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नौकरी समझते हो तो सेना में मत आओ, मर-मिटने का जज्बा होना चाहिए... जब बिपिन रावत ने की थी दिल की बात

एक बात जो वो मुझे हर बार कहते थे कि सेना कोई नौकरी नहीं है. जो ऐसे नौकरी समझता है वो सेना में न आए. सेना में वो आए जो देश पर मर मिटना जानता हो. देश पर मर मिटने का उनका जज़्बा ऐसा था कि घर परिवार रिश्तेदार सब उनके लिए बाद में आते थे.

CDS बिपिन रावत ने जब की थी मन की बात CDS बिपिन रावत ने जब की थी मन की बात
मंजीत नेगी
  • नई दिल्ली,
  • 09 दिसंबर 2021,
  • अपडेटेड 7:52 PM IST
  • बिपिन रावत ने देश प्रेम को हमेशा दी सबसे ज्यादा प्राथमिकता
  • सेना को हमेशा माना मर-मिटने वाली सेवा, दूसरों को भी दिया संदेश

भुला, मैंने उत्तराखंड वापस जाना है, वहां के बच्चों के लिए अच्छा बोर्डिंग स्कूल खोलना है. जनरल रावत के ये शब्द पूरी रात मेरे कानों में गूंजते रहे. मैं जब भी जनरल रावत से मिलता था वे कहते थे कि सेवानिवृत्त होने के बाद मैं एक स्कूल गढ़वाल और एक स्कूल कुमाऊं में खोलूंगा. ये स्कूल मेयो कॉलेज की तरह आधुनिक बोर्डिंग स्कूल होंगे. हाल में ही उन्होंने देहरादून में अपने घर का भूमिपूजन किया था. 5 दिसम्बर रविवार को ही जनरल साहब ने मुझे घर पर बुलाया और बताया कि मैं थिएटर कमांड का काम जल्द ख़त्म करके उत्तराखंड जाऊंगा.

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जब बिपिन रावत ने की थी दिल की बात

एक बात जो वो मुझे हर बार कहते थे कि सेना कोई नौकरी नहीं है. जो ऐसे नौकरी समझता है वो सेना में न आए. सेना में वो आए जो देश पर मर मिटना जानता हो. देश पर मर मिटने का उनका जज़्बा ऐसा था कि घर परिवार रिश्तेदार सब उनके लिए बाद में आते थे. उनकी पत्नी मधुलिका रावत मुझसे कई बार कहती थी कि ये मुझे अपने साथ नहीं ले जाते लेकिन संयोग नियति देखिए जनरल रावत अपनी अंतिम यात्रा पर पत्नी को साथ लेकर चले गए. जनरल रावत के साले यश्वर्धन सिंह बताते हैं कि जनरल साहब ने कहा था कि जनवरी 2022 में वे अपनी सुसराल शहडोल आएंगे.

कठोर फैसले, विरोध हुआ फिर भी अटल

सेना प्रमुख का पद संभालने के बाद जनरल बिपिन रावत ने कई अहम फैसले लिए. जनरल बिपिन रावत कहते हैं कि सेना प्रमुख, सेना का अभिभावक होता है. उसे जहां अपने जवानों को एक अनुशासित और युद्ध के लिए हर समय तैयार फौजी बनाए रखने से जुड़े फैसले लेने होते हैं तो वहीं जवानों का नैतिक बल मजबूत रखने के लिए भी प्रयास करने होते हैं. जनरल रावत द्वारा सहायक परंपरा हटाने का फैसला इसी दिशा में एक अभूतपूर्व कदम है. उन्हें बखूबी अहसास था कि उनके इस कदम पर साथी अधिकारियों द्वारा ऐतराज जताया जाएगा फिर भी उन्होंने यह फैसला लिया. एक ऐसा फैसला जिसने साबित किया कि यह जनरल जरा हटके हैं.

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जनरल रावत के संज्ञान में आया कि करीब 2000 सैनिक पूर्व अधिकारियों के घरों में बतौर सहायक काम कर रहे हैं. इसकी जांच कराई गई तो पाया गया कि करीब 1,000 जवान (सेना की एक बटालियन के बराबर) राष्ट्रीय राजधानी से सटे नोएडा, गुड़गांव और ग्रेटर नोएडा में पूर्व सैन्य अधिकारियों के घरों पर सहायक के तौर पर काम कर रहे हैं. इतने ही जवान देश के दूसरे हिस्सों में भी पूर्व अधिकारियों के यहां बतौर सहायक तैनात हैं. जनरल रावत ने महसूस किया कि इस तरह तो युद्ध के लिए प्रशिक्षित जवानों का दुरुपयोग हो रहा है. उन्होंने सहायक परंपरा को खत्म  करने की घोषणा की.

वो किस्सा जब रावत के पास पहुंचीं कईं शिकायतें

औपनिवेशिक काल से सेना के जवानों को ऑर्डरली या सहायक के तौर पर इस्तेमाल करने की परंपरा चली आ रही है. उन्हें अधिकारी और जूनियर कमीशंड ऑफिसर्स की यूनिफॉर्म का रखरखाव का काम करना होता था. सेना के कई वरिष्ठ पूर्व अधिकारी अपनी यूनिट अथवा रेजीमेंट से सहायक लेते थे. ये मूलतः सक्रिय सैनिक अथवा लड़ाई में जाने वाले सैनिक होते हैं. सेना में सेवारत और पूर्व अधिकारियों के घर पर सहायक का काम करने वाले जवानों को शांत इलाकों में रहने का मौका मिलता है. इस दौरान उन्हें शांतक्षेत्र एवं युद्धक्षेत्र में तैनात अपने दूसरे साथियों की तरह रोजाना का शारीरिक प्रशिक्षण और कठिन ड्रिल भी नहीं करना पड़ता था. जैसे की जनरल रावत को आशंका थी, उनके इस फैसले पर अन्य साथी अधिकारियों और पूर्व अधिकारियों द्वारा नाराजगी जताई गई. जनरल रावत इससे जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा भी सुनाते हैं.

