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अगर पता चले कि सबसे बड़े वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र पाने वाले शहीद की पत्नी रोजी रोटी के लिए दूसरों के घरों में चौका बर्तन कर रही है तो एक हिंदुस्तानी का सिर शर्म से झुक जाएगा.
ऐसा ही दावा करने वाला एक मैसेज पिछले कुछ महीनों से सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. यकीन न हो तो गूगल पर सिर्फ Story of Birba टाइप करके देखिए. तमाम वेबसाइट, फेसबुक के पेज और ट्विटर के पोस्ट मिल जाएंगे जो असम के रहने वाले एक बीर बहादुर गुरुंग की ऐसी ही एक मार्मिक कहानी बयान करते हैं.
इस कहानी के मुताबिक बीर बहादुर गुरुंग का बचपन का नाम बीरबा था और उन्हें छोटी उम्र में ही बहादुरी के लिए राष्ट्रपति द्वारा वाली बहादुरी पुरस्कार दिया गया था. इस कहानी में न सिर्फ बीरबा के बचपन की घटनाओं का विस्तार से वर्णऩ है बल्कि यह भी बताया गया है कि कैसे कारगिल की लड़ाई के दौरान अंतिम सासों तक लड़ते हुए उन्होंने देश के लिए प्राण न्योछावर कर दिए.
किसी अज्ञात लेखक द्वारा लिखी गई यह कहानी दावा करती है कि इस वीरता के लिए परमवीर चक्र मिलने के बाद भी देश उनके परिवार को भूल गया है और अब उनकी विधवा को असम के एक शहर में घर-घर जाकर काम करना पड़ रहा है. कहानी यह भी दावा करती है कि भारत के लोग बीरबा को भूल गए, लेकिन कनाडा की किताबों में उनकी कहानी स्कूलों में पढ़ाई जा रही है.
जब ''आजतक'' ने बीरबा की इस कहानी की सच्चाई का पता लगाना शुरू किया तो सबसे पहले गौर करने वाली बात ये दिखी कि हर जगह कहानी के शब्द हूबहू वही हैं. यानी किसी एक व्यक्ति की लिखी इस दास्तां को ही लोग दनादन शेयर किए जा रहे हैं. यह पता लगाना बिल्कुल मुश्किल नहीं था कि बीर बहादुर गुरुंग नाम के किसी व्यक्ति को परमवीर चक्र मिला है या नहीं. बहादुरी और बलिदान के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार परमवीर चक्र भारत में अब तक सिर्फ 21 लोगों को ही मिला है और उनमें किसी का नाम बीर बहादुर गुरुंग नहीं है.
कहानी में बीरबा के बचपन में दोस्तों के साथ नदी के किनारे घूमने जैसी बातों का वर्णन भी ऐसे किया गया है जैसे लिखने वाले ने सब कुछ अपनी आंखों से देखा हो. लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि बीर बहादुर गुरुंग असम के किस शहर या गांव में रहते थे इसके बारे में भी कुछ नहीं लिखा है.
यहां तक कि जिले का भी कोई जिक्र नहीं है. बचपन में राष्ट्रपति द्वारा बहादुरी पुरस्कार दिए जाने की बात कही गई है और ये भी कहा गया है कि बीरबा राजपथ पर हाथी पर चढ़ कर घूमे. लेकिन वीरता पुरस्कार किस साल मिला इसके बारे में कुछ नहीं लिखा है.
कहानी में लिखा है कि बहादुरी पुरस्कार मिलने के चौदह सालों बाद बीर बहादुर गुरुंग कारगिल के युद्ध में शहीद हो गए. इस हिसाब से उन्हें बहादुरी पुरस्कार 1984 या 1985 में मिला होगा. लेकिन जांच करने पर पता चला कि इन दोनों सालों में किसी बीर बहादुर गुरुंग या बिरबा को राष्ट्रपिता से बहादुरी परस्कार नहीं मिला था.
वायरल पोस्ट में कहा गया है कि बीर बहादुर गुरुंग कारगिल युद्द के दौरान ''पीक तोलोलिंग'' पर लड़ते हुए शहीद हो गए थे, लेकिन पीक तोलोलिंग के युद्ध में मेजर राजेश अधिकारी शहीद हुए थे, जिन्हें मरोणपरांत महावीर चक्र दिया गया था. यहां शहीद होने वालों में बीर बहादुर गुरुंग नाम का कोई सैनिक नहीं था. बीर बहादुर गुरुंग नाम के एक सैनिक पाकिस्तान से युद्ध में शहीद जरूर हुए थे, लेकिन ये घटना 1971 में हुई थी न कि कारगिल युद्ध के दौरान. बीर बहादुर गुरुंग नाम के अन्य सैनिक को 1968 में शौर्य पुरस्कार मिला था, लेकिन वो शहीद नहीं हुए थे. इसके अलावा वह असम के रहने वाले भी नहीं थे. जाहिर है झूठी कहानी गढ़ने वाले ने कहीं से नाम और कहीं से कोई घटना उठाकर जोड़ दिया है.
कहानी के अंत में दावा किया गया है कि ये तमाम जानकारी उसे मेजर जनरल हर्ष कक्कर से मिली है. लेकिन मेजर कक्कर ने ट्विटर पर खुद इस बात का खंडन किया है. उन्होंने कहा है कि- 'यह मैसेज सरासर झूठ है और किसी शरारती तत्व ने मेरा नाम इस मैसेज में डाल है. मैं कभी ऐसी कहानी नहीं लिखता.'
सबसे अजीब बात ये है कि इस फर्जी कहानी के मुताबिक बीरबा की बहादुरी की कहानी कनाडा में आठवीं क्लास में अंग्रेजी की किताब में पढ़ाई जाती है. ये बात समझ के परे है कि जब बीर बहादुर गुरुंग का कनाडा से कोई लेना-देना नहीं था तो उनकी कहानी कनाडा की किताबों में क्यों पढ़ाई जाएगी.
इस बारे में पूछने पर सेना के प्रवक्ता ने कहा, सेना अपने लोगों के परिवार का ध्यान रखने के लिए तमाम व्यव्स्था करती है. इसमें हो सकता है कभी कोई कमी रह जाए, लेकिन इस कहानी को वह सच नहीं कह सकते.
इसमें कोई शक नहीं कि बीर बहादुर गुरुंग की यह कहानी पूरी तरह से झूठी और मनगढ़ंत है जिसका मकसद भारतीय सेना के मनोबल को कम करना है.