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देश की स्वतंत्रता से 5 साल पहले आज ही के दिन आजाद हुआ था UP का यह जिला

बलिया में क्रांति का रूप ऐसा था, जिसके सामने गांव के चौकीदार से लेकर जिले के कलेक्टर तक को नतमस्तक होना पड़ा. 10 अगस्त 1942 को शुरू हुई अहिंसक क्रांति से अंग्रेजी राज के सभी गढ़ ढह गए और नौकरशाही भाग खड़ी हुई.

सांकेतिक तस्वीर (पीटीआई) सांकेतिक तस्वीर (पीटीआई)
बिकेश तिवारी
  • नई दिल्ली,
  • 19 अगस्त 2020,
  • अपडेटेड 10:08 AM IST

  • बलिया में फूटी थी भारत की स्वतंत्रता की पहली किरण
  • 10 अगस्त 1942 को शुरू हुई थी अहिंसक क्रांति

बगावत को हमराह बनाने वाले बलिया ने सन 1942 की क्रांति में सफलता की अमिट कहानी लिख डाली. पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले बलिया ने वह कर दिखाया, जिसके सपने देखते हुए भारत मां के जाने कितने लालों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी. जिसके सपने आंखों में सजाए जाने कितने स्वतंत्रता सेनानी हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए. बलिया में ऐसी क्रांति हुई, जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी.

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बलिया में क्रांति का रूप ऐसा था, जिसके सामने गांव के चौकीदार से लेकर जिले के कलक्टर तक को नतमस्तक होना पड़ा. 10 अगस्त 1942 को शुरू हुई अहिंसक क्रांति से अंग्रेजी राज के सभी गढ़ ढह गए और नौकरशाही भाग खड़ी हुई. एक के बाद एक थाने और तहसील पर तिरंगा फहरता चला गया और अंग्रेजी प्रशासन पूरी तरह से समाप्त हो गया. बलिया के लोगों ने अपने अदम्य साहस और अद्भुत शौर्य के दम पर लगभग पौने दो सौ साल से पड़ी गुलामी की बेड़ियां काट दीं और 19 अगस्त 1942 को ही स्वतंत्रता के सुप्रभात का दीदार कर लिया.

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भारत की स्वतंत्रता की पहली किरण बलिया में ही फूटी. हालांकि, यह आजादी अधिक दिनों तक नहीं कायम नहीं रह सकी और 22 अगस्त 1942 की देर रात अंग्रेजी फौज बलिया पहुंची. अंग्रेजी फौज के साथ नेदरसोल को विशेषाधिकार से लैस प्रशासक बनाकर बलिया भेजा गया था. नेदरसोल ने कलक्टर के बंगले पर पहुंचकर जिले का प्रशासन अपने हाथ में लेने की घोषणा कर दी. फिर से जिले की सत्ता पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया, लेकिन बलिया वालों ने अपने तेवर और पराक्रम से यह दिखा दिया कि उसे यूं ही बागी नहीं कहा जाता.

ब्रिटिश संसद में भी गूंज

बलिया की यह आजादी भले ही चंद दिनों की रही, लेकिन इसके निहितार्थ बड़े व्यापक थे. एक छोटे से जिले के, हर ओर अंग्रेजी शासन से घिरे रहकर भी आजाद हो जाना क्रांतिकारियों में नए उत्साह का संचार कर गया, वहीं इस खबर से दुनिया भी चौंक पड़ी. 1942 की क्रांति के समय प्रांत कांग्रेस कमेटी के कार्यकारिणी सदस्य रहे स्वतंत्रता सेनानी दुर्गा प्रसाद गुप्त ने अपनी पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम में बलिया' में लिखा है कि अगस्त महीने के अंत में प्रदेश के गवर्नर सर हैलेट ने लंदन को यह खबर भेजी कि बलिया पर फिर कब्जा कर लिया गया है.

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गवर्नर के इस संदेश में भी इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि बलिया में अंग्रेजी शासन समाप्त हो गया था. यह मुद्दा ब्रिटिश संसद में भी उठा. तब संसद में भारतीय मामलों के मंत्री एमरी ने भी हैलेट की बात दोहराई. ब्रिटिश संसद में बलिया की आजादी गूंजी. दुनिया के अन्य देशों में इसे ब्रिटिश शासन की ओर से अपनी पराजय की स्वीकारोक्ति के रूप में देखा गया.

बलिया की सरजमीं को चूम लेना चाहता हूं

बलिया की क्रांति की तब के लगभग हर बड़े नेता ने सराहना की. अपनी पुस्तक में दुर्गा प्रसाद गुप्त लिखते हैं कि कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था, "मैं बलिया की उस सरजमीं को चूम लेना चाहता हूं, जहां इतने बहादुर और शहीद पैदा हुए." आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी 42 के आंदोलन में बलिया की भूमिका को सराहा था. उन्होंने कहा था, "अगर 1942 में मैं जेल से बाहर होता, तो मैंने भी वही किया होता जो बलिया की जनता ने अपने यहां किया."

सिद्ध हुआ बापू का संकल्प

'करो या मरो' के नारे के साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन का शंखनाद किया था. ब्रिटिश शासन की ओर से सत्ता के तुरंत हस्तांतरण का प्रस्ताव ठुकरा दिए जाने के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बंबई (अब मुंबई) में हुई विशेष बैठक में महात्मा गांधी ने कहा था, "या तो हम हिन्दोस्तान को आजाद कराके रहेंगे या शहीद हो जाएंगे. मैं स्वतंत्रता चाहता हूं. पूर्ण स्वतंत्रता से कम किसी भी चीज से संतुष्ट नहीं हो सकता." जिस पूर्ण स्वतंत्रता के संकल्प के साथ उस संकल्प को बलिया ने सिद्ध कर दिखाया.

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