
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती अपना 63वां जन्मदिन मना रही हैं. कांशीराम ने दलित समाज के हक और हुकूक के लिए पहले डीएस-4, फिर बामसेफ और 1984 में दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज के वैचारिक नेताओं को जोड़कर बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. मौजूदा दौर में बसपा की कमान मायावती के हाथों में है, लेकिन आज पार्टी में न कांशीराम के दोस्त बचे हैं और न ही बामसेफ के साथी. ये सभी नेता एक-एक कर बसपा छोड़ गए या फिर मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. बसपा ऐसी जगह खड़ी हो गई जहां अपना वजूद बचाने के लिए उन्हें अपने दुश्मन से हाथ मिलाना पड़ा है.
1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. इसके बाद यूपी से लेकर देश के अलग-अलग राज्यों में पार्टी का जनाधार तेजी से बढ़ने लगा. इस दिशा में मायावती बसपा के तत्कालीन अध्यक्ष कांशीराम के संपर्क में आईं तो बसपा को नई बुलंदी मिली. मायावती की पार्टी में बढ़ती ताकत के चलते कई नेताओं ने कांशीराम का साथ छोड़ दिया. इसके अलावा मायावती की नजर जिस नेता पर टेढ़ी हुई, उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
बसपा के गठन करने वाले नेताओं में राज बहादुर का नाम कांशीराम के बाद लिया जाता था. वे कोरी समाज के दिग्गज नेता थे. शुरुआती दौर में उत्तर प्रदेश में पार्टी की कमान राज बहादुर के हाथों में थी, लेकिन पार्टी में मायावती के बढ़ते कद के चलते उन्हें पार्टी से बाहर होना पड़ा.
ओबीसी चेहरा को बाहर का रास्ता दिखाया
कुर्मी समाज के कद्दावर नेता बरखूलाल वर्मा का नाम बसपा के बड़े नेताओं में आता था. वर्मा कांशीराम के साथ मिलकर बसपा की नींव रखने वाले नेताओं में शामिल थे. पार्टी के ओबीसी चेहरा थे और लंबे समय तक यूपी विधानसभा में अध्यक्ष भी रहे, लेकिन मायावती के खिलाफ आवाज उठाना मंहगा पड़ा और उन्हें भी पार्टी से अलग होने के लिए मजबूर होना पड़ा.
मुस्लिम चेहरा जब पार्टी से अलग हुआ
कांशीराम के दौर में बसपा के मुस्लिम चेहरे के तौर पर डॉक्टर मसूद अहमद का नाम आता था. 1993 में सपा-बसपा गठबंधन की सरकार यूपी में बनी तो मसूद को मंत्री बनाया गया, लेकिन 1994 में मायावती के साथ बिगड़े रिश्ते के चलते मंत्री पद भी छोड़ना पड़ा और पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया गया. इसके बाद पार्टी में मुस्लिम चेहरे के तौर पर नसीमुद्दीन सिद्दकी को आगे बढ़ाया गया. उन्हें मायावती का दाहिना हाथ कहा जाता था, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद मायावती ने उन्हें भी पार्टी से बाहर कर दिया है. इन दिनों सिद्दीकी कांग्रेस में है.
आर. के. चौधरी बसपा में दिग्गज नेता माने जाते और पार्टी में दलित चेहरे के तौर पर अपनी पहचान बनाई थी. चौधरी बसपा के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. लेकिन उन्हें भी पार्टी से बाहर होना पड़ा. इसके बाद उनकी पार्टी में वापसी हुई लेकिन 2017 के चुनाव से पहले फिर उन्होंने पार्टी से बाहर हो गए. बसपा में कांशीराम के दौर से जुड़े रहे इंद्रजीत सरोज भी विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी छोड़ दिया है और इन दिनों सपा में हैं.
बसपा में कांशीराम के करीबी रहे सुधीर गोयल को पार्टी से क्यों बाहर होना पड़ा ये खुद उन्हें भी पता नहीं चल सका. स्वामी प्रसाद मौर्य ने जनता दल से अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था, लेकिन 1995 में जब मायावती सूबे की मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने बसपा ज्वाइन कर लिया. इसके बाद वो बसपा प्रमुख के काफी करीबी रहे, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने बीजेपी ज्वाइन कर लिया. स्वामी से पहले मौर्य समाज के बाबू सिंह कुशवाहा को मायावती ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया था.
सूबे में 3 फीसदी पाल समाज के नेता को भी मायावती ने नहीं बख्शा, उन्हें भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इनमें रमाशंकर पाल, एसपी सिंह बघेल दयाराम पाल समेत कई नेता शामिल रहे. कांशीराम के साथी रहे राज बहादुर, राम समुझ, हीरा ठाकुर और जुगल किशोर जैसे नेता भी मायावती के प्रकोप से नहीं बच पाए और उन्हें पार्टी से बाहर होना पड़ा.
बसपा का राजपूत चेहरा माने जाने वाले राजवीर सिंह ने खुद ही पार्टी को अलविदा कह दिया है. 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले सीतापुर जिले के पूर्व मंत्री अब्दुल मन्नान, उनके भाई अब्दुल हन्नान, राज्यसभा सदस्य रहे नरेंद्र कश्यप हों या फिर एमएलए रामपाल यादव, मायावती के पसंदीदा लोगों की सूची से बाहर होते ही सबके सब पार्टी से बाहर कर दिए गए.