
मुलायम सिंह यादव भले अखाड़े और राजनीति के माहिर खिलाड़ी हों पर चुनाव आयोग के अखाड़े में तो रामगोपाल यादव का दांव ही सही लगा. तभी तो मुलायम सिंह से छिन गई साइकिल और सपा का नाम.
मुलायम चाह कर भी इस चुनाव में तो नई पार्टी नहीं बना सकते. आयोग के आला अधिकारियों के मुताबिक नई पार्टी रजिस्टर्ड कराने में कम से कम 90 दिन तो लग ही जाते हैं. पार्टी के नाम पर किसी की भी आपत्ति के लिए अखबार में विज्ञापन देकर महीने भर की मोहलत ली जाती है. अनापत्ति होने पर ही रजिस्ट्रेशन की कार्यवाही शुरू होती है, यानी मुलायम बेटे पर मुलायम हो जाएं अब यही उपाय रह गया है. मौके की नजाकत को देखते हुए मुलायम शायद यही करें भी.
यानी सपा के नाम-ओ-निशान की कुश्ती में प्रोफेसर रामगोपाल यादव दस्तावेज़ी कार्यवाही में आगे निकल गए. एकसाथ एकमुश्त सभी जरूरी दस्तावेज और हलफनामे पेश करने की कवायद ने रामगोपाल के सिर जीत का सेहरा बंधवाया.
इतनी जल्द आयोग के फैसले पर ख़ुशी, संतोष और हैरानी जताते हुए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त डॉ एस वाई कुरैशी ने कहा कि बहुमत के तमाम सबूत एक साथ सामने आने से आयोग को भी फैसला लेने में आसानी हुई और फौरन मसला हल हो गया.
अगर मुलायम सिंह खेमे की तरह अखिलेश-रामगोपाल खेमा भी गोलमोल दलीलें और सबूत पेश करता तो आयोग का असमंजस बढ़ सकता था. ऐसे में न केवल वक़्त ज़्यादा लगता बल्कि तारीख़ पे तारीख भी लगती.
वैसे भी पार्टी में बहुमत का अनुपात अगर एकतरफा हो तो भी फैसला लेना आसान होता है. अखिलेश के सबूत भी एकतरफा बहुमत की तस्दीक करते हैं. डॉ कुरैशी ने भी तस्दीक की कि समाजवादी पार्टी के पुराने दिनों से आयोग में आने जाने का काम और कागज़ी कार्यवाही करने की ज़िम्मेदारी रामगोपाल ही निभाते रहे हैं.
उन्हें हलफनामे, दलील और सबूतों के बारे में गहरी समझ है. इस बारे में दिलचस्पी की वजह से ही वह शुरू से ही आयोग के अधिकारियों से पूछताछ करते रहते थे. वह सारा तजुर्बा इस महाभारत में काम आया. इसलिए कहते हैं कि इल्म कभी जाया नहीं आता. आज नहीं तो कल.. मिलता है तजुर्बे का फल...