
एक दौर था जब विनोद खन्ना को सिनेमा की दुनिया में मोस्ट हैंडसम विलेन कहा जाता था, उसके बाद हीरो की भूमिका में आए, तो 70 के दशक में मोस्ट गुडलुकिंग हीरो का खिताब मिला. इस दौर में वो अमिताभ बच्चन जैसे एंग्री यंगमैन के सबसे बड़े मुकाबलेदार माने गए. फिर स्टारडम की चकाचौंध से मन अचानक ऊबा, तो संन्यास धारण कर लिया. तब उनसे जुड़ी खबरें सेक्सी संन्यासी जैसे खिताब के साथ छपा करती थीं.
1973 में गुलजार की फिल्म अचानक में विनोद खन्ना ने ऐसे नायक की भूमिका निभाई, जो शादी के बाद किसी और से प्यार करने वाली अपनी पत्नी की हत्या कर देता है, लेकिन दर्शकों की सहानुभूति अपने हीरो से कम नहीं होती. धीरे-धीरे दर्शकों के प्यार के साथ वो हीरो परदे पर ऐसे परवान चढ़ता है, कि बॉक्स ऑफिस पर फिल्में उसके दम पर चलने लगती हैं. 1974 में आई इम्तिहान नाम की फिल्म इसकी मिसाल है. उस दौर में बढ़ती विनोद खन्ना की लोकप्रियता की एक मिसाल हाथ की सफाई नाम की फिल्म भी है.
1974 में आई ये फिल्म अमिताभ बच्चन को जंजीर नाम की फिल्म से सुपरस्टार बनाने वाले डाइरेक्टर प्रकाश मेहरा ने बनाई थी. ये फिल्म भी जंजीर की तरह सुपरहिट रही. उस कामयाबी ने विनोद खन्ना की छवि बतौर हीरो और पुख्ता बनाई. ये छवि इतनी मजबूत थी कि सिनेमा के जिस दौर में बॉक्स ऑफिस पर सिक्का सबसे ज्यादा अमिताभ बच्चन का चलता था, उस दौर में विनोद खन्ना एंग्री यंगमैन के सबसे बड़े मुकाबलेदार माने गए.
खून पसीना में अमिताभ के सामने विनोद खन्ना की मौजूदगी बराबर की रही. उस बराबर की टक्कर के बाद अमिताभ के एक और मुरीद डाइरेक्टर मनमोहन देसाई की नजर विनोद खन्ना पर गई. इसके बाद तो अमिताभ की हर फिल्म में जैसे विनोद खन्ना का रोल पक्का होता गया.
मनमोहन देसाई ने उन्हें अमर अकबर एंथनी के बाद परवरिश जैसी फिल्म में अमिताभ के साथ दोहराया. तो प्रकाश मेहरा ने एक बार फिर उन्हें 'मुकद्दर का सिकंदर' में आजमाया. इन चारों फिल्मों में सहायक हीरो की भूमिका करते हुए भी विनोद खन्ना अमिताभ के बराबरी करते नजर आए.
अमिताभ को बराबर की टक्कर के साथ उस दौर में विनोद खन्ना की अपनी अलग सितारा हैसियत भी थी. इस हैसियत के साथ विनोद खन्ना की दो-तीन फिल्म हर साल सुपरहिट होती थी. हालांकि इस दौर में सोलो हीरो फिल्में विनोद खन्ना को कम ही मिली. लेकिन अपने चाहने वालों की नजर में इकलौते हीरो थे, जो अमिताभ के सुपरस्टारडम को भी पीछे छोड़ सकते थे.
तब किसे अंदाजा था सुपरस्टारडम की उस बुलंदी पर उस हीरो का मन अपने ही जेहन की उलझनों में गुम होता जा रहा है. सिनेमा को लेकर उसकी सोच कामयाबी शोहरत और सुपरस्टाडम की कामना से कहीं आगे निकल चुकी थी. 1978-79 के उन बरसों में विनोद खन्ना का मन अध्यात्म की तरफ झुकने लगा था. उन्होंने कहा था-मुझे ऐसा लगने लगा था जैसे मैं कोई मशीन हो गया हूं. गुस्सा, प्यार और हंसी ठिठोली जैसी भावनाओं पर भी मेरा कोई नियंत्रण रह गया था. ऐसा लगता था जैसे कोई बटन दबाता है और मैं एक्शन में आ जाता हूं.
सिनेमाई एक्शन और मुख्यधारा की चकाचौंध से अलग मीरा और मैं तुलसी तेरे आंगन की जैसी फिल्में उन्हें ज्यादा सुकून देने लगी थीं. यूं कहें कि विनोद खन्ना का मन सिनेमा की दुनिया से उबने लगा था. ये बात किसी को भी हैरान करने वाली थी, जिस मोड़ से उस हीरो को सुपरस्टारडम के मुकाम तक पहुंचना था, उस मुकाम पर ख्याल कुछ ऐसे आने लगे थे.