
उत्तर प्रदेश में 10 सीटों पर होने वाले राज्यसभा चुनाव में निर्दलीय उतरे प्रकाश बजाज का पर्चा खारिज हो गया है जबकि बसपा प्रत्याशी रामजी गौतम का पर्चा वैध पाया गया. बुधवार को यूपी में पूरे दिन चले सियासी घटनाक्रम के बाद बसपा भले ही एक राज्यसभा सीट पाने में सफल रही हो, लेकिन इस घटनाक्रम ने साफ कर दिया है कि सूबे की राजनीतिक बिसात पर मायावती चारों तरफ से घिर रही हैं. उनके सामने पार्टी और जनाधार को बचाए रखने की चुनौती है.
यूपी में इन दिनों कांग्रेस से लेकर भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद तक बसपा के दलित वोटबैंक पर नजर गढ़ाए बैठे हैं. दूसरी तरफ बसपा के पुराने और दिग्गज नेता लगातार मायावती का साथ छोड़ रहे हैं. रही सही कसर बुधवार को बसपा विधायकों की बगावत ने पूरी कर दी जो सपा से नजदीकियां बढ़ा रहे हैं.
बता दें कि उत्तर प्रदेश की सियासत में 2012 के बाद से बसपा का ग्राफ नीचे गिरना शुरू हुआ. 2017 के चुनाव में उसने सबसे निराशाजनक प्रदर्शन किया. 2019 लोकसभा चुनाव नतीजे के बाद लग रहा था कि बसपा सपा को बेदखल कर मुख्य विपक्षी दल की जगह लेगी, लेकिन मायावती न तो सड़क पर उतरीं और न बीजेपी सरकार के खिलाफ उनके वो तेवर नजर आए जिनके लिए वो जानी जाती हैं. पार्टी कैडर और सूबे के आवाम के साथ उनका संवाद होता नहीं दिख रहा है. ऐसे में बसपा नेताओं को अपने सियासी भविष्य का डर सताने लगा है.
बसपा नेता छोड़ रहे मायावती का साथ
2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से करीब 2 दर्जन से ज्यादा बसपा नेताओं ने पार्टी को अलविदा कहकर सपा का दामन थाम लिया. इसमें ऐसे भी नेता शामिल हैं, जिन्होंने बसपा को खड़ा करने में अहम भूमिका अदा की थी. बीएसपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दयाराम पाल, कोऑर्डिनेटर रहे मिठाई लाल पूर्व मंत्री भूरेलाल, इंद्रजीत सरोज, कमलाकांत गौतम और आरके चौधरी जैसे नाम है. अभी हाल ही में हाल ही में बसपा के पूर्व सांसद त्रिभुवन दत्त, पूर्व विधायक आसिफ खान बब्बू सहित कई नेताओं ने सपा की सदस्यता हासिल की है.
बसपा विधायकों की संख्या घट रही
बसपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीती थीं, लेकिन उसे पहला झटका तब लगा, जब मार्च 2018 के राज्यसभा चुनाव में उन्नाव से बसपा विधायक अनिल सिंह ने पार्टी लाइन से हटकर बीजेपी प्रत्याशी के पक्ष में मतदान कर दिया. इसके अलावा दूसरा झटका अंबेडकरनगर की जलालपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में सपा ने छीन लिया. इसके बाद पश्चिमी यूपी में पूर्व मंत्री रामवीर उपाध्याय बसपा के ब्राह्मण चेहरा माने जाते रहे हैं, जिन्होंने हाल में बीजेपी का दामन थाम लिया है.
राज्यसभा चुनाव के बीच बसपा के सात विधायकों ने पार्टी से बगावत कर दी है. इनमें असलम राइनी, असलम अली चौधरी, मुजतबा सिद्दीकी, हाकिम लाल बिंद, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल और वंदना सिंह जैसे विधायक के नाम शामिल हैं, जिन्होंने सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मुलाकात भी की है. इस तरह से बसपा विधायकों की संख्या घटकर दहाई के अंक के नीचे आ गई है.
