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अखिलेश-जयंत-चंद्रशेखर के साथ आने से पश्चिम यूपी में बीजेपी के लिए कैसी होगी चुनौती?

पश्चिम यूपी की सियासत में जाट, मुस्लिम और दलित काफी अहम भूमिका अदा करते हैं. आरएलडी का कोर वोटबैंक जहां जाट माना जाता है तो सपा का मुस्लिम है. वहीं, चंद्रशेखर ने दलित नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई है.

जयंत चौधरी और अखिलेश यादव जयंत चौधरी और अखिलेश यादव
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 24 फरवरी 2021,
  • अपडेटेड 12:48 PM IST
  • पश्चिम यूपी के समीकरण साधने की कोशिश में अखिलेश यादव
  • जाट, मुस्लिम और दलित वोट है पश्चिम यूपी में निर्णायक
  • पश्चिम यूपी में बीजेपी और बीएसपी के लिए चुनौती

उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अभी से ही सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव 2022 के चुनाव में बड़े दलों के बजाय छोटे दलों के साथ गठबंधन बनाने की कवायद में जुटे हैं. ऐसे में भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद की अखिलेश यादव से तीन मुलाकात हुईं, जो पश्चिमी यूपी के नए बनते समीकरण की ओर इशारा कर रही हैं. वहीं, चौधरी अजित सिंह की आरएलडी पहले से ही सपा के साथ है. अखिलेश-जयंत चौधरी-चंद्रशेखर की तिकड़ी आगामी चुनाव में एक साथ मिलाकर उतरते हैं तो पश्चिम यूपी में बीजेपी और बीएसपी दोनों के लिए राजनीतिक तौर पर कड़ी चुनौती हो सकती है. 

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सपा प्रमुख अखिलेश यादव 2022 चुनाव के लिए महान दल के केशव मौर्य और जनवादी पार्टी के संजय चौहान को अपने साथ मिला चुके हैं. इसके अलावा यूपी में पिछले दिनों उपचुनाव में सपा ने आरएलडी के लिए बुलंदशहर की सीट छोड़ी थी. सपा ने इस सीट पर आरएलडी को समर्थन किया था और हाल में जिस तरह से जयंत चौधरी की किसान पंचायतों में सपा नेता शामिल हो रहे हैं. इससे जाहिर होता है आरएलडी के साथ उनका तालमेल तय है. वहीं, अब सपा अखिलेश और चंद्रशेखर के बीच नजदीकियां बढ़ रही हैं. 

पश्चिम यूपी की सियासत में जाट, मुस्लिम और दलित काफी अहम भूमिका अदा करते हैं. आरएलडी का कोर वोटबैंक जहां जाट माना जाता है तो सपा का मुस्लिम है. वहीं, चंद्रशेखर ने दलित नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई है. 2017 में सहारनपुर में ठाकुरों और दलितों के बीच हुए जातीय संघर्ष में दलित समाज के युवाओं के बीच चंद्रशेखर ने मजबूत पकड़ बनाई है. ऐसे में चंद्रशेखर और जयंत चौधरी को अखिलेश अपने साथ जोड़कर दलित-मुस्लिम-जाट का मजबूत कॉम्बिनेशन बनाना चाहते हैं. 

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बीजेपी-बीएसपी के लिए होगी कड़ी चुनौती

वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि 2013 से पहले पश्चिम यूपी में बीजेपी का कोई खास जनाधार नहीं रहा था, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगे के बाद जाट समुदाय को जोड़कर उसने अपनी सियासी जमीन को मजबूत किया. किसान आंदोलन के चलते  जाट-मुस्लिम के बीच दूरियां पटती दिख रही है. आरएलडी पश्चिम यूपी में जिस तरह से किसान पंचायत के जरिए सक्रिय है तो चंद्रशेखर आजाद की दलित समुदाय के बीच पकड़ मजबूत हो रही है. ऐसे में जयंत चौधरी, चंद्रशेखर और अखिलेश एक साथ आते हैं तो पश्चिम यूपी की तमाम छोटी-छोटी जातीय के लोग भी जुड़ेंगे, जो बीजेपी के लिए ही नहीं बल्कि बसपा के लिए कड़ी चुनौती होगी. 

सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं यूपी में बीजेपी और बसपा की सत्ता आने में पश्चिम यूपी की काफी अहम भूमिका रही है. बसपा का बड़ा जनाधार इसी पश्चिम यूपी के इलाके में है. 2007 में पश्चिम यूपी में मुस्लिम-दलित-गुर्जर के सहारे मायावती इस पूरे इलाके में क्लीन स्वीप करने में कामयाब रही थी. ऐसे ही मुजफ्फरनगर दंगे के चलते जाट-मुस्लिम के बीच आई दूरी का सियासी फायदा बीजेपी को मिला था. किसान आंदोलन के चलते जिस तरह से पश्चिम यूपी में एक बार फिर जाट-मुस्लिम सहित किसान जातियां साथ आ रही हैं और दूसरी तरफ अखिलेश यादव-जयंत चौधरी-चंद्रशेखर साथ आते हैं तो पश्चिम यूपी में मजबूत ताकत बनकर उभर सकते हैं. 

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बता दें कि 2017 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम यूपी की कुल 135 सीटों में से 109 सीटें बीजेपी ने जीती थीं जबकि 20 सीटें सपा के खाते में आई थीं. कांग्रेस दो सीटें और बसपा तीने सीटें जीती थी. वहीं, एक सीट आरएलडी के खाते में गई थी, जहां से विधायक ने बाद में बीजेपी का दामन थाम लिया. पश्चिम यूपी में जाट 20 फीसदी के करीब हैं तो मुस्लिम 30 से 40 फीसदी के बीच हैं और दलित समुदाय भी 25 फीसदी के ऊपर है. यही वजह है कि अखिलेश यादव यूपी की सत्ता में वापसी के लिए पश्चिम यूपी में जाट-मुस्लिम-दलित समीकरण को अमीलीजामा पहनाना चाहते हैं. 

चंद्रशेखर दिखा पाएंगे मायावती से ज्यादा असर?

वरिष्ठ पत्रकार अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी अखिलेश यादव मायावती और चौधरी अजित सिंह के साथ ऐसा ही समीकरण बनाकर उतरे थे, पर सपा-आरएलडी से ज्यादा बसपा को फायदा मिला था. हालांकि, किसान आंदोलन के चलते पश्चिम यूपी में माहौल बीजेपी के खिलाफ बन रहा है और जयंत चौधरी का ग्राफ भी बढ़ता दिख रहा है. वहीं, चंद्रशेखर आजाद जरूर दलित नेता के तौर पर उभरे हैं, लेकिन अभी तक न तो उनकी राजनीतिक दशा दिशा तय है और न ही मायावती का विकल्प बन सके हैं. जयंत के आने से सपा को तो फायदा हो सकता है, लेकिन चंद्रशेखर के जरिए दलित वोटर आएगा यह कहना अभी मुश्किल है, क्योंकि अभी भी दलितों के पहली पंसद मायावती ही हैं. 

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उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी लगभग 21 फीसदी से 23 फीसदी है. दलितों का यह समाज दो हिस्सों में बंटा है. पहला जाटव, जिनकी आबादी करीब 14 फीसदी है जबकि गैर-जाटव वोटों की आबादी करीब 8 फीसदी है. इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं. मायावती और चंद्रशेखर आजाद दलित समुदाय के एक ही जाति से आते हैं और एक ही क्षेत्र से हैं. दोनों जाटव समाज से संबंध रखते हैं. ऐसे में अब प्रदेश में दलित वोटबैंक पर ही दोनों की नजर है. हालांकि, कुछ वर्षों में दलितों का उत्तर प्रदेश में बीएसपी से मोहभंग होता दिखा है. 

चंद्रशेखर आजाद ने आजतक से बातचीत में कहा कि बीजेपी के खिलाफ एक बड़ा गठबंधन होना चाहिए ताकि बिहार की तरह यूपी में गलती न दोहराई जाए. इसके लिए राजनीतिक दलों के नेताओं को अपनी जिद को भी छोड़नी होगी. चंद्रशेखर यूपी में बीजेपी के खिलाफ बड़े गठबंधन की बात तो कर रहे हैं, लेकिन सपा के साथ हाथ मिलाने पर अभी अपने पत्ता नहीं खोल रहे हैं. 

 

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