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Lakhimpur: जिस लखीमपुर से खड़ा हुआ बवंडर, उस तराई इलाके को क्यों कहा जाता है 'मिनी पंजाब'?

रोजी-रोटी और छत की तलाश में आए सिख समुदाय के लोगों ने सात दशक पहले तराई इलाके की ज्यादातर खाली पड़ी जमीन की नब्ज पहचानकर कौड़ियों के मोल खरीदी. हाड़-तोड़ मेहनत के बाद अनुपयोगी पड़ी जमीनों को इस कदर उपजाऊ बनाया कि वह 'सोना' उगलने लगी.

लखीमपुर खीरी में बवाल में आठ लोगों की मौत लखीमपुर खीरी में बवाल में आठ लोगों की मौत
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली ,
  • 04 अक्टूबर 2021,
  • अपडेटेड 3:49 PM IST
  • लखीमपुर बवाल में आठ लोगों की मौत हुई
  • पाकिस्तान से आकर यहां बसा सिख समाज
  • तराई इलाके की सियासत में सिखों का असर

उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में रविवार को चार किसानों सहित आठ लोगों की मौत से देशभर में किसान आंदोलित हो गए. विपक्षी दल ने बीजेपी सरकार को लेकर आक्रमक रुख अपनाए हुए है. वहीं, डैमेज कंट्रोल में जुटी सूबे की योगी सरकार ने लखीमपुर हिंसा मामले में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा समेत 14 लोगों पर हत्या, आपराधिक साजिश और बलवा कराने का केस दर्ज कर लिया है. 

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योगी सरकार ने लखीमपुर खीरी के मृतकों के परिवार को 45-45 लाख रुपए का मुआवजा देने का ऐलान किया है. साथ ही मरने वालों के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का वादा किया है. घटना की हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज द्वारा न्यायिक जांच और 8 दिन में आरोपियों को अरेस्ट करने का वादा भी किया गया है. इसके अलावा हिंसा में घायल हुए लोगों को भी 10 लाख रुपए का मुआवजा देने का ऐलान किया गया है. 

पाकिस्तान से आकर तराई बेल्ट में बसे सिख

यूपी के जिस लखीमपुर खीरी क्षेत्र में रविवार (3 अक्टूबर) को बवाल हुआ है, वो तराई के क्षेत्र में आता है. यहां बड़ी आबादी सिख समुदाय की रहती है, जिसके चलते इसे मिनी पंजाब कहा जाता है. देश की आजादी के बाद भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के दौरान पाकिस्तान के सिंध और पश्चिम पंजाब से बड़ी संख्या में सिख समाज के लोगों का पलायन हुआ तो यूपी के विरल आबादी वाले तराई इलाके की ओर उन्होंने रुख किया और यहां आकर बसे. 

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छत की तलाश में आए सिख बन सबसे ताकतवर

रोजी-रोटी और छत की तलाश में आए सिख समुदाय के लोगों ने सात दशक पहले तराई इलाके की ज्यादातर खाली पड़ी जमीन की नब्ज पहचानकर कौड़ियों के मोल खरीदी. हाड़-तोड़ मेहनत के बाद अनुपयोगी पड़ी जमीनों को इस कदर उपजाऊ बनाया कि वह 'सोना' उगलने लगी. तराई में सिख समुदाय खासी आबादी होने के चलते इसे मिनी पंजाब कहा जाने लगा. 

यूपी के तराई बेल्ट के पीलीभीत, बरेली, शाहजहांपुर, लखीमपुर खीरी, रामपुर, सीतापुर, बहराइच, गोंडा में सिख वोटर काफी हैं, जिसके चलते इन इलाकों में बड़ी संख्या में गुरुद्वारे भी नजर आएंगे. ऐसे ही यूपी से अलग होकर बनने वाले उत्तराखंड के तराई इलाकों में जसपुर, काशीपुर, रुद्रपुर, गदरपुर, बाजपुर, सितारगंज और नानकमत्ता में बड़ी संख्या में सिख समुदाय के लोग रहते हैं. 

सिख समुदाय की मेहनत और मशक्कत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तराई इलाके में झाले से लेकर कृषि फार्म तक शब्द सृजित हुए. मंडी से लेकर चीनी मिल और सोसाइटी तक उनकी तूती बोलती है. तराई के इलाके की गन्ना खेती और राइस मिलों पर उनका कब्जा है. 

आतंकवाद की मार तराई के सिखों ने भी झेली

अस्सी के दशक में जब पंजाब में सिख समुदाय के बीच आतंकवाद पनपा तो यूपी और उत्तराखंड के तराई इलाके में रहने वाले सिखों ने खुद को इससे अलग रखा. इसके बावजूद उन्हें इसकी मार झेलनी पड़ी. खालिस्तानी मूवमेंट के चलते हालत यह हुई कि एक ओर उन्हें आतंकवाद से जुड़े लोग सहयोग के लिए सताते रहे तो दूसरी ओर प्रशासन व बाकी समाज शंका की निगाह से देखता रहा.

