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UP की सियासत में ब्राह्मण किंगमेकर, BJP के लिए ट्रंप कार्ड साबित होंगे जितिन प्रसाद?

पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के नेता रहे जितिन प्रसाद की बुधवार को बीजेपी में एंट्री को इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है. जितिन प्रसाद को यूपी में कांग्रेस का ब्राह्मण चेहरा माना जाता रहा है, हालांकि उनका अपने समाज के वोटों पर कितना असर है इसे लेकर लोगों की राय बंटी हुई है

बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और जितिन प्रसाद बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और जितिन प्रसाद
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 11 जून 2021,
  • अपडेटेड 8:40 AM IST
  • जितिन प्रसाद ने बीजेपी का थामा दामन
  • यूपी में 10 से 12 फीसदी ब्राह्मण वोटर
  • यूपी की सियासत में ब्राह्मणों की भूमिका

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को विपक्षी दल लगातार ब्राह्मण विरोधी साबित करने में जुटे हैं. बीजेपी भी स्थिति को भांपकर चुनाव से पूर्व अपने सामाजिक समीकरण दुरुस्त करने में जुट गई है. पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद की बुधवार को बीजेपी में एंट्री को इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है. जितिन प्रसाद को यूपी में कांग्रेस का ब्राह्मण चेहरा माना जाता है, हालांकि उनका अपने समाज के वोटों पर कितना असर है इसे लेकर लोगों की राय बंटी हुई है.

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कांग्रेस छोड़ भगवा झंडा थामते ही जितिन प्रसाद बीजेपी को असरदार और मजबूत जनाधार वाले नेता नजर आ रहे हैं. जितिन प्रसाद के बीजेपी की सदस्यता ग्रहण करने का मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह ने स्वागत किया और कहा, इससे प्रदेश में बीजेपी को मजबूती मिलेगी. वहीं, कांग्रेस की नजर में अब जितिन 'प्रभावहीन' हैं. कांग्रेस का तर्क है कि इतने प्रभावशाली होते तो वो दो लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव नहीं हारते?

यूपी के शाहजहांपुर और धौरहरा लोकसभा सीट से दो बार सांसद रहे जितिन प्रसाद कांग्रेस के दिग्गज नेता जितेंद्र प्रसाद के बेटे हैं. 2014 और 2019 का लोकसभा और 2017 का विधानसभा चुनाव वो भले ही हार गए हों, लेकिन यूपी के तराई क्षेत्र के शाहजहांपुर, बरेली, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, हरदोई आदि में कांग्रेस का चेहरा थे. माना जा रहा है कि बीजेपी जितिन प्रसाद को रीता बहुगुणा जोशी और ब्रजेश पाठक की तरह अहमियत देकर ब्राह्मण समुदाय को साधेगी.

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जितिन की एंट्री ब्राह्मणों को साधने की कवायद 

बीजेपी को लेकर ब्राह्मण समुदाय की एक ही शिकायत है कि अटल बिहारी वाजपेयी के बाद बीजेपी में उनके कद का कोई भी ब्राह्मण नेता नहीं है. मौजूदा योगी सरकार में जो भी ब्राह्मण नेता हैं, वो बहुत असरदार और अहमियत वाले नहीं हैं. इसके अलावा विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद जिस तरह से तमाम ब्राह्मण संगठनों ने पिछले तीन साल में ब्राह्मणों की हत्याओं का डाटा सोशल मीडिया पर साझा किए उससे योगी सरकार घिरती नजर आई. ऐसे में बीजेपी चुनावी रण में उतरने से पहले ब्राह्मण समुदाय को साधने के कवायद में है. 

उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि जितिन प्रसाद को बीजेपी सिर्फ ब्राह्मण समुदाय को साधने के लिए पार्टी में लेकर आई है. यूपी में बीजेपी कुछ दिनों से ब्राह्मण वोटों को लेकर संशय में है, जिसके चलते पार्टी तमाम जतन कर रही है. बीजेपी भी यह बात जानती है कि जितिन ड्राइंग रूम की राजनीति करते रहे हैं और उनकी बहुत ज्यादा जनउपयोगिता नहीं है लेकिन उनके नाम की उपयोगिता है, क्योंकि वे जितेंद्र प्रसाद के बेटे हैं. उन्होंने ब्राह्मण राष्ट्रीय चेतना नाम से संगठन बना रखा है. ऐसे में बीजेपी उनके नाम को कैश करना चाहेगी. 

