
देश में पिछले कुछ समय से यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर चर्चा फिर जोर पकड़ चुकी है जिसे कॉमन सिविल कोड या समान नागरिक संहिता के रूप में भी जानते हैं. मोदी सरकार द्वारा तीन तलाक, धारा 370 को निष्प्रभावी बनाने और राम मंदिर बनाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब बहुत लोगों को लग रहा है कि बीजेपी सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड के अपने वादे को पूरा करेगी और संसद में इसके लिए एक्ट लेकर आएगी. आइए जानते हैं कि आखिर यह कोड क्या है और इससे क्या फायदे या नुकसान हो सकते हैं?
यूनिफॉर्म सिविल कोड आखिर है क्या?
यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है देश में हर नागरिक के लिए एक समान कानून का होना, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति से ताल्लुक क्यों न रखता हो. फिलहाल देश में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से हर धर्म के लिए एक जैसा कानून आ जाएगा. हिंदू हो, मुसलमान, सिख या ईसाई सबके लिए शादी, तलाक,पैृतक संपत्ति जैसे मसलों पर एक तरह का कानून लागू हो जाएगा. महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे.
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क्यों होता है विरोध
देश में जब भी सभी समुदायों के लिए एक जैसा कानून और नियम लाने की बात होती है तो उसका विरोध होता रहा है. इसी तरह जब-जब कॉमन सिविल कोड की बात सामने आई उसका विरोध शुरू हो गया. आजादी के तत्काल बाद 1951 में भी जब तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. बीआर अंबेडकर ने हिंदू समाज के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश की तो न सिर्फ इसका जोरदार विरोध हुआ बल्कि सिर्फ एक धर्म विशेष के लिए ऐसा कानून लाने पर सवाल उठाए गए.
देश में जबरदस्त विरोध के बाद इस बिल को चार हिस्सों में बांट दिया गया था. इसके अलावा जब भी कॉमन सिविल कोड को लाने की कोशिश हुई, इसका एक वर्ग द्वारा जोरदार विरोध हुआ.
क्या हैं समर्थकों और विरोधियों के तर्क
जब-जब यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर बहस छिड़ी है, विरोधियों का यही कहना रहा है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है. भारत में काफी विविधता है और अलग-अलग धर्मों ही नहीं बल्कि तमाम समुदायों, जनजातियों की अपनी अलग सामाजिक व्यवस्था है. उन पर एक समान कानून थोपना उनकी परंपरा को खत्म करना और एक तरह की ज्यादती होगी. इसी तरह इस तरह के कोड से पारसियों को भी बहुत समस्या हो सकती है, जिनकी मान्यताएं, परंपराएं बहुत अलग हैं.
इसका समर्थन करने वाली बीजेपी और अन्य समर्थकों का कहना है कि समान नागरिक संहिता या यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब हर धर्म के पर्सनल लॉ में एकरूपता लाना है. इस कानून के द्वारा जाति, धर्म, लिंग, वर्ग के सभी तरह के भेदभाव खत्म होने का दावा किया जाता है.
इसके तहत हर धर्म के कानूनों में सुधार और एकरूपता लाने पर काम होगा. यूनियन सिविल कोड का अर्थ एक निष्पक्ष कानून है, जिसका किसी धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है.
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क्यों है जरूरी?
इसके समर्थकों के मुताबिक विभिन्न धर्मों के विभिन्न कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है. कॉमन सिविल कोड आ जाने से इस मुश्किल से निजात मिलेगी और न्यायालयों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के निपटारे जल्द होंगे. सभी के लिए कानून में एकसमानता से एकता को बढ़ावा मिलेगा और देश का विकास तेज होगा. इससे मुस्लिम महिलाओं की स्थिति भी बेहतर होगी.
भारत की छवि एक धर्मनिरपेक्ष देश की है. ऐसे में कानून और धर्म का एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए. सभी लोगों के साथ धर्म से परे जाकर समान व्यवहार होना जरूरी है. हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से राजनीति में भी बदलाव आएगा यानी वोट बैंक और ध्रुवीकरण की राजनीति पर लगाम लगेगी.
लोगों के धार्मिक अधिकाराें का क्या होगा ?
ऐसा नहीं है कि समान नागरिक संहिता लागू होने से लोगों को अपनी धार्मिक मान्यताओं को मानने का अधिकार छिन जाएगा.लोगों के बाकी सभी धार्मिक अधिकार रहेंगे, लेकिन शादी,पैतृक संपत्ति, संतान, विरासत जैसे मसलों पर सबको एक नियम का पालन करना होगा. संविधान के अनुच्छेद 44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड का पक्ष लिया गया है, लेकिन ये डायरेक्टिव प्रिंसपल हैं. यानी इसे लागू करना या न करना पूरी तरह से सरकार पर निर्भर करता है.
गोवा में कॉमन सिविल कोड लागू है. दूसरी तरफ संविधान के अनुच्छेद 25 और 29 कहते हैं कि किसी भी वर्ग को अपनी धार्मिक मान्यताओं और रीति-रिवाजों को मानने की पूरी आजादी है. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हो जाने से हर धर्म के लोगों को सिर्फ समान कानून के दायरे में लाया जाएगा, जिसके तहत शादी, तलाक, प्रॉपर्टी और गोद लेने जैसे मामले शामिल होंगे. ये लोगों को कानूनी आधार पर मजबूत बनाएगा.
अभी किस तरह के हैं पर्सनल कानून
अभी सभी धर्मों के पर्सनल कानून अलग-अलग हैं.
