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Ground Report: ‘सब्जी लेने जाना हो तो भी चाहिए मंजूरी’, आरोपी बरी लेकिन हाथरस की बेटी का परिवार अब तक गिरफ्तार!

हाथरस का वो घर! लोहे के पुराने ढब दरवाजे के सामने ही सीआरपीएफ के हथियारबंद जवानों की चौकी. कुछ जवान मकान के अगल-बगल. कुछ छत पर. सुरक्षा के लिए लगा ये जमावड़ा ही अब पीड़ित परिवार को खटकता है. मिलते ही पीड़िता के भाई कहते हैं- घर में पड़े-पड़े पत्नी को टीबी लग गई. बच्चों ने आज तक स्कूल नहीं देखा. कहीं जाओ तो एप्लिकेशन देना होगा, मंजूरी मिलेगी, तब जाकर निकलेंगे. इतने में मौका और मन- दोनों बीत जाता है!

हाथरस कांड में पीड़ित परिवार अब भी भारी सुरक्षा में जी रहा है. हाथरस कांड में पीड़ित परिवार अब भी भारी सुरक्षा में जी रहा है.
मृदुलिका झा
  • हाथरस, उत्तर प्रदेश,
  • 02 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 9:45 AM IST

सितंबर 2020 को चार कोनों से चार आंधियों की तरह हाथरस के एक घर में लोग आ जुटे. मीडिया भी था. सरकार भी और मददगार भी. सबका वादा कि इंसाफ दिलाकर रहेंगे. चुमकारते हुए ही आंसू पोंछे गए. पुचकारते हुए तसल्लियां दी गईं और फिर सन्नाटा. अब इस घर में कोई आता-जाता नहीं. न सगे वाले, न ही बाहर वाले. सिवाय हर साल होने वाली सितंबरी खड़खड़ाहट के. चार बरस से इंसाफ के इंतजार में बैठे भाई एक कुरेद में सारा गुस्सा- सारी ऊब उगल देते हैं.

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पढ़ें, पहली कड़ी: हाथरस से Ground Report: ना ‘बाइज्जत’ रहे, ना ‘बरी’ हुए…आपबीती उन परिवारों की जिनके माथे पर लिख दिया गया “हमारे बच्चे रेपिस्ट हैं!”
 
गेरू-गोबर की छबाई वाले घर में जाते ही पहला घेरा सीआरपीएफ का मिलेगा. वे नाम-परिचय पूछते हुए अधबीच में ही एक फोन करते हैं. शायद अपने अधिकारी को. हमारे बारे में बताया जाता है. फोन रोककर दोबारा तसल्ली होती है, और फिर एक रजिस्टर सामने आ जाता है. 

बगल में साल के हिसाब से कुछ और रजिस्टर रखे हुए. इनमें उन मुलाकातियों का नाम-धाम दर्ज है, जो देश-दुनिया के कई कोनों से आए होंगे. अधिकारी पेन खोज रहे हैं. पेन नदारद. इस बीच मैं अपने पर्स से निकालकर अपना ब्यौरा लिख भी चुकी. अधिकारी तिबारा पूछते हैं- फॉलोअप है न! हां में सिर हिलाते ही भाइयों की बुलाहट होती है. 

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मिनटभर में हम घर के भीतर हैं. गोबर की ताजा लिपाई में गमकती खुली हुई रसोई. भीतर का बड़ा हिस्सा पक्का. अंदर का कमरा खोल दिया जाता है. सामने ही पीड़िता की तस्वीर टंगी हुई. बड़े भाई कहते हैं- वीडियो तो नहीं चाहिए! आज रहने दीजिए. हम ऑडियो पर इंटरव्यू कर लेते हैं. 

निपट गांव के आदमी लेकिन लहजे में ठहराव. चार साल से इंटरव्यू देते-देते आदत से उपजा पकापन. बाकी गांववालों से इनके पहन-ओढ़ में भी शहर झलकता है. 

कुर्सियां खींचकर हमारे साथ ही बाकी सारे लोग भी बैठ गए, सिवाय बड़े भाई की पत्नी के. वे कहते हैं- बीमार चल रही है घर में रहते-रहते. पहले गले में अल्सर हुआ. वो ठीक हुआ तो टीबी पकड़ गई. छाती में पानी भरने लगा था. फिर बुखार-तुखार तो होते ही रहता है.

