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127 करोड़ का देश ओलंपिक में क्यों फिसड्डी हो जाता है?

ओलंपिक का खुमार अपने सार्वकालिक चरम पर है. ऐसा लग ही नहीं रहा कि भारत जैसा देश इस खेल में सीरियसली पार्टिसिपेट कर रहा है. ऐसे में पढ़ें एक आम नागरिक का दर्दे-बयां...

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विष्णु नारायण
  • नई दिल्ली,
  • 17 अगस्त 2016,
  • अपडेटेड 1:06 PM IST

आज-कल टीवी, अखबार और सोशल मीडिया पर ओलंपिक की खुमारी चढ़ी है. सोशल मीडिया पर लोग अपनी प्रोफाइल तस्वीरों का रंगरूप बदल कर देश की ओलंपिक टीम का हौसला बढ़ा रहे हैं तो वहीं इंडियन ओलंपिक कमिटी ने भी इस बार भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी टीम ओलंपिक्स में भेजी है. इस सबके बावजूद जो खबरें रियो के मैदान से आ रही हैं वह निराश ही करने वाली हैं. 127 करोड़ की जनसंख्या वाला देश ओलंपिक के मंच पर ऐसे चारों खाने चित्त होता है जैसे कि उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा हो. एकाध मेडल कहीं गाहे-बगाहे आ भी गए तो उन्हें लेकर ही अपनी पीठ सभी ऐसे थपथपाते हैं जैसे कोई बहुत बड़ा तीर मार दिया हो.

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सोशल मीडिया पर लोग ऐसे बिहेव करेंगे कि यदि आज सारी दुनिया के देशों के बीच दंगल करा दिए जाएं तो भारत ही अव्वल रहेगा, लेकिन अफसोस कि यह सब-कुछ यथार्थ के धरातल तक नहीं पहुंच पाता. अब कुश्ती की ही बात ले लें. पहले-पहल तो यहां के कुश्ती संघों में राजनेताओं की बिना वजह दखलंदाजी. दूसरा आपसी सामंजस्य और सम्मान की खबरों के बजाय डोपिंग में भीतर के ही लोगों के संलिप्त होने की खबरें आना, और वो भी ओलंपिक की टीम चयनित होने के बाद. आखिर हम पूरी दुनिया को दिखाना क्या चाहते हैं?

लॉन टेनिस जैस टीम खेलों में कोई अपने अहम का त्याग करने को तैयार नहीं. अंत तक इस बात को लेकर उहापोह की स्थिति रही कि कौन किसके साथ जोड़ी बनाएगा? यह सब-कुछ जानते हुए कि उन्हें खेल के मार्फत जो भी शोहरत और धन-संपदा मिली है, वह सिर्फ इसलिए कि उनके भीतर दुनिया के किसी भी मंच पर देश का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता दिखी. देश की मासूम और भोली जनता ने पलक-पांवड़े बिछा दिए.

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एक तरफ जहां हमसे बहुत छोटे देश, जनसंख्या और क्षेत्रफल दोनों मामले में, दर्जनों मेडल जीत रहे हैं. वहीं हम अभी ब्लेजर-कोट और ड्रेस कोड की बहसों में ही उलझे हैं. सिर्फ क्रिकेट जैसे खेल जिन्हें दुनिया के दर्जन भर देशों में खेला और सराहा जाता है में कभी जीत तो कभी हार कर अपनी पीठ खुद ही थपथपा लेते हैं. हालांकि इसमें ऐसा भी नहीं है कि सारी गलती आम जनता की है. दरअसल हमारी जिम्मेदार संस्थाएं इस बात से वाकिफ ही नहीं हैं कि जिम्मेदारी वाकई कहते किसको हैं. एथलीट और खिलाड़ियों को चिन्हित और तैयार करने का मैकेनिज्म क्या हो?

यहां इस मामले में चीन का जिक्र करना प्रासंगिक भी है और जरूरी भी. चीन हमारा पड़ोसी देश है और यह कोई एक-दो दशकों पहले की ही बात होगी कि ओलंपिक में वह भी अपनी जनसंख्या के अनुरूप परफॉर्म नहीं करता था. मगर आज की तारीख में वह अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी जैसे देशों से कंधा-से-कंधा रगड़ता दिखता है. पूरी दुनिया चीनी ड्रेगन से डरने लगी है. उन्होंने वहां तक पहुंचने के लिए किसी लफ्फाजी या शॉर्टकट का सहारा नहीं लिया बल्कि कड़ी मेहनत और स्टेट के देख-रेख में पसीना बहाया.

आज जरूरत है कि हम अपनी गलतियों से सीखते हुए आगे बढ़ें और ईमानदार प्रयास करें. आखिर दूसरों से तो नजरें चुराना फिर भी आसान है लेकिन खुद की नजरों से कब तक बचेंगे? अकेले में खुद को आईने में कैसे देख पाएंगे.

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