
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में बीजेपी गठबंधन ने 403 में से 273 सीटें जीतकर जहां इतिहास रच दिया है, वहीं इन चुनावों में बहुजन समाज पार्टी की दुर्गति ने सियासी जानकारों को हैरान कर दिया है. 2012 तक 403 विधानसभा, 80 लोकसभा सीटें और 31 राज्यसभा सीटों वाले इस राज्य पर राज करने वाली बीएसपी 2022 के चुनाव में महज एक सीट जीत पाई. ये आंकड़े इसलिए भी हैरान करते हैं कि वोट हासिल करने के मामले में यही बहुजन समाज पार्टी पिछले चुनावों में बीजेपी के बाद दूसरे नंबर पर थी.
वर्ष 2017 में भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड लहर के सामने समूचा विपक्ष धराशायी हो गया था. 2012 के यूपी चुनाव में 224 सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी महज 47 सीटों पर सिमट गई. सूबे की चार बार की मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी को 19 सीटों पर जीत मिली थी. 2022 के चुनाव नतीजों में बीजेपी गठबंधन पिछली बार के 312 सीटों के मुकाबले इस बार 273 सीटों पर विजयी रहा जबकि सपा को 125 सीटें मिलीं. बसपा के पास सिर्फ एक और कांग्रेस के पास इस विधानसभा में दो सीटें हैं.
अगर आंकड़ों की बात करें तो 2017 में भाजपा को राज्य में हुए कुल मतदान का 39.67% वोट प्राप्त हुआ था. इसके बाद इस सूची में मायावती का नाम था, जिनके दल को 22.23% वोट हासिल हुए थे. इस बार सपा का वोट शेयर बढ़कर 32.06% पहुंच गया, जबकि कांग्रेस और बसपा एकदम धराशायी हो गए.
कब-कब जुड़ा रहा बसपा का कोर वोटर
ट्रेंड की बात करें तो 2007 से लेकर 2017 तक बसपा के वोट प्रतिशत में कोई खास कमी देखने को नहीं मिली. वर्ष 2017 के चुनाव में बसपा को 22.23% वोट प्राप्त हुए, जोकि वर्ष 2012 के वोट प्रतिशत (25.91) से 3.68% कम थे. इसके अलावा वर्ष 1996 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 19.6%, वर्ष 2002 के चुनाव में 23.06%, वर्ष 2007 के चुनाव में 30.43% वोट हासिल हुए.
वर्ष 1996 में बसपा ने 296 सीटों पर चुनाव लड़ा और 67 सीटों पर जीत हासिल की. इसके बाद 2002 के विधानसभा चुनाव में 98 सीटों पर, 2007 में 403 में से 206 सीटों पर, 2012 में 403 में से 80 सीटों पर जीत हासिल की. सबसे बड़ा झटका मायावती और बसपा को वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के परिणामों में लगा, जहाँ सूबे में 22.23% वोट हासिल करने के बाद भी पार्टी सिर्फ 19 सीटों पर पर जीत हासिल कर सकी. पार्टी का 'कोर वोटर' इस चुनाव में छिटक चुका था.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार मायावती जब 2007 में चुनाव जीती थीं, उस वक्त बसपा को 85% जाटव, 71% वाल्मीकि और 57% पासी जाति के लोगों ने वोट किया था. इसके बाद वर्ष 2012 में जाटव 62%, पासी 51% साथ रहे, लेकिन वाल्मीकि वर्ग की तरफ से 42% वोट ही मिले. ये पहली बार था जब मायावती के कोर वोटर का उनसे ध्यान भंग हो गया. इसके बाद 2017 में यह आंकड़ा और कम हो गया.
