
6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था. 16वीं शताब्दी में बनाई गई बाबरी मस्जिद ढांचे को गिराने के बाद देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया था, जिसके कारण हिंसा भी हुई और संपत्तियों को भी नुकसान पहुंचाया गया था. अब एक बार फिर बाबरी विध्वंस की चर्चा हो रही थी क्योंकि इस घटना के लगभग 27 साल बाद 30 सितंबर को इस मुकदमे का फैसला आने वाला है.
लंबे समय तक चले राम मंदिर आंदोलन के बाद 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में जुटे लाखों कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था. बाबरी मस्जिद स्ट्रक्चर गिराने के बाद उसी स्थान पर एक अस्थाई राम मंदिर का निर्माण कर दिया गया और पूजा पाठ शुरू कर दी गई. इस मामले में उसी दिन अयोध्या पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज की थीं. पहली एफआईआर कारसेवकों के खिलाफ दर्ज की गई. जिसका नंबर 197/1992 था. इस एफआईआर में कारसेवकों पर डकैती, लूटपाट, मारपीट करना, चोट पहुंचाना, सार्वजनिक इबादत गाह को क्षतिग्रस्त करने और धार्मिक वैमनस्यता भड़काने के आरोप लगाए गए थे.
जबकि दूसरी एफआईआर संख्या 198/1992 में भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कुल आठ नेताओं और पदाधिकारियों को आरोपी बनाया गया था. इन पर मंच पर खड़े होकर भड़काऊ भाषण देने का आरोप था. इन लोगों में विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन महासचिव अशोक सिंघल, बजरंग दल नेता विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती, विष्णु हरि डालमिया, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, गिरिराज किशोर के नाम थे.
कैसे आगे बढ़ी जांच
इस मामले में कारसेवकों के खिलाफ दर्ज हुई पहली एफआईआर की जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी. जबकि भड़काऊ भाषण देने के आरोपियों के खिलाफ दर्ज हुई दूसरी एफआईआर की जांच यूपी सीआईडी को सौंप दी गई थी. हालांकि इसके बाद 1993 में दोनों एफआईआर को स्थानांतरित कर दिया गया था.
भड़काऊ भाषण देने के आरोपियों के खिलाफ दर्ज हुई एफआईआर की सुनवाई रायबरेली जनपद के विशेष अदालत में ट्रांसफर की गई जबकि पहली एफआईआर जो कारसेवकों के खिलाफ दर्ज हुई थी, उसकी सुनवाई के लिए ललितपुर में एक विशेष अदालत का गठन किया गया.
लिब्रहान आयोग ने बताया था गहरी साजिश
बाबरी मस्जिद विध्वंस की जांच करने के लिए केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने लिब्राहन आयोग का गठन किया था. उक्त घटना के 10 दिन बाद गठित हुए लिब्रहान आयोग को अगले 3 महीने में जांचकर रिपोर्ट सौंपनी थी लेकिन लिब्रहान आयोग को जांच करने में काफी समय लग गया और इस दौरान कार्यकाल 48 बार बढ़ाया गया. आखिरकार 30 जून 2009 को लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को सौंप दी. अपनी जांच रिपोर्ट में आयोग ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को गहरी साजिश बताया था.
यही नहीं उसने इस साजिश में शामिल लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाए जाने की सिफारिश भी की थी. इसके बाद बाबरी विध्वंस के दिन कारसेवकों के खिलाफ दर्ज हुए पहले मुकदमे में कूटरचना की धारा 120(B) बढ़ाई गई और पहले के दर्ज 2 मुकदमों के अलावा कारसेवकों के खिलाफ 47 और मुकदमे दर्ज किए गए. इन अधिकतर मुकदमों में पत्रकारों के साथ मारपीट करने और लूटपाट करने के मामले थे, जिसे बाद में पहले मुकदमे के साथ सीबीआई को सौंप दिया गया था.
कई आरोपियों के नाम बाद में शामिल
बाबरी विध्वंस घटना के दिन दर्ज हुए मुकदमे अपराध संख्या 197 और 198 एक दूसरे से जुड़े हुए थे, इसलिए सीबीआई ने दोनों को जोड़ते हुए 5 अक्टूबर 1993 को संयुक्त चार्जशीट दाखिल की. इस चार्जशीट में ही बालासाहेब ठाकरे, चंपत राय, महंत नृत्य गोपाल दास, महंत धर्मदास, पवन पांडे, संतोष दुबे और कल्याण सिंह समेत कुछ और लोगों के नाम शामिल किए गए थे.
इसी के बाद यूपी सरकार ने 8 अक्टूबर 1993 को नोटिफिकेशन के जरिए मुकदमा संख्या 198 को भी सभी मुकदमों के साथ जोड़ दिया और यहीं से बाबरी विध्वंस केस से जुड़े सभी मुकदमे की सुनवाई लखनऊ के स्पेशल कोर्ट में सुनवाई का मार्ग प्रशस्त हो गया. अब 30 सितंबर को लखनऊ स्पेशल कोर्ट ही तय करेगी कि किसको कितनी सजा मिलेगी और किसको कितनी राहत.