इतने में छोटा भाई अंदर से दवाओं का पूरा ढेर ले आता है. टैबलेट-कैप्सूल की खाली पत्तियां. अलग-अलग पैकेटों में बंधी हुई.

ये तो खाली हैं. इन्हें क्यों रखे हुए हैं?

क्या करें. कागज-पत्तर संभालकर रखते-रखते आदत हो गई. और वकील भी यही कहते हैं. लोगों को भी तो पता चले कि इंसाफ का इंतजार क्या-क्या लेकर आता है.

दवाओं का ढेर वापस सहेजकर उसी आले में रख दिया जाता है. इस बीच बड़े भाई कहते हैं- हम तो अस्पताल भी जाएं तो गलत व्यवहार होता है. इलाज नहीं देते. टरकाते रहते हैं. एक तो पूरा तामझाम लेकर जाओ, और फिर गलत इलाज भी लो. हारकर हमने लोकल अस्पतालों में ही जाना छोड़ दिया. नजला-बुखार के लिए दवा की पत्ती घर ही रखते हैं. कुछ ज्यादा बड़ा हो, तभी हॉस्पिटल जाते हैं.

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इतने वक्त में और क्या-क्या बदला?

क्या बदलेगा, हमारे लिए बस तारीखें और साल ही बदल रहे हैं. बाकी तो सब ठहरा हुआ है. यही तीन कमरों वाला घर. यही पाबंदी. सरकार ने 25 लाख दिए थे. खाने-पीने, बीमारी-तिरासी सबमें वही खर्च हो रहा है. यहां तक कि बाहर जाना हो तो गाड़ी अलग से करनी पड़ती है. हम दो जना जाएंगे तो साथ में चार-पांच सुरक्षाकर्मी साथ चलेंगे. वे तो बिना गाड़ी जा नहीं सकते. उसमें भी पैसे हमारे ही जा रहे हैं.

सुरक्षा हट जाए तो आप कुछ बेहतर होंगे!

सवाल का जवाब थोड़ा ठहरकर आता है. हमें तो सुरक्षा मिली ही इसलिए कि लोग जान से मारने की धमकी दे रहे थे. अब हम चाहते हैं कि सरकार ने जो वादे किए थे, वो पूरे करे. घर दे. नौकरी दे. और नहीं देना चाहती तो लिखित में बता दे. इसी मार्च में एक नोटिस लेकर अधिकारी आए थे. वो कह रहे थे कि जब हम अपना घर, अपने खेत सरकार को हैंडओवर कर देंगे, तभी तो दूसरा घर देने के बारे में सोचेगी.

आपके पास इस नोटिस पर लिखापढ़ी है?

हां. हमारे वकील के पास सब है. वे दे देंगे. नपा-तुला जवाब.

सादे चेहरे वाले पिताजी और छोटा भाई भी साथ ही साथ बोल रहे हैं. मैं छोटे भाई की तरफ देखती हूं- इनका नाम भी खूब चर्चा में रहा. गांववाले भी ऑनर किलिंग जैसा कुछ...सवाल पूरा होने से पहले ही जवाब आता है- हां, कहते तो हैं ही कि भाई ने किया होगा. नाम के चलते आरोपी पक्ष को फायदा मिल गया. 

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मैं खिंची हुई मुस्कान वाले पिता को याद करती हूं, जो थोड़ी देर पहले ही कह रहे थे कि नाम ही लल्ला को ले डूबा.

किसी ने आपकी बहन को मारने की कोशिश, या जबर्दस्ती करते देखा था क्या?

नहीं. तब आसपास कोई नहीं था. बाजरे की लंबी-लंबी खेती. ऊंचे जवान भी नजर न आएं. ऐसे में कुछ हुआ हो तो कैसे दिखेगा. मम्मी जिस वक्त खेत पहुंची, हमारी बहन निर्वस्त्र पड़ी थी. उसने थाने में भी बताया कि गुड्डू के बेटे संदीप ने उससे जबर्दस्ती करनी चाही. गांव की कम पढ़ी-लिखी लड़की. खुलकर कैसे बोल सकेगी. अपनी तरफ से तो उसने सब बता दिया था, तब भी कोर्ट ने नहीं माना कि रेप हुआ था.

