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जोशीमठ ही नहीं, इन पहाड़ी शहरों पर भी है जमीन में समाने का खतरा, बेहद डरावनी है रिपोर्ट

उत्तराखंड के जोशीमठ को सिंकिंग जोन घोषित कर दिया गया. लगातार इसके जमीन में समाने का खतरा बढ़ रहा है. लोगों को रिलीफ कैंप भेजा जा रहा है ताकि हादसा टाला जा सके. इस बीच ये बात भी आ रही है कि जोशीमठ अकेला नहीं, उत्तराखंड में सैर-सपाटे के लिए कई ऐसे मशहूर शहर हैं जो जमीन में धंसने के खतरे के साथ जी रहे हैं.

जोशीमठ में जमीन धंसने के चलते हजारों लोगों को रिलीफ कैंप भेजा जा रहा है. (PTI) जोशीमठ में जमीन धंसने के चलते हजारों लोगों को रिलीफ कैंप भेजा जा रहा है. (PTI)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 10 जनवरी 2023,
  • अपडेटेड 8:04 AM IST

जोशीमठ को लेकर साल 1976 में ही मिश्रा रिपोर्ट आई थी, जिसमें साफ कहा गया कि यहां किसी भी तरह का प्रोजेक्ट इस जगह और साथ-साथ प्रोजेक्ट के लिए भी खतरा रहेगा. गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा के बनाए पैनल ने इसकी वजह बताते हुए कहा कि जोशीमठ सख्त जमीन नहीं, बल्कि मोरेन पर बसा है. ये पत्थर-रेत और मिट्टी का वो ढेर है, जो ग्लेशियर के पिघलने पर बनता है. 

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इसे इस तरह से समझें कि जैसे नदी अपने साथ मिट्टी-रेत-सीपियों जैसी चीजें बहा लाती है और कई बार छोटे-छोटे द्वीप जैसा स्ट्रक्चर बन जाता है, ग्लेशियर भी एक नदी की ही तरह काम करता है और अपने साथ कई चीजें लाता है. ये ठोस जमीन नहीं होती, बल्कि नीचे खोखला स्ट्रक्चर होता है. 

मलबे पर बसे शहर के चारों ओर कई प्रोजेक्ट चलने लगे
कल्पना कीजिए, किसी कमजोर इमारत की, हल्का धक्का भी जिसे गिरा दे, ऐसी इमारत पर अलग बुलडोजर चल जाए. ठीक यही जोशीमठ के मामले में हुआ. खासकर यहां नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन (एनटीपीसी) प्रोजेक्ट को बड़ा खतरा बताया जा रहा है. असल में एनटीपीसी यहां पर लगभग 12 किलोमीटर लंबी सुरंग बना रहा है जो दो सिरों को जोड़ सके. इसके लिए लगातार ब्लास्ट होने लगे. 

लोग मान रहे टनल को दोषी
इसी बीच जोशीमठ के लोगों ने प्रोजेक्ट के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया. वे मानते हैं कि इसी टनल की वजह से कमजोर जमीन दरक रही है. इधर एनटीपीसी अपने पक्ष में कह रहा है कि उनका काम शुरू होने से सालों पहले से जोशीमठ के घरों में दरारें पड़ने के वाकये सुनाई पड़ने लगे थे. प्रोजेक्ट के अलावा जोशीमठ आपदा की वजहों में बढ़ती आबादी, कंस्ट्रक्शन और टूरिज्म भी शामिल हैं. 

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रिपोर्ट्स के मुताबिक जोशीमठ मलबे पर बसा शहर है, जो कई वजहों से धसक रहा है. (PTI)

ये शहर भी हैं खतरे में
उत्तराखंड पहले से ही आपदाओं के लिए अति-संवेदनशील इलाकों में आता रहा. अब चर्चा ये भी है कि जोशीमठ ही नहीं, बल्कि नैनीताल और उत्तरकाशी भी जमींदोज होने के खतरे में हैं. वैज्ञानिक भाषा में इसे लैंड सब्सिडेंस या भू-धंसाव कहते हैं. 'जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम साइंस' की मार्च 2018 की रिपोर्ट में भारत और ताइवान के एक्सपर्ट्स ने मिली-जुली चिंता जताते हुए बताया कि नैनीताल किसी ठोस जमीन नहीं, बल्कि मलबे पर बसा शहर है. ये मलबा लगातार नीचे की ओर धसक रहा है. 

