
उत्तर प्रदेश के वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद और श्रृंगार गौरी मामले में शुक्रवार को जिला अदालत एक अहम फैसला सुना सकती है. हिंदू पक्ष ने मस्जिद के वजूखाना क्षेत्र में मिले कथित शिवलिंग की कार्बन डेटिंग कराने की मांग की है. कोर्ट शुक्रवार को इसे लेकर अपना फैसला सुना सकती है. हालांकि इससे पहले बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) के पुरातत्वविद और प्रोफेसर का दावा है कि इसकी कार्बन डेटिंग संभव नहीं है.
ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के वजूखाने के बीच एक शिला मिली है, जिसे लेकर हिंदू पक्ष का दावा है कि ये शिवलिंग है, जबकि मुस्लिम पक्ष इसे एक फव्वारा बताता है.
चलिए हम भी जानते हैं कि पुरातत्व की कौन सी विधि कार्बन डेटिंग है? क्या इसके जरिये किसी पत्थर, शिला या शिवलिंग की उम्र का परीक्षण किया जा सकता है? साथ ही और कौन-सी तकनीक है जो कथित शिवलिंग के रहस्य से पर्दा उठ सकती है?
क्या होती है कार्बन डेटिंग?
कार्बन डेटिंग आखिर होती क्या है और इस परीक्षण से किन चीजों को लेकर नतीजे निकाले जा सकते हैं? इस बारे में BHU के प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अशोक सिंह ने खास बातचीत में कहा कि कार्बन डेटिंग केवल उन्हीं चीजों की हो सकती है, जिसमें कभी कार्बन रहा हो. इसका सीधा-सीधा मतलब हुआ कि कोई भी सजीव वस्तु जिसके अंदर कार्बन होता है, जब वह मृत हो जाती है तब उसके बचे हुए अवशेष की गणना करके कार्बन डेटिंग की जाती है. जैसे हड्डी, लकड़ी का कोयला, सीप, घोंघा इन सभी चीजों के मृत हो जाने के बाद ही इनकी कार्बन डेटिंग की जाती है.
पत्थर की कार्बन डेटिंग संभव नहीं
इस सभी चीजों की कार्बन डेटिंग भी पुरातात्विक संदर्भ में मिली हुई चीजों के लिए ही की जाती है.इसके लिए इनका सही प्रारूप में मिलना जरूरी है. अगर ऐसा नहीं होता है तो भी कार्बन डेटिंग करना संभव नहीं है. रही बात किसी पत्थर या शिवलिंग की कार्बन डेटिंग की, तो प्रोफेसर अशोक सिंह की जानकारी में ऐसी कोई तकनीक या विधि नहीं है, क्योंकि पत्थर जीवित नहीं होता है.इसलिए उसकी कार्बन डेटिंग की संभावना ना के बराबर है.
शिवलिंग के परीक्षण का और कोई तरीका?
तो क्या ज्ञानवापी के मस्जिद में मिली शिला का परीक्षण किसी और तरीके से किया जा सकता है? इस बारे में प्रोफेसर ने कहा कि जो शिला मिली है, उसके आसपास और करेस्पोंडिंग लेयर में जो चीजें उपलब्ध हैं, अगर उनकी उम्र निकाली जा सके तो तुलना के आधार पर शिला की उम्र निकाली जा सकती है.
डॉ. अशोक सिंह ने रडार तकनीक के बारे में भी बताया. इसे GPR तकनीक कहते है यानी 'ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार सिस्टम',इसके जरिये जंतु वैज्ञानिक जमीन के नीचे लेजर बीम छोड़ते है और जिससे जमीन के अंदर की चीजों का पता लगाने की कोशिश करते हैं.वजूखाने में GPR के इस्तेमाल से पता लगाया जा सकता है कि जमीन के नीचे किस तरह के स्ट्रक्चर मौजूद हैं? या नहीं हैं.
पुरातत्व सर्वे से पहुंच सकता है नुकसान?
पुरातात्विक सर्वे के दौरान विभिन्न तकनीकों के इस्तेमाल से संबंधित वस्तु को पहुंचने वाले नुकसान के संशय को भी डॉ सिंह ने दूर किया. उन्होंने कहा कि GPR तकनीक से किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंच सकता है.क्योंकि इसमें लेजर का इस्तेमाल होता है. जबकि कार्बन डेटिंग से नुकसान के सवाल पर बोले कि शिला की कार्बन डेटिंग संभव नहीं है, हालांकि अगर उस क्षेत्र में परीक्षण के दौरान मिली अन्य चीजों की कार्बन डेटिंग हो सकती है, तो उससे भी शिला को नुकसान नहीं पहुंचेगा.
तस्वीरों को देख किया ये दावा
प्रोफेसर सिंह ने वजूखाने में मिली शिला की तस्वीरों को देखकर दावा किया कि शिला के ऊपर किसी चीज को बाद में लगा दिया गया है. ऊपर की चीज सीमेंट की लग रही है जबकि नीचे की शिला अलग है और अंतर स्पष्ट दिख रहा है.
1949 में शुरू हुई कार्बन डेटिंग
साल 1949 में अमेरिका के 'एडवर्ड लेबी' ने कार्बन डेटिंग की खोज की थी. उन्होंने उन चीजों से कार्बन की बची हुई मात्रा निकाली जो कभी जीवित थी. 5,730 वर्षों में वस्तु की कार्बन की मात्रा आधी रह जाती है. इसी का मूल्यांकन करके डेट निकाली जाती है, जो सटीक होती है. एक बात आपको और बता दें कि 50 हजार साल से ज्यादा पुरानी चीजों की कार्बन डेटिंग संभव नहीं है.
अनाज के दाने से पता चलेगी उम्र
उन्होंने इसके अलावा एक और विधि AMS डेटिंग मेथड की जानकारी दी. इससे जले हुए अनाज के दानों से डेटिंग की जाती है जो बहुत प्रमाणित होती है.उन्होंने दावा किया कि इसलिए आसपास के हिस्से का परीक्षण करके जले हुए अनाज के दाने मिल जाए तो एक्यूरेट डेट का पता लगाया जा सकता है.