तीन लोग छूटकर आ गए. एक को छोटी धाराओं में रख रखा है. वो भी पता नहीं कब बरी हो जाए. वे लोग जेल से लौटे तो रिश्तेदार आए, मिठाइयां बंटी. हमारे यहां एक जवान लड़की चली गई और कोई फटका तक नहीं. रटा-रटाया लहजा पहली बार काबू से बाहर होता हुआ.

क्यों? गांव के बाकी लोग आपसे मिलने नहीं आते!

कोई नहीं आता. जब बहन अलीगढ़ अस्पताल में थी, तब भी कोई नहीं पहुंचा. मरी तो भी आंसू तक पोंछने के लिए कोई न आया. न इतने सालों में कोई पहुंचा. लोग दूर-दूर से बचकर निकलते हैं.

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हम बात कर ही रहे हैं कि सुग्गे के अधखाए फल की तरह बीच में एक बच्ची टपक पड़ती है. मैं टॉपिक बदलते हुए पूछती हूं- आपकी बिटिया है!

न-न. रिश्ते की बहन की है. हमारी दो बेटियां रिश्तेदारी में चली गईं. यहां मां बीमार है. स्कूल जाना होता है नहीं. वहीं रहेंगी.

स्कूल क्यों नहीं जातीं?

गए थे पास के स्कूल में भर्ती के लिए. टीचर ने कहा कि अपनी रिस्क पर भेजो. वहां गांव के बाकी बच्चे भी आते हैं. कोई कुछ कह दे, या कर दे, तो हम क्या करेंगे. घर पर स्लेट ला दी है, मोबाइल देखती हैं. उसी से पढ़ लेती हैं. 

इतने में संदीप भी अपनी किताबों का गट्ठर लिए चले आते हैं. ये देखिए, मैं एसएससी की तैयारी कर रहा हूं. कोचिंग नहीं ले सकता. घर पर जो होगा, कर लेंगे. उन्होंने (सरकार) कहा था, जॉब दिलाएंगे, वही दिलवा दें. और दिल्ली में घर ताकि बिना डरे रह सकें. यहां रहेंगे तो उम्रकैद में ही रह जाएंगे.

उनकी अस्थियां कहां रखी हैं? खुले दरवाजे से तस्वीर पर नजर टिकाए-टिकाए ही मैं पूछ लेती हूं.

यहीं. घर पर रखी हैं संभालकर, लेकिन दिखा नहीं सकते. जब न्याय मिलेगा, तभी विजर्सन करेंगे.

आंगन में एक तुलसी फूली हुई है. उसे दिखाते हुए संदीप कहता है- यही पौधा उसकी आखिरी निशानी है. उसी ने लगाई थी. ठंड में जब सारी फुनगियां सूख-मर जाती हैं, ये जिंदा रहती है. थोड़ा सूखे भी तो फिर हरिया जाती है. बहन के बारे में मुलायमियत से भरा पहला वाक्य. 

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पूरी बातचीत में दो हथियारबंद जवान साथ बने रहे. मैं विदा लेती हूं तो सत्येंद्र और संदीप बाहर छोड़ने आते हैं. नपी-तुली बातें करते ये युवक कदम भी नपे-तुले लेते हुए. उनसे कदमताल करती रजिस्टर की तरफ जाती हूं तो वे कहते हैं- पीछे देखिए, आरोपियों ने नए घर बना डाले हैं. दुकान भी कर ली है. बताइए, इनके पास पैसे कहां से आ रहे हैं! कोई तो मदद करता ही होगा! 

लगभग डेढ़ हजार दिन…

कत्थई दरवाजे और हथियारबंद सुरक्षा के बीच पलते हुए भी इन चेहरों पर बीते हुए दिनों का लेखाजोखा साफ दिखता है. एक हद के बाद वे बाहर नहीं निकल सकते. न ही गांव की चौपाल पर हंस-बोल सकते हैं, न दुख-सोग में किसी को बुला सकते हैं. वे पीड़ित हैं, लेकिन दोषी से कम नहीं

(अगली कड़ी में पढ़िए, उस शख्स से बातचीत, जिसके खेत में 'हाथरस कांड' हुआ...चश्मदीद होने ने इस युवक की जिंदगी एक झटके में बदलकर रख दी! वे कहते हैं- लंबा वक्त ऐसा गुजरा कि गाड़ी के हॉर्न से भी कांप जाता था.)

(इंटरव्यू कोऑर्डिनेशन- राजेश सिंघल, हाथरस)

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