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बीजेपी कैसे जितिन को ब्राह्मण स्थापित करेगी

वहीं,  वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा कहते हैं कि जितिन प्रसाद को बीजेपी किस राजनीतिक मकसद के लिए लेकर आई है, वो समझ से बाहर है. बीजेपी अगर उन्हें ब्राह्मण चेहरे के तौर पर लेकर पार्टी में आई है तो उन्हें ब्राह्मण नेता के तौर पर स्थापित करना बीजेपी के लिए मुश्किल होगा. इसकी वजह यह है कि यूपी और बिहार की राजनीति में ब्राह्मण तिवारी, शुक्ला, पांडेय, दुबे, द्विवेदी, पाठक, शर्मा, त्रिपाठी जैसे टाइटल वाले नाम रहे हैं. जितिन के नाम के साथ ऐसा कोई टाइटल नहीं है बल्कि वो प्रसाद लिखते हैं. बेहतर होता बीजेपी अपने ब्राह्मण नेताओं को आगे बढ़ाने की दिशा में कदम उठाती. 

योगेश मिश्रा कहते हैं कि जितिन प्रसाद के पिता यूपी में ब्राह्मण नेता के तौर पर तब स्थापित हुए थे, जब कांग्रेस ब्राह्मण राजनीति किया करती थी और इस तरह से ओबीसी राजनीति नहीं शुरू हुई थी. उस समय कई राज्यों में कांग्रेस के ब्राह्मण मुख्यमंत्री हुआ करते थे. इसके अलावा जितिन प्रसाद का सियासी आधार अब अपने इलाके में भी नहीं रह गया है. वो लगातार तीन चुनाव हार चुके हैं और अपने इलाके से एक विधायक जिताने की हैसियत में नहीं हैं. राजनीति में हमेशा से एसेट लाया जाता है, न की लायबिलिटी. इसके अलावा यूपी में बीजेपी की लड़ाई कांग्रेस से तो है नहीं, फिर कांग्रेस का विकेट गिराने से क्या फायदा. 

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योगी राज में ब्राह्मणों का हनक कम हुई

बता दें कि अटल विहारी वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी उत्तर प्रदेश से सांसद हुआ करते थे तो कलराज मिश्रा जैसे ब्राह्मण नेता सूबे की कमान संभाले हुए थे. इसके चलते बीजेपी संगठन और राज्य से केंद्र तक की सरकारों में ब्राह्मणों का सियासी वर्चस्व कायम था, लेकिन फिर ये धीरे-धीरे कम हुआ. इसके बावजूद 2017 के चुनाव में ब्राह्मणों ने बीजेपी का जमकर समर्थन किया, क्योंकि वह सपा-बसपा से तंग आ गए थे और उन्हें बीजेपी की सत्ता में वापसी की उम्मीद दिखी थी. हालांकि, मौजूदा यूपी की बीजेपी सरकार में उन्हें वैसी तवज्जो नहीं मिली जैसी वो उम्मीद लगाए बैठे थे. 

जितिन प्रसाद

उत्तर प्रदेश में 10 से 12 फीसदी ब्राह्मण हैं. 2017 के चुनाव में बीजेपी के कुल 312 विधायकों में 58 ब्राह्मण समुदाय के चुनकर आए थे. इसके बावजूद राज्य सरकार में ब्राह्मणों की हनक पहले की तरह नहीं दिखी. सूबे के 56 मंत्रियों के मंत्रिमंडल में 9 ब्राह्मण समुदाय के हैं. दिनेश शर्मा और श्रीकांत शर्मा को छोड़ दें तो किसी को अहम विभाग नहीं दिए गए. 

ब्राह्मणों की उपेक्षा के आरोपों के बीच ब्योरोक्रेसी में ब्राह्मणों को तवज्जो देकर बैलेंस करने की कोशिश बीजेपी ने जरूर की है. मुख्य सचिव आरके तिवारी, अपर मुख्य सचिव (गृह) अवनीश अवस्थी और डीजीपी भी एचसी अवस्थी ब्राह्मण समुदाय से हैं. इसके अलावा ब्यूरोक्रेसी में दूसरे अहम पद दूसरी सवर्ण जातियों में बंटे हैं, लेकिन सत्ता में भागीदारी न होने से ब्राह्मणों में असंतोष नजर आ रहा है. यही बीजेपी की चिंता है. 

