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करुणानिधि के बाद क्या फिर स्टालिन और अलागिरी के बीच छिड़ेगी विरासत की जंग?

करुणानिधि द्वारा अपना उत्तराधिकारी घोषित किए जाने बाद स्टालिन और उनके बड़े भाई अलागिरी के बीच छिड़ी विरासत की जंग पर भले ही शांत हो लेकिन इस राख के नीचे शोले अभी भी धधक रहे  हैं.

करुणानिधि के साथ स्टालिन, फाइल फोटो करुणानिधि के साथ स्टालिन, फाइल फोटो
विवेक पाठक
  • नई दिल्ली,
  • 08 अगस्त 2018,
  • अपडेटेड 10:55 AM IST

लगभग 50 साल तक बिना किसी चुनौती के द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के प्रमुख की भूमिका निभाने वाले दिवंगत एम करुणानिधि ने डीएमके की कमान अपने पुत्र एम के स्टालिन को सौंपी होगी तो उनके जेहन में यह खयाल जरूर आया होगा कि भले ही नए नेतृत्व का कार्यकाल उनके जितना लंबा न हो लेकिन स्टालिन का डीएमके प्रमुख के तौर पर नियंत्रण और सफर उन्ही की तरह मजबूत रहेगा.

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लेकिन करुणानिधि को अपने जीवन काल में ही उत्तराधिकारी स्टालिन और बेटे एम के अलागिरी के बीच संघर्ष से रूबरू होना पड़ा. पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के निधन के बाद आर के नगर सीट पर हुए विधानसभा चुनाव में जब दो खेमों में बंटी एआईएडीएमके ने दो प्रत्याशी खड़े किए तो माना जा रहा था कि इस सीट पर डीएमके की आसान जीत होगी. लेकिन न सिर्फ पार्टी तीसरे स्थान पर रही बल्की डीएमके प्रत्याशी की जमानत तक जब्त हो गई. आर के नगर सीट के नतीजे के बाद करुणानिधि के बड़े पुत्र अलागिरी को कार्यकारी अध्यक्ष और छोटे भाई स्टालिन के खिलाफ मोर्चा खोलने का मौका मिल गया. बता दें कि नतीजों पर टिप्पड़ी करते हुए अलागिरी ने कहा था कि न सिर्फ आर के नगर बल्की डीएमके स्टालिन के नेतृत्व में कोई चुनाव नहीं जीत पाएगी.

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स्टालिन के नेतृत्व में ही डीएमके ने 2016 का विधानसभा चुनाव लड़ा और पार्टी को लगातार दूसरी बार हार का सामना करना पड़ा. यह पार्टी के लिए किसी बड़े झटके से कम न था जब डीएमके सरकार विरोधी लहर के बावजूद सत्ता में वापसी नहीं कर पाई. जिसे लेकर पार्टी में इस तरह की चर्चा होने लगी कि स्टालिन को डीएमके के केंद्रीकृत ढ़ांचे के बारे में दोबारा सोचना चाहिए जो उनके कुछ चुने हुए लोगों द्वारा चलाई जा रही है. लेकिन डीएमके के वरिष्ठ नेताओं और युवा नेतृत्व को साथ लेकर चलने की काबिलियत के चलते करुणानिधि का विश्वास स्टालिन पर बरकरार रहा.

तब से स्टालिन ने बड़ी सावधानी से डीएमके संगठन में बड़े बदलाव किए जिससे उन्होने अपने विश्वासपात्रों का पार्टी मे प्रवेश आसान कर दिया. तो वहीं दक्षिणी तमिलनाडु और मदुरई में प्रभाव रखने वाले अलागिरी के समर्थकों को या तो महत्वपूर्ण पदों से हटा दिया या फिर पार्टी से बाहर कर दिया.

एक वक्त था जब 70 और 80 के दशक में डीएमके के पास दूसरी पंक्ती के नेताओं की संरचना थी जो करुणानिधि सरीखे दूरदर्शी करिश्माई नेतृत्व में पार्टी की विचारधारा को लेकर संघर्ष किया करते थें. लेकिन आज की डीएमके में दो भाईयों और उनके समर्थकों का संघर्ष है.

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नेतृत्व के स्तर की बात करें तो पिछले डेढ़ साल में स्टालिन को अपने बड़े भाई एम के अलागिरी से गाहे बगाहे चुनौती मिलती रही है. जबकि पार्टी के अन्य बड़े नेता और करुणानिधि परिवार के सदस्य जिनमें राज्य सभा सांसद कनिमोझी, ए राजा और दयानिधि मारन से फिलहाल स्टालिन को कोई खतरा नहीं है. क्योंकि यह तीनों बड़े नेता दिल्ली के सत्ता गलियारों में ज्यादा सहज है. करुणानिधि की तीसरी पत्नी रजति अम्मल की बेटी कनिमोझी दिल्ली में कभी करुणानिधि के दाहिने हाथ माने जाने वाले दिवंगत मुरासोली मारन की भूमिका निभा सकती हैं.

पिता की मौत के बाद अलागिरी का रूख क्या होगा यह देखने वाली बात होगी. लेकिन एक बात तो तय है कि अब करुणानिधि की नामौजूदगी से अलागिरी पर कोई लगाम और लिहाज नहीं होगा. लिहाजा नेतृत्व को बनाए रखने में खुद करुणानिधि द्वारा राजनितिक रूप में तैयार किए गए स्टालिन को भविष्य में कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है.

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