बसपा ने नहीं अपनाया "सबका साथ-सबसे दोस्ती" का फॉर्मूला
इस बार के चुनाव में बसपा अकेले मैदान में उतरी और महज 1 सीट (बलिया की रसड़ा सीट) ही जीत सकी. पश्चिम यूपी की कुछ सीटों को अगर छोड़ दें तो ज्यादातर सीटों पर या तो बसपा प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई है या फिर तीसरे-चौथे स्थान पर रहे हैं. यही हाल पार्टी का लखनऊ और पूर्वांचल के क्षेत्रों में भी हुआ है. कुल वोट शेयर की अगर बात करें तो बसपा को इन चुनावों में कुल 12.88% वोट मिले, जो 2017 के चुनाव के मुकाबले 9.35% कम रहा. पार्टी के गठन से 38 साल की राजनीति में बसपा इस चुनाव के बाद अपने सबसे बुरे दौर में पहुंच गई है.
2017 के मुकाबले 2022 में हालत और ख़राब
हस्तिनापुर सीट पर बसपा पिछले चुनाव में नंबर दो पर थी और उसे 28.76 फीसदी वोट मिला था. इस बार उसका वोट बैंक महज 6.21 प्रतिशत ही रह गया. खुर्जा में पिछले चुनाव में उसे 23.46% वोट मिला था, जो इस बार 17.23 पर आ गया. ऐसे ही हाथरस में हुआ, जहां वोट शेयर 26.62% से घटकर 23.31% आ गया और इसके आसपास के इलाकों में यह 28.69% से घटकर 19.35% फीसदी ही रह गया. इन सीटों पर बसपा का वोट बैंक सीधा भाजपा को शिफ्ट होता नजर आया.
इन सीटों पर रही दूसरे नंबर पर
इन चुनावों में बसपा ने अपने पारंपरिक इलाके की सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन प्रत्याशी इस प्रदर्शन को जीत में परिवर्तित नहीं कर सके. आगरा नॉर्थ, अगर ग्रामीण, एत्मादपुर, अनूपशहर, बरूली, जलालपुर, हाथरस की सीटों पर पार्टी दूसरे स्थान पर रही, लेकिन दूसरे स्थान पर रहने के बाद भी पहले और दूसरे स्थान के प्रत्याशियों के बीच अच्छा-ख़ासा अंतर था.
बसपा का सियासी सफर
वर्ष 1993 के चुनाव में बसपा ने सपा के साथ चुनाव लड़ा, जिसमें समाजवादी पार्टी ने 109 सीटें जीतीं थीं, जबकि बहुजन समाज पार्टी ने 67 सीटें हासिल की. 1993 के चुनाव में BSP को 11.2% प्रतिशत वोट मिला. इसके बाद मनमुटाव होने के बाद मायावती ने सपा से गठबंधन तोड़ा. इसके बाद 1996 में एक बार फिर पूरी बसपा ने पूरी ताक़त के साथ चुनाव लड़ा. इस बार बसपा ने समाजवादी पार्टी के बजाय कांग्रेस से चुनावी गठबंधन किया. लेकिन जीत महज़ 67 सीटों पर ही मिलीं और वोट मिला 19.64%
यहां पर भी थोड़े समय रुकने के बाद मायावती ने बीजेपी के साथ दोस्ती की और 21 मार्च 1997 को दूसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. हालांकि इसके बाद कुछ समय तक यूपी में "समर्थन-समर्थन" वाली सरकारें चलती रहीं.
लोकसभा में सपा से की थी दोस्ती
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों से बसपा का बुरा दौर शुरू हुआ. इस चुनाव में बीएसपी शून्य पर रही. इस हार के बाद पार्टी के तमाम बड़े नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़ दिया, लेकिन इसके बाद 2019 तक आते-आते मायावती ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया और 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद मरणशैय्या पर जाती बसपा में जान झोंकी. इस कॉम्बिनेशन में बसपा को फिर फायदा हुआ और लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 10 सीटों पर जीत हासिल की.
जानकारी के लिए बता दें कि वर्तमान समय में संख्या बल के हिसाब से बसपा लोकसभा की 9वीं सबसे बड़ी पार्टी है.
मायावती का "वन वुमेन शो"
वर्ष 2001 में कांशीराम की तबियत बिगड़ने के बाद मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी, अगले विधानसभा चुनाव, जो महज कुछ ही महीनों में होने वाले थे. इस चुनाव में मायावती अकेले मैदान में उतरीं और राज्य की 98 सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन मामला यहीं नहीं रुका और राज्य के राजनैतिक समीकरणों में हुए बदलाव के चलते मायावती को अपना संघर्ष जारी रखना पड़ा.
