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गोरखपुर के वनटांगिया गांव में आज दिवाली मनाएंगे सीएम योगी

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर में वनटांगिया समुदाय के बीच पिछले कई सालों से दिवाली मनाते आ रहे हैं. गोरखपुर, महाराजगंज, श्रावस्ती से लेकर गोंडा तक के इलाकों में वनटांगिया समुदाय के लोग रहते हैं.

सीएम योगी आदित्यनाथ (फाइल फोटो) सीएम योगी आदित्यनाथ (फाइल फोटो)
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 07 नवंबर 2018,
  • अपडेटेड 1:37 PM IST

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर में वनटांगिया समुदाय के बीच दिवाली मनाएंगे. योगी पिछले कई सालों से उनके गांव आकर दिवाली मनाते हैं और इस बार भी समुदाय के लोग उनके आने को लेकर बेहद उत्साहित हैं. हालांकि, योगी वनटांगिया समुदाय से लगाव काफी पहले से है.

गोरखपुर में मौजूद वनटांगिया गांव तिकोनियां नंबर तीन की रहने वाली 23 साल की शगुनी ने बताया कि हमने महाराज जी के स्वागत के लिये सरस्वती वंदना और सफाई को आधार बनाते हुये गीत तैयार किए हैं. हमारे लिए दिवाली का मतलब महाराज जी (योगी आदित्यनाथ) होते हैं. महाराज जी ने जब से आना शुरू किया तभी से हम दीपावली का त्योहार मना रहे हैं.

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योगी आदित्यनाथ सियासत में कदम रखा तो गोरखपुर को अपनी कर्मभूमि बनाई. इसके बाद योगी वनटांगियों से संपर्क हुआ, तब से वो इनके विकास के लिए हरसंभव कोशिश में जुट गए और हर साल दिवाली उन्हीं के बीच मनाते हैं.

वनटांगिया लोगों को आजादी के इतने साल बाद भी किसी राजनीतिक दल या सरकारों ने सुध नहीं ली, उन्हें मुख्य धारा में जोड़ने का काम योगी आदित्यनाथ ने शुरू किया. योगी ने इनके बीच आना-जाना शुरू किया और तब से लगातार उनके बीच दिवाली मनाते आ रहे हैं.

बता दें कि गोरखपुर से करीब 11 किलोमीटर दूर पिपराइच रोड पर वनटांगिया गांव शुरू हो जाते हैं. गोरखपुर अलावा महाराजगंज और श्रावस्ती से लेकर गोंडा के कई गांवों में वनटांगिया समुदाय के लोग रहते हैं. मुख्यमंत्री ने पिछले साल गोरखपुर, महाराजगंज और गोंडा के ऐसे कई गांवों को राजस्व ग्राम घोषित किया था.   

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हालांकि, वनटांगिया समुदाय के गांवों में स्कूल, अस्पताल, बिजली, सड़क, पानी जैसी कोई सुविधा थी ही नहीं. एक तरह से वनटांगिया खानाबदोश की जिंदगी जी रहे थे. उन्हें लोकसभा और विधानसभा में वोट देने का अधिकार 1995 में मिला. इससे आप इनकी उपेक्षा का अंदाजा लगा सकते हैं.

दरअसल करीब सौ साल पहले अंग्रेजों के शासन में पूर्वी उत्तर प्रदेश में रेल लाइन बिछाने, सरकारी विभागों की इमारत के लिए लकड़ी मुहैया कराने के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए थे. अंग्रेजों को उम्मीद थी कि काटे गए पेड़ों की खूंट से फिर जंगल तैयार हो जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

इसके बाद जंगल क्षेत्र में पौधों की देखरेख करने के लिए मजदूर रखे गए थे. इसके लिए 1920 में बर्मा (म्यांमार) में आदिवासियों द्वारा पहाड़ों पर जंगल तैयार करने के साथ-साथ खाली स्थानों पर खेती करने की पद्धति 'टोंगिया' को आजमाया, इसलिए इस काम को करने वाले श्रमिक वनटांगिया कहलाए.

वनटांगिया श्रमिक भूमिहीन थे, इसलिए अपने परिवार को साथ लेकर रहने लगे. दूसरी पीढ़ी में उनका अपने मूल गांव से संपर्क कट गया और वे जंगल के ही होकर रह गए. उन्हें खेती के लिए जमीन दी जाती थी, लेकिन यह जमीन वन विभाग की होती थी, उस पर इन श्रमिकों का कोई अधिकार नहीं था.

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देश जब आजाद हुआ तो इनके गांवों को न तो राजस्व ग्राम की मान्यता मिली और न ही इन लोगों को संविधान के तहत नागरिकों के मूलभूत अधिकार दिए गए. मतलब वनटांगियों को वे अधिकार हासिल नहीं हुए जो देश के आम नागरिकों को मिले थे.

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