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पंजाब में आंतकवाद के चलते उन्हें राजनीतिक संरक्षण की जरूरत महसूस हुई, लेकिन आर्थिक रूप से मजबूत होने के चलते सिख समुदाय को 'दुधारू गाय' के रूप में इस्तेमाल किया. यहीं से सिख समुदाय में राजनीतिक चेतना भी जाग्रत होनी शुरू हुई. यूपी के पीलीभीत, शाहजहांपुर, बरेली व लखीमपुर की कई सीटों पर सिख मतदाता बड़ी तादाद में हैं. पीलीभीत, बदायूं, लखीमपुर खीरी से सिख समुदाय के विधायक चुने जाते रहे हैं. 

अस्सी के दशक में सिखों का बढ़ा सियासी दखल

1980 में पीलीभीत सीट से चरनजीत सिंह व लखीमपुर खीरी की पलिया सीट से सतीश आजमानी जरूर कांग्रेस से विधायक बने, लेकिन इस जीत में सिख मतों के धुव्रीकरण का कम बल्कि उनके अपने और दल के रसूख का विशेष योगदान रहा. यह वही दौर रहा जब नेहरू गांधी परिवार की छोटी बहू संजय गांधी की पत्नी मेनका संजय गांधी ने सियासत में कदम रखा. मूल रूप से सिख परिवार की बेटी को तराई की सियासत भाने लगी तो 1989 में निर्दलीय सांसद बना दिया, तब से उन्होंने इसे अपनी कर्म भूमि बना लिया. मौजूदा समय में उनके बेटे वरुण गांधी सांसद हैं. 

1993 में बीएम सिंह पूरनपुर सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे और मौजूदा दौर में किसान नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई. 1996 में सिख समाज की राजराय सिंह पीलीभीत शहर सीट से भाजपा प्रत्याशी बनकर चुनाव जीतीं और मंत्री भी बनीं. इसी चुनाव में सिखों के उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले हरजिंदर सिंह कहलो ने भी बसपा प्रत्याशी के रूप में पूरनपुर से किस्मत आजमाई, लेकिन हार गए.

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बदायूं में 1962 के चुनाव में पीएल भदवार निर्दलीय विधायक चुने गए थे. 1974 में वह कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए. 1985 में उनकी पुत्री प्रमिला भदवार भी कांग्रेस से विधायक चुनी गईं. 1993 में यहां सपा के टिकट पर जोगेंद्र सिंह अनेजा विधायक चुने गए. 1996 में भी पार्टी ने उन्हें टिकट दिया था, लेकिन कामयाब नहीं हो सके. 2017 में रामपुर की बिलासपुर सीट से जीत दर्ज करने वाले बलदेव सिंह औलख सिख समाज से आते हैं और योगी कैबिनेट का हिस्सा हैं. 

यूपी में कहां कितने सिख-पंजाबी

सूबे की चुनावी राजनीति में सिख समुदाय के लोगों का कभी वोट बैंक भी नहीं रहा, लेकिन वक्त के साथ कभी कांग्रेस तो कभी सपा के साथ खड़े नजर आए. मोदी के केंद्रीय राजनीति में कदम रखने के बाद 2014 में बीजेपी के साथ मजबूती से जुड़ गए और तराई के बेल्ट में कमल खिलाने में अहम भूमिका रही है. यूपी की करीब दो दर्जन विधानसभा सीटों पर खासा असर है तो उत्तराखंड की आधा दर्जन सीटों को प्रभावित करते हैं. 

यूपी क पीलीभीत में 30000, बरखेड़ा में 28000, पूरनपुर में 40000, बीसलपुर में 15000 पुवायां में 30000, शाहजहांपुर में 15000, बहेड़ी में 35000, बरेली कैंट में 20000, रामपुर 16000, बिलासपुर में 20000, लखीमपुर खीरी में 23000 सिख समाज के वोटर हैं. इसके अलावा बाकी सीटों पर 5 हजार से 15 हजार के बीच है. 

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उत्तराखंड की सियासत में सिख वोटर

उत्तराखंड के तराई इलाकों में जसपुर, काशीपुर, रुद्रपुर, गदरपुर, बाजपुर, सितारगंज और नानकमत्ता सीट पर बड़ी आबादी में सिख समुदाय है. पेशे से खेती करने वाले इस समुदाय की यहां सत्ता के खेल को बनाने और बिगाड़ने में अहम भूमिका रहती है. इसके अलावा देहरादून और हरिद्वार के इलाके में भी सिख समुदाय के लोग बसे हुए हैं. 

कृषि कानूनों को लेकर बीते कुछ समय से जारी किसान आंदोलन की आंच को कम करने के लिए ही भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने खटीमा से आने वाले विधायक पुष्कर सिंह धामी को उत्तराखंड की कमान सौंपी थी. सिख बहुल आबादी वाली सीट से जीतने वाले नेता को सीएम बनाकर इस आबादी को एक संदेश देने की कोशिश की गई थी. धामी को सीएम बनाने को राज्य और केंद्रीय नेतृत्व ने ऐसे प्रोजेक्ट किया कि इस पूरे इलाके के महत्व को समझते हैं साथ ही आंदोलनरत किसानों के गुस्से को कम करने की कोशिश की गई थी. ऐसे में लखीमपुर की घटना कहीं तराई में बीजेपी की उपजाऊ जमीन को ऊसर न बना दे? 


 

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