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं कि विपक्ष के रूप में पिछले कई सालों से प्रदेश से बसपा गायब है. एक विपक्षी दल के रूप में मायावती अपनी भूमिका का निर्वाहन करती नहीं दिखी हैं बल्कि कई ऐसे मौके देखे गए हैं जब मायावती सरकार के सलाहकार की भूमिका में खड़ी दिखी हैं. यही वजह है कि बसपा नेताओं और विधायकों का पार्टी से मोहभंग हो रहा है और वो अपने नए राजनीतिक विकल्प तलाश रहे हैं.
मिश्रा कहते हैं कि राज्यसभा चुनाव बसपा महज इसलिए जीतने की स्थिति में हो गई है, क्योंकि निर्दलीय प्रत्याशी का पर्चा खारिज हो गया है. अगर चुनाव होते नतीजे कुछ और होते. इस चुनाव में बसपा ने पाने से ज्यादा खोया है, पार्टी के विधायक बागी हो गए और सबसे बड़ी बात इसमें ऐसे विधायक हैं, जो दलित और मुस्लिम समुदाय से आते हैं. ऐसे में बसपा के लिए 2022 का विधानसभा चुनाव काफी चुनौतीपूर्ण बन गया है.
दलित मतों पर विपक्ष की नजर
उत्तर प्रदेश में दलित मतदाता करीब 22 फीसदी हैं. अस्सी के दशक तक कांग्रेस के साथ दलित मतदाता मजबूती के साथ जुड़ा रहा, लेकिन बसदपा के उदय के साथ ही ये वोट उससे छिटकता ही गया. इसके बावजूद बसपा का दलित कोर वोटबैंक है. यूपी में कांग्रेस की कमान प्रियंका गांधी के हाथों में आने के बाद से वह अपने पुराने दलित वोट बैंक को फिर से जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही हैं. दलितों के मुद्दे पर कांग्रेस और प्रियंका गांधी लगातार सक्रिय हैं. इसके अलावा मायावती के दलित वोटर पर भीम आर्मी के चंद्रशेखर की नजर है.
चंद्रशेखर और कांग्रेस बनी चुनौती
यूपी का 22 फीसदी दलित समाज दो हिस्सों में बंटा है. एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 14 फीसदी है और जो मायावती की बिरादरी है. चंद्रशेखर आजाद भी जाटव हैं और मायावती की तरह पश्चिम यूपी से आते हैं. जाटव वोट बसपा का हार्डकोर वोटर माना जाता है, जिसे चंद्रशेखर साधने में जुटे हैं. दलित चिंतक और ऑल इंडिया अंबेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक भारती कहते हैं कांशीराम वाली बसपा अब नहीं रह गई है बल्कि मायावती की बसपा बन चुकी है. चंद्रशेखर के साथ दलितों का युवा तबका साथ है, जो मायावती के लिए चिंता का सबब बन सकता है, क्योंकि अभी तक ये लोग बसपा के साथ थे.
वहीं, सूबे में गैर-जाटव दलित वोटों की आबादी तकरीबन 8 फीसदी है. इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता है. हाल के कुछ वर्षों में दलितों का उत्तर प्रदेश में बीएसपी से मोहभंग होता दिखा है. गैर-जाटव दलित मायावती का साथ छोड़ चुका है. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में गैर-जाटव वोट बीजेपी के पाले में खड़ा दिखा है, लेकिन किसी भी पार्टी के साथ स्थिर नहीं रहता है. इस वोट बैंक पर कांग्रेस की नजर है. हाल के दिनों में कांग्रेस ने जिस तरह से यूपी में गैर-जाटव दलितों को संगठन में तवज्जो दी है और उनके मुद्दे को धार दार तरीके से उठाया है, उससे मायावती के लिए आने वाले समय में चुनौती खड़ी हो सकती है.