं होते हैं तो उनके लिए भाजपा के सामने बने रह पाने का संकट खड़ा हो जाएगा. लेकिन फिलहाल सीपीएम इसी लड़ाई में उलझी है कि पार्टी की अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर चलने के मसले पर क्या रणनीति होनी चाहिए और इस मुद्दे पर पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश कारत के बीच ठनी हुई है.

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अपने सिद्धांतों की दुहाइयों के बीच जूझ रही पार्टी के लिए ऐसे में त्रिपुरा एक बड़ा संदेश लेकर आया है. 25 साल की सत्ता और लोगों के सामने मॉडल की तरह पेश किया जाता रहा त्रिपुरा अब भाजपा के पास है. त्रिपुरा की हार एक शुद्धतावाद के हठ की हार है. त्रिपुरा की हार अकेले ही पहाड़ पर सिर मारने वाली सूझ की हार है. त्रिपुरा की हार विपक्ष की एकजुटता की संभावना की हार है.

जो विपक्षी दल यह मानते हैं कि वाकई भाजपा शैली की राजनीति देश के लोकतंत्र और संविधान के लिए संकट है, उन्हें यह क्यों नहीं समझ आता कि इस संकट से लड़ने के लिए उन्हें एकजुट होना बहुत ज़रूरी है. कांग्रेस चुपचाप तमाशबीन बनी रही. बाकी दलों को वामदल अपने साथ खड़ा नहीं कर पा रहे. इसलिए कोई साथ खड़ा होने गया भी नहीं. त्रिपुरा 25 साल से एक ही दाल खा रहा था. उसे जादू दिखाया गया और उसने जादू को चुन लिया. इस देश में यह जादू 2013-14 में सिर चढ़कर बोला था और तब से लगातार एक दो अपवादों को छोड़कर वो जादू चलता जा रहा है.

तो विपक्ष को क्या करना था? कम से कम आपसी अस्पृश्यता से निकलकर खड़ा होना तो चाहिए. कितने राजनीतिक दल और धड़ों ने त्रिपुरा जाकर इस विकास के जादू का सच लोगों को समझाने की कोशिश की. क्या ऐसा करना नहीं चाहिए था. क्यों केवल माणिक सरकार को खाली जेब यह चुनाव जीतने के लिए खड़ा कर दिया गया. क्यों बाकी दलों ने संविधान और लोकतंत्र की रक्षा को अपनी राजनीति से ऊपर नहीं रखा. क्या यह जानकारी राजनीतिक दलों को अब मिल पा रही है कि पैसे की ताकत और सेना जैसी तैयारी की बदौलत भाजपा ने वाम के किले की एक-एक ईंट उछाल दी है.

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लेकिन विपक्षी दल भी ऐसा तभी सोच सकते हों जब वाम भी ऐसा सोचे. अभी तक देश में विपक्ष की एकजुटता सबसे कठिन चीज़ है. देश चाहे जिस अंजाम पर पहुंचे, विपक्ष एकजुट नहीं होगा. और विपक्ष के एकजुट हुए बिना संविधान बचाने के नारे वाली बातें केवल चूहों का व्यक्तिगत विचार है जो घंटी तो बांधना चाहते हैं लेकिन यह उनके बस की बात नहीं दिखती.

विपक्ष की एकजुटता अगर संभव नहीं हो पाती है तो इससे धीरे-धीरे विपक्षी दल और कमज़ोर होते जाएंगे. और धीरे-धीरे उन्हें राजनीति से बाहर होते हम सब देखेंगे. दरअसल, विपक्ष की एकजुटता का सबसे सीधा लाभ भाजपा और फिर कांग्रेस को है. जब चयन के लिए विकल्प ही दो होंगे तो उनके लिए सत्ता में रहना और जाना एक आपसी सूझ बन जाएगा.

त्रिपुरा के परिणामों पर बात करते हुए सीपीएम नेता वृंदा कारत ने कहा कि कांग्रेस अपना जनाधार त्रिपुरा में संभाल नहीं पाई इसलिए भाजपा को लाभ हुआ. यह अजीब हैंगओवर है कि चुनाव हारें आप और उसके लिए ज़िम्मेदार दूसरे भी हों. जब आपके और उनके बीच ऐसी कोई सूझ ही नहीं है और न ही कोई रणनीति तो फिर कैसे भाजपा को रोकने के लिए टिके रहा जा सकता है.

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विपक्ष दरअसल अभी भी भाजपा का भय लोगों को इसलिए दिखा रहा है क्योंकि विपक्ष होने के नाते यह उसकी ज़िम्मेदारी है. इसमें न तो कोई एकजुटता है और न ही कोई रणनीति जिससे भाजपा को रोकने के लिए कोई प्रयास दिखाई है. वामदलों की देश औऱ लोकतंत्र को लेकर जो चिंताएं हैं, उसे लेकर यदि वे गंभीर हैं तो विपक्ष को एकजुट करें. बाकी दलों से साथ भी एक समझ विकसित करें और फिर ज़मीन पर मजबूती और प्रभावी ढंग से उसे उतारें.

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