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बनारस के साड़ी उद्योग पर लॉकडाउन की मार, थम गए करघे, बेरोजगार हुए बुनकर

बनारस के बुनकर बाहुल्य इलाके हैंडलूम-हथकरघों के शोर से गुलजार रहा करते थे लेकिन इस कोरोना काल में पिछले चार महीने से बंद पड़े हैं. बुनकर बेरोजगार हो चुके हैं. नया ऑर्डर नहीं मिलने से साड़ी की बुनाई का काम ठप पड़ा हुआ है.

नहीं मिल रहा ऑर्डर नहीं मिल रहा ऑर्डर
रोशन जायसवाल
  • वाराणसी,
  • 01 अगस्त 2020,
  • अपडेटेड 11:49 PM IST

  • बुनकरों के सामने रोजी का संकट
  • बुनकर बेच रहे टॉफी-बिस्किट
  • कोई सब्जी बेचकर कर रहा गुजारा

कोरोना वायरस की महामारी ने उद्योग-व्यापार की कमर तोड़कर रख दी है. इस दौर में व्यापार का तरीका बदला, तो कई क्षेत्रों में कार्यरत लोग बेरोजगारी की कगार पर हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र आध्यात्मिक नगरी काशी की पहचान रहा बनारसी साड़ी उद्योग भी इन्हीं में से एक है. कोरोना के चलते करघे थम गए हैं तो इस पर आश्रित बुनकरों के सामने रोजगार का संकट उत्पन्न हो गया है.

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मजबूरन बुनकर अपने हुनरमंद रोजगार से पलायित होकर पान, टॉफी-बिस्किट और सब्जी बेच जैसे-तैसे गुजर-बसर कर रहे हैं. बनारस के बुनकर बाहुल्य इलाके हैंडलूम-हथकरघों के शोर से गुलजार रहा करते थे लेकिन इस कोरोना काल में पिछले चार महीने से बंद पड़े हैं. बुनकर बेरोजगार हो चुके हैं. नया ऑर्डर नहीं मिलने से साड़ी की बुनाई का काम ठप पड़ा हुआ है.

गुजर-बसर के लिए पान की दुकान चला रहे बुनकर

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बुनकर बाहुल्य इलाके अमरपुर बटलोहिया में सब्जी बेचकर परिवार चला रहे बुनकर जागीर अहमद ने बताया कि पहले बुनकरी के काम से पांच सौ रुपये प्रतिदिन की कमाई हो जाया करती थी, लेकिन अब मुश्किल से 100 रुपये भी बच पा रहे हैं. उन्होंने कहा कि अबतक किसी भी तरह की कोई सरकारी मदद उन्हें नहीं मिली है.

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सब्जी बेच रहे बुनकर

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सरैया में सब्जी बेच रहे बुनकर अमीरउल्लाह महतो सिर्फ नाम के ही अमीर रह गए हैं. वे बताते हैं कि पहले चार पॉवरलूम उनके यहां चलते थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते मशीनें पूरी तरह बंद हैं. आलम यह है कि खाने के मोहताज हो गए तो उधार लेकर सब्जी की दुकान लगानी पड़ी. उम्र के इस पड़ाव पर न तो उनका राशन कार्ड बना है और न ही बुनकर कार्ड. वे बताते हैं कि उनके बुनकर बिरादरी से भी सरदारों की पहुंच शासन-प्रशासन तक नहीं हो पा रही है. उन्होंने बताया कि ऐसे ही चलता रहा तो भुखमरी की नौबत आ जाएगी.

महिलाएं भी बंटाती थीं हाथ

बुनकरों के घर की वे महिलाओं और बच्चियां, जो पहले घर के पुरुषों के काम में रेशम के धागों को भरने से लेकर साड़ियों में नग लगाने तक का काम करती थीं, अब रद्दी कागज के बैग (स्थानीय बोलचाल की भाषा में ठोंगा या चोंगा) बना रही हैं. रुकइया बानो बताती हैं कि चार महीने से काम नहीं मिल रहा. पूरे दिन में बस 20 से 30 रुपये की कमाई हो पा रही है.

कई बुनकरों ने घर में ही कर ली टॉफी-बिस्किट की दुकान

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कई बुनकर ऐसे भी मिले, जो अपने घर के दरवाजे पर या फिर बाहर के कमरे में टॉफी-बिस्किट की दुकान लगा लिए हैं. सरैया इलाके के टॉफी-बिस्किट और पान बेचने वाले सैयद हसन बताते हैं कि पहले वे अपने पॉवरलूम पर साड़ी बुनते थे. रोज 300 से 400 रुपये की कमाई हो जाती थी, लेकिन अब 50 से 100 रुपये की ही कमाई है. उन्होंने कहा कि किसी के पास खरीदने के लिए पैसा भी रहना चाहिए. सैयद के भाई जुनैद का हाल भी कुछ ऐसा ही है. दूसरे की पॉवरलूम मशीन चलाने वाले जुनैद को मालिक ने आने से मना कर दिया है.

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एक अन्य बुनकर बाहुल्य इलाके कोनिया के बुनकर मोहम्मद यासीन अपनी पॉवरलूम मशीन चलाते थे, लेकिन अब पान की दुकान चला रहे हैं. उन्होंने बताया कि पहले भी बुनकरों के हालात अच्छे नहीं थे और अब कोरोना की वजह से और बदतर हो गए हैं. व्यापारी कहते हैं कि जब काम मिलेगा तब आपको ऑर्डर देंगे. यासीन ने बताया कि उनका बुनकर कार्ड, रेशम कार्ड, आधार कार्ड भी है. लेकिन अभी तक कोई सरकारी मदद नहीं मिली. किसी तरह का लोन भी नहीं मिला है. उन्होंने कहा कि सरकार का सारा प्रचार टीवी और पेपर तक ही दिख रहा है. हमारा पूरा इलाका भुखमरी की कगार पर है.

क्या कहते हैं बुनकर नेता?

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इस पूरे मामले पर बुनकर नेता और इलाके के पार्षद हाजी वकास अंसारी ने कहा कि हिंदू और मुसलमान बुनकरों को मिलाकर दो से तीन लाख की आबादी बुनकरी में है. बुनकरों को एक भी राशन किट लॉकडाउन में नहीं मिली. उन्होंने कहा कि हम जनप्रतिनिधि 1000 रुपये दिलाने के लिए एडीआई का फॉर्म भी भरवाए, लेकिन किसी को एक रुपये नहीं मिले. हाजी वकास ने कहा कि सरकार की उदासीनता के कारण बनारसी साड़ी का हुनर खत्म होता जा रहा है.

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