जो अजित चौधरी लगभग एक दशक से मुलायम सिंह के विरोध में थे, उन्होंने मुलायम के लिए समर्थन जुटाया. जो सपा केंद्र में कांग्रेस के खिलाफ थी, उसी कांग्रेस ने राज्य में सपा को सहयोग दिया. जिस बीजेपी ने फ़रवरी 2002 में मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया, उसी ने उनकी सरकार बनाने में पूरी मदद की.
हालांकि इसके बाद मायावती अपने वोटबैंक को जड़ से जोड़ने में लग गईं. उनका मसकद सिर्फ यह था कि राज्य में सरकार चाहे जिसकी आये, गेम-चेंजर की भूमिका में बसपा ही रहे और उनका कोर वोटर उनसे जुड़ा रहे.
मायावती के पास सारे कॉम्बिनेशन रहे उपलब्ध
भारतीय राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग के लिए मशहूर मायावती ने 2007 के चुनाव से पहले राज्य में दलितों और ब्राह्मण वोटर्स का कॉम्बिनेशन बिठाने की भरपूर कोशिश की और टिकट वितरण का काम भी इसी तरह से किया. इन चुनाव के परिणामों ने यह साबित भी कर दिया कि यह 'मायावती का वन वुमेन शो' था. इसके बाद मायावती ने राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई.
2022 चुनाव में मायावती और बसपा कहां?
आंकड़ों के अनुसार तो बसपा अब उत्तर प्रदेश में कहीं नजर नहीं आती है. 2022 और 2017 विधानसभा चुनाव के परिणाम को अगर छोड़ दें तो पार्टी ने लगभग हर विधानसभा चुनाव में अच्छा वोट और अच्छा सीट कन्वर्जन किया था, लेकिन इस बार पार्टी का सीट कन्वर्जन रहा ही नहीं. पार्टी के पास राज्य में 10 सांसद जरूर हैं, जो 2024 के लोकसभा चुनावों तक पार्टी में रहेंगे या नहीं, इसकी भी कोई गारंटी नहीं.
पश्चिमी यूपी में सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद कुमार गुप्ता की माने तो इस बार बसपा ने जिस विधानसभा में जिस जाति के वोटर अधिक हैं, वहां उसी वर्ग के नेता को प्रत्याशी बनाया था. पार्टी ने करीब 150 विधानसभा सीटों (70 पश्चिम यूपी की और 90 पूर्वांचल की) पर एक साल पहले ही अनौपचारिक रूप से प्रत्याशी घोषित कर दिए थे, जो अपने आप में एक नई तरह की चुनावी रणनीति थी, हालांकि यह रणनीति सफल नहीं रही.
प्रमोद कहते हैं कि मायावती कभी भी चुनाव प्रचार 2 महीने पहले शुरू नहीं करती और ना ही वे दूसरी पार्टियों की तरह जिले दर जिले में जाकर प्रचार करना पसंद करती हैं. उनका लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ कुछ गिने चुने क्षेत्रों पर रहता है और उसी दौरान वे आसपास के प्रत्याशियों को बुलाकर उनके लिए वोट की अपील करती हैं.
कहां-कहां की मायावती ने रैली
इस बार के विधानसभा चुनाव में मायावती ने आजमगढ़, वाराणसी, औरैया, आगरा, बांदा, लखनऊ और गाजियाबाद में रैली की. इन रैलियों के दौरान उन्होंने आसपास की 80-90 विधानसभा सीटों पर सियासी और जातिगत समीकरणों को भांपते हुए बसपा प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करने की अपील की. हालांकि इन परिणामों में बसपा के पास 12% वोट खींचने के अलावा कुछ भी नहीं है. चुनाव में बसपा की थोड़ी देर से एंट्री करने की वजह से पार्टी के "कोर वोटर" या तो सपा ने लपके या फिर बीजेपी ने.