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जितिन को ब्राह्मण नहीं करेगा स्वीकार- ब्राह्मण महासभा

अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा के अध्यक्ष राजेंद्रनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि बीजेपी की केंद्र और प्रदेश सरकार में ब्राह्मणों को सिर्फ पीड़ा ही झेलनी पड़ी है. विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही उस जितिन प्रसाद को ब्राह्मण चेहरा बनाकर ब्राह्मणों को लुभाने का पासा फेंका है, जिसने आज तक ब्राह्मणों के हक में न तो कोई लड़ाई लड़ी और न ही समाज के पक्ष में एक बयान तक दिया. तीन चुनाव बुरी तरह हारने वाले जितिन प्रसाद पर बीजेपी दांव पर लगाकर ब्राह्मण समुदाय को ठगना चाहती है. मुरली मनोहर जोशी ,लक्ष्मीकांत वाजपेयी, भैरव मिश्र, विजय मिश्र जैसे ब्राह्मणों को अपमानित करने वाली बीजेपी की इस लालीपॉप में समाज नहीं आएगा. 

जितिन का चार पीढ़ियों से ब्राह्मणों में नाता नहीं

यूपी में ब्राह्मण सियासत की तरफदारी करने वाले विश्वनाथ चतुर्वेदी कहते हैं कि जितिन प्रसाद समाज ब्राह्मण मानता ही नहीं है. उनकी चार पुश्तों में कोई रिश्तेदारी ब्राह्मण परिवार में नहीं हुई है. ऐसे में बीजेपी भले ही उन्हें ब्राह्मण नेता के तौर पर पेश करे, लेकिन यूपी का ब्राह्मण चार साल में मिले जख्मों को नहीं भूला है. जितिन प्रसाद किस मुंह से ब्राह्मण समाज के बीच बीजेपी के लिए वोट मांगने का काम करेंगे. यही जितिन प्रसाद कल तक कहा करते थे कि इस बीजेपी सरकार में जितना ब्राह्मणों का दमन हुआ है शायद ही कभी इतना हुआ हो. ये बात क्या वो अब भूल गए हैं. 

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चतुर्वेदी कहते हैं कि जितिन प्रसाद एक राजपरिवार में जन्म हैं और उनकी जिंदगी भी ऐसे ही गुजरी है. राजा नेचर से छत्रिय ही होता है न की ब्राह्मण. देश के जितने भी गैर-छत्रिय राजा हुए हैं, उनके सियासी इतिहास को देख लें. सिंधिया परिवार हो या फिर जितिन प्रसाद. ये न तो ब्राह्मण की तरह रहते हैं और न ही ब्राह्मण जैसा कार्य करते हैं. इसीलिए ब्राह्मण समाज कैसे उन्हें ब्राह्मण के तौर पर स्वीकार कर सकता है? 

ब्राह्मणों को जिसने साधा उसे मिली सत्ता
उत्तर प्रदेश की सियासत में ब्राह्मणों की ताकत सिर्फ 10 से 12 फीसदी वोट तक नहीं सिमटी हुई है. ब्राह्मणों का प्रभाव समाज में इससे कहीं अधिक है. ब्राह्मण समाज राजनीतिक हवा बनाने में सक्षम है. 1990 से पहले तक सत्ता की कमान ज्यादातर ब्राह्मण समुदाय के हाथों रही है. कांग्रेस के राज में ज्यादातर मुख्यमंत्री ब्राह्मण समुदाय के बने, लेकिन बीजेपी के उदय के साथ ही ब्राह्मण समुदाय का कांग्रेस से मोहभंग हुआ. यूपी में जिस भी पार्टी ने पिछले तीन दशक में ब्राह्मण कार्ड खेला, उसे सियासी तौर पर बड़ा फायदा हुआ है. 

1993 में बसपा से महज एक ब्राह्मण विधायक था, लेकिन चुनाव दर चुनाव यह आंकड़ा बढ़ता गया. 2007 के यूपी चुनाव में सीएसडीएस की रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 17 फीसदी ब्राह्मणों ने ही मायावती को वोट दिया था और इसमें से भी अधिकतर वोट बसपा को वहां मिले थे जहां उसने ब्राह्मण उम्मीदवार खड़ा किए थे. इस तरह से बसपा से साल 2007 में 41 ब्राह्मण विधायक जीतकर आए. 

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बीजेपी से 2017 के चुनाव में सबसे ज्यादा 58  ब्राह्मण विधायक बने, इससे पहले बीजेपी से जीते ब्राह्मणों की संख्या 20 से ज्यादा नहीं बढ़ी थी. 2002 से लेकर 2012 तक तो बीजेपी से जीतने वाले ब्राह्मणों की संख्या दहाई का अंक भी नहीं छू पाई थी. वही, सपा से सबसे ज्यादा  21 ब्राह्मण 2012 के चुनाव में जीतकर आए थे जबकि इससे पहले यह आंकड़ा 11 तक ही सिमटा रहा है. वहीं, कांग्रेस 90 के बाद से दहाई का अंक कभी क्रास नहीं कर सकी.

 

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