हिंदू पर्सनल लॉ
हिंदुओं के लिए 1951 में तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. बीआर अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था. लेकिन देश में जबरदस्त विरोध के बाद इस बिल को चार हिस्सों में बांट दिया गया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे हिंदू मैरिज एक्ट (Hindu Marriage Act), हिंदू सक्सेशन एक्ट (Hindu Succession Act), हिंदू एडॉप्शन ऐंड मैंटेनेंस एक्ट (Hindu Adoption and Maintenance Act) और हिंदू माइनॉरिटी ऐंड गार्जियनशिप एक्ट (Hindu Minority and Guardianship Act) में बांट दिया था (इसके तहत बौद्ध, सिख, जैन भी आते हैं).
इन कानूनों ने हिंदू महिलाओं को सीधे तौर पर सशक्त बनाया. इनके तहत महिलाओं को पैतृक और पति की संपत्ति में अधिकार मिलता है. इसके अलावा अलग-अलग जातियों के लोगों को एक-दूसरे से शादी करने का अधिकार है लेकिन कोई व्यक्ति एक शादी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकता.
मुस्लिम पर्सनल लॉ क्या कहता है
मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत पहले तीन तलाक प्रथा को मान्यता थी जिसके तहत एक पति अपनी पत्नी को महज तीन बार तलाक कहकर तलाक दे सकता था, लेकिन मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में कानून बनाकर इसे प्रथा को गैरकानूनी बना दिया गया. इसके अलावा मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुसलमान पुरुषों को चार शादियां तक करने का अधिकार है. इसके अलावा शादी, विरासत जैसे कई मसले अभी इस पर्सनल कानून के हिसाब से तय होते हैं, जो कॉमन सिविल कोड लागू होने के बाद खत्म हो सकते हैं.
शाह बानो केस अहम
ये एक ऐसा मामला था, जिसने देश की राजनीति में बड़ा भूचाल ला दिया था. इस केस में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए राजीव गांधी सरकार मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 लेकर आई. 1978 में इंदौर की रहने वाली 62 साल की मुस्लिम महिला शाह बानो को उसके पति ने तलाक दे दिया था. 5 बच्चों की बुजुर्ग मां ने गुजारा भत्ता पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी.
1985 में सुप्रीम कोर्ट ने उसके हक में फैसला सुनाया. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने फैसले का विरोध किया तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार नया अधिनियम लेकर आई, जिससे केस जीतने के बावजूद शाह बानो को उसका हक नहीं मिल सका. इस केस ने देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर सवाल खड़े कर दिए थे.
ईसाइयों का पर्सनल लॉ कैसा है
ईसाइयों के पर्सनल कानून में दो बातें अहम हैं. एक शादीशुदा जोड़े को तलाक के लिए दो साल तक अलग रहना जरूरी होता है. इसके अलावा लड़की का मां की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता.
इन देशों में है यूनिफॉर्म सिविल कोड
एक तरफ जहां भारत में सभी धर्मों को एक समान कानून के तहत लाने पर विवाद है, वहीं पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान और इजिप्ट जैसे कई देश इसे लागू कर चुके हैं. हालांकि, इनमें से कई देशों में इस्लाम धर्म राजधर्म की तरह है और सभी पर इस्लामी कानून लागू होते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने भी किया समर्थन
सुप्रीम कोर्ट भारत सरकार को कई बार यह सलाह दे चुका है कि जेंडर की समानता के लिए एक यूनिफॉर्म सिविल कोड लाया जाए और पर्सनल लॉ के नाम पर चल रहे सदियों पुराने दस्तूरों को खत्म किया जाए. सुप्रीम कोर्ट ने साल 2018 में एक मामले में टिप्पणी करते हुए कहा था कि देश में समान नागरिक आचार संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लागू करने के लिए अभी तक कारगर प्रयास नहीं किए गए हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने गोवा के एक संपत्ति विवाद मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की थी. जस्टिस दीपक गुप्ता की अगुवाई वाली बेंच ने कहा था कि गोवा बेहतरीन उदाहरण है वहां पुर्तगाल सिविल कोड 1867 लागू है जिसके तहत उत्तराधिकार और विरासत का नियम लागू है.
लॉ कमीशन ने कहा था- अभी जरूरत नहीं
यूनिफॉर्म सिविल कोड, पर्सनल लॉ को लेकर लॉ कमीशन की रिपोर्ट साल 2018 में पेश की गई थी तब कमीशन ने कहा था कि इस स्टेज पर यूनिफॉर्म सिविल कोड की जरूरत नहीं है. मौजूदा पर्सनल कानूनों में सुधार की जरूरत है. धार्मिक परम्पराओं और मूल अधिकारों के बीच सामंजस्य बनाने की जरूरत है.
क्या कहता है संविधान
देश के सभी नागरिकों के लिए एक कॉमन सिविल कोड की चर्चा सबसे पहले 1840 में ही ब्रिटिश सरकार के दौरान आई थी, जब लेक्स लॉसी रिपोर्ट के आधार पर अपराध, साक्ष्य और कॉन्ट्रैक्ट के लिए समान कानून बनाए गए थे. हालांकि, तब भी हिंदू और मुस्लिम पर्सनल कानूनों को छेड़ने का साहस तत्कालीन सरकार नहीं कर पाई थी.
आजादी के बाद जब देश के संविधान बनाने के लिए बनी संविधान सभा ने भी इस तरह का प्रयास किया, लेकिन विरोध को देखते हुए इसे अनुच्छेद 44 के पार्ट 4 में नीति निर्देशक तत्व यानी डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स के रूप में शामिल किया गया. इसका मतलब यह है कि एक आदर्श समाज बनाने के लिए सरकार को ऐसा करना चाहिए, लेकिन सरकार इसके लिए बाध्य नहीं है, यानी अगर सरकार चाहे तो इसके लिए कानून ला सकती है और इस पर कोई रोक नहीं है.