जमीन के धंसने को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने खास तकनीक की मदद ली, जिसे सिंथेटिक अपेर्चर रडार कहते हैं. इसमें कई सालों में मिट्टी में क्या बदलाव हुए, ये देखते हुए बताया गया कि ऊपर से मिट्टी कैसे हर साल के साथ तेजी से नीचे सरक रही है. नैनीताल के जमीन में समाने के खतरे के पीछे भी कंस्ट्रक्शन वर्क को जिम्मेदार माना गया. 

अति-संवेदनशील इलाकों में शामिल
स्टडी के मुताबिक नैनीताल के साथ-साथ उत्तरकाशी और चंपावत में भी हालात तेजी से खराब हो रहे हैं. ये सभी क्षेत्र सिस्मिक जोन में आते हैं और अति-संवेदनशील हैं. मतलब इन जगहों पर भूकंप आने का खतरा बहुत ज्यादा रहता है. हमारे यहां भूकंप को उसकी गंभीरता के आधार पर 5 जोन्स में बांटा गया है और सिस्मिक जोन 5 सबसे खतरनाक है. यानी इन जगहों पर सबसे ज्यादा तीव्रता का भूकंप आ सकता है. 

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सिस्मिक जोन 5 के तहत उत्तराखंड के 5 जिले- रुद्रप्रयाग, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी आते हैं. नैनीताल जोन 4 में आता है. वहीं टिहरी और देहरादून दोनों ही जोन के तहत आते हैं. कुल मिलाकर पूरा का पूरा उत्तराखंड ही जमीन के धंसने-दरकने की आशंकाओं के बीच बना-बसा है, अगर ध्यान न दिया जाए. 

नैनीताल को भी अति-संवेदनशील इलाकों में गिना जा रहा है. (Getty Images)

उत्तराखंड के चमोली को ही लें तो बीते साल फरवरी में यहां भयंकर बाढ़ ने दर्जनों जानें ले लीं, जबकि सौ से ज्यादा लोग लापता हो गए. पहाड़ों पर लापता लोगों को भी मरे हुओं में गिना जाता है. इसका बिल्कुल सही-सही कारण समझ नहीं आ सका लेकिन वैज्ञानिकों ने माना कि पावर प्रोजेक्ट के चलते जमीन पर बढ़ता दबाव ही इसकी वजह है. 

केदारनाथ आपदा के बाद एससी हुआ सख्त
साल 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कई हाइड्रो प्रोजेक्ट्स को रोककर एक साफ नीति बनाने को भी कहा था. कई रिपोर्ट्स के आधार पर ये भी कहा गया कि 2 हजार मीटर से ऊंची जगह पर प्रोजेक्ट न लगाए जाएं क्योंकि ये जगहें ग्लेशियर पिघलने से बने मलबे पर बसी हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 

उत्तराखंड पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड के मुताबिक फिलहाल वहां 7 बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट चल रहे हैं. इसमें पौड़ी का टिहरी डैम, श्रीनगर (पौड़ी) का अलकनंदा हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट, पौड़ी में चिल्ला पावर प्लांट, देहरादून का चिब्रो पावर प्लांट और कलागढ़ (पौड़ी) का रामगंगा प्रोजेक्ट शामिल हैं. इसके अलावा राज्य की नदियों पर छोटे-बड़े सब मिलाकर लगभग 43 हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट हैं. ये सब मिलकर देवभूमि कहलाते इस राज्य को लगातार कमजोर बना रहे हैं.

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