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वह बताते हैं कि एक दिन वह ड्यूटी के बाद अभी अपने आवास पर पहुंचे ही थे भूतपूर्व सेना प्रमुख जनरल के. सुंदर जी की पत्नी उनके पास शिकायती अंदाज में मिलने पहुंचीं. उनकी शिकायत थी कि सहायकों को हटाकर उन्होंने बड़ी परेशानी खड़ी कर दी है और यह एक गलत फैसला है. इस उम्र में बिना इन सहायकों के कैसे रहें? ये लोग मेरा इतना काम करते थे, अब वह काम कौन करेगा? मैंने उनसे कहा कि आपके लिए एक आदमी बहुत है जो आपके लिए सुबह खाना बना देगा और जब कभी भी आपको कहीं बाहर जाना हो तो वह आपकी गाड़ी भी चला लेगा क्योंकि फौजी तो हर कार्य में माहिर होते हैं. इस पर जनरल सुंदरजी की पत्नी ने पूछा कि जब घर में कोई मेहमान आयेगा तो उसके लिए कैसे खाना बनेगा?

इस तरह की कई छोटी-छोटी बातें उन्होंने कहीं और फैसले पर पुनर्विचार को कहा. वह करीब साढ़े आठ बजे आईं थीं तब मैंने युनिफॉर्म भी नहीं उतारा था. मैं उनको सहायकों को कम करने के तर्क देता रहा और वह अपनी परेशानियां बताकर उसे फैसले को हटाने को कहती रहीं. इसी चर्चा में रात के करीब साढ़े बारह बज गए. मैंने उनसे कहा कि अब खाना खा लेते हैं, उसके बाद आगे की बात करेंगे. खाना लगा. दाल, रोटी, सब्जी, चावल और सलाद आदि टेबल पर सजाया गया. उसे देखकर उन्होंने मुझसे पूछा, “आप यही खाना खाते हैं?”

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मैंने उन्हें बताया कि हां मेरा आमतौर पर खाना कुछ ऐसा ही होता है. उन्होंने मुझे हैरानी से देखा. फिर उन्हें बात समझ में आई कि ड्यूटी पर तैनात जनरल का भोजन जब ऐसी सादगी वाला हो सकता है तो मेरा क्यों नहीं? वह संतुष्ट होकर गईं. यह मेरे लिए अपने फैसले की एक नैतिक जीत थी. मैंने एक एक अधिकारी के परिवार को यह समझा सका था कि सहायक के रूप में काम करने वाले लोग दरअसल सेना के जवान हैं जो मूलरूप से युद्ध के लिए तैयार किए गए हैं. इसलिए गैर-युद्ध कार्यों में उनका ज्यादा इस्तेमाल देशहित में नहीं है.

रावत की क्रांतिकारी योजनाएं

भारतीय सेना भविष्य में कैसी होगी, इसे लेकर जनरल रावत के पास कई योजनाएं थी. सेना में युवा अधिकारियों को आकर्षित करने के लिए जनरल रावत ने सीधे जूनियर कमीशंड ऑफिसर्स (जेसीओ) की भर्ती का विचार भी आगे बढ़ाया. इससे आतंकवाद और दूसरे अभियानों के लिए सेना को युवा और मध्यम आयु वर्ग के अधिकारी मिल सकेंगे. सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने एडजुटेंट जनरल शाखा को सुझाव दिया था कि जो उम्मीदवार 5 अंकों की कमी के चलते सेना में अधिकारी के रूप में चयनित होने से वंचित रह गए हों, उन्हें जेसीओ के रूप में सेना से जुड़ने का मौका दिया जा सकता है. अगर सेना एक दक्ष आईटी इंजीनियर को जेसीओ के तौर पर भर्ती करती है तो उसका इस्तेमाल साइबर ऑपरेशन और साइबर वॉरफेयर  में किया जा सकता है. सुरक्षित नौकरी और अन्य लाभों के साथ उन्हें 70,000 रुपये का शुरुआती वेतन दिया जा सकता है.

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जनरल रावत के इस क्रांतिकारी विचार से बड़ी संख्या में युवाओं के सेना की ओर आकर्षित होने की संभावना है. दरअसल, सेना के एक जवान को जेसीओ बनने में लगभग 20 साल का समय लगता है. युद्ध और आतंकवाद रोधी अभियान के दौरान जेसीओ ही, जवान और अधिकारियों के बीच कड़ी के रूप में काम करते हैं. अगर इस योजना को स्वीकार कर लिया जाता है तो जेसीओ बनने की समय सीमा में काफी कमी आ जाएगी. किसी मुश्किल स्थिति में अधिकारी के उपलब्ध न होने पर, वे खुद अभियान का नेतृत्व कर सकेंगे. अगर जनरल रावत का यह विचार अमल में आया तो सीधे भर्ती होने वाले जेसीओ को अधिकारी बनने का मौका मिलेगा और ये जेसीओ लेफ्टिनेट कर्नल के रैंक तक पहुंच सकते हैं.

 

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