
उत्तर प्रदेश में कोरोना संक्रमण के बीच हुए पंचायत चुनाव को लेकर कई सवाल उठे. लेकिन सबसे ज्यादा सवाल चुनाव में शिक्षकों की हुई मौत पर उठाए गए. दरअसल, उत्तर प्रदेश में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान पंचायत चुनाव कराए गए थे. जिसमें राज्य के शिक्षकों को ड्यूटी पर तैनात किया गया. शिक्षक संघ का दावा है कि चुनाव ड्यूटी के दौरान उसके 1600 से अधिक कर्मचारियों की मौत हो गई.
इस मामले पर बहुत शोर मचने के बाद सरकार ने पंचायत चुनाव में कोरोना के कारण जान गंवाने वाले सरकारी कर्मचारियों को मुआवजा देने का ऐलान किया. लेकिन कागजी कार्रवाई में फंसने के कारण एक शिक्षक का परिवार अभी भी मदद के इंतज़ार में है. इन परिवारों को अपने बेटों की मौत के 5 महीने बाद भी अब तक कोई आर्थिक मदद नहीं मिली है.
37 साल के संतोष कुमार मलीहाबाद में प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक के रूप में तैनात थे. पंचायत चुनाव के दौरान उनकी ड्यूटी पीठासीन अधिकारी के तौर पर लगी पत्नी और परिवार के मना करने के बावजूद संतोष पहले दौर के मतदान में ड्यूटी करने गए लेकिन उसके बाद जब लौटे तो उन्हें कोरोना संक्रमण हो गया था. संक्रमण के 7 दिन बाद 26 अप्रैल को संतोष की ऑक्सीजन की कमी से मृत्यु हो गई.
संतोष की 28 वर्षीय पत्नी बताती हैं कि उस लहर में परिवार ने उनकी जान बचाने के लिए बहुत कोशिश की लेकिन किसी भी अस्पताल में उन्हें भर्ती नहीं किया गया. बाद में लोक बंधु अस्पताल में जगह मिली लेकिन वहां भी ऑक्सीजन की कमी थी. जिसके चलते उन्होंने दम तोड़ दिया. सरकार से कोई मदद नहीं मिली है और अब उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है.
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संतोष के 74 साल के पिता रघुराम सरकारी दफ्तर के चक्कर लगा चुके हैं लेकिन अभी तक बेटे की मौत के नाम पर ना तो ग्रेच्युटी ना ही पेंशन और ना ही उसकी पत्नी की नौकरी की कोई मदद मिली है. फिलहाल उनकी छोटी पेंशन से पूरे परिवार का खर्चा चलता है लेकिन वह कहते हैं कि उनके बाद परिवार का क्या हाल होगा. यह सोच के उन्हें रोना आता है. मां सुखी देवी भी अपने जवान बेटे को याद कर रोने लगती हैं. वह कहती हैं कि इतना पढ़ाने लिखाने के बाद आज उनके बेटे के बच्चे अनाथ हो गए.
ऐसी ही कहानी 29 साल की ज्योति की है जिनके पति राज किशोर की मौत भी कोरोना में पंचायत चुनाव के दौरान ड्यूटी से लौटने के बाद हुई. ज्योति रोते हुए बताती हैं कि उनके सर पर मकान और कार का कुल 12 लाख का लोन है लेकिन उनकी आमदनी खत्म हो चुकी है. 12वीं पास ज्योति के पास कोई काम नहीं और दो बच्चे को पालने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर है. निराश ज्योति सवाल करती हैं कि जब सरकार को पता था कि कोरोना का संक्रमण फैला है तो पंचायत चुनाव क्यों नहीं रद्द कर दिए गए? चुनाव ने उनके पति और उनके मासूम बच्चे के सिर से बाप का साया छीन लिया.
ऐसी ही कहानी यूपी के हजारों शिक्षकों की हैं जो कोरोना संक्रमण के बाद काम पर तो लौटे लेकिन अब शारीरिक विषमताओं से जूझ रहे हैं. राज्य सरकार की बेसिक शिक्षा विभाग के सरकारी आंकड़ों में कोरोना से हुई मृत्यु में ऐसे परिवारों की गिनती ही नहीं है. जिसके चलते ना तो इन्हें कोई मुआवजा मिला और ना ही कोई नौकरी या आर्थिक मदद. ऐसे में सवाल यही है कि क्या शिक्षक होना इस देश में गुनाह है जिसकी कीमत मरने के बाद उनका परिवार चुका रहा है.