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दिल्ली की एक अदालत ने गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (UAPA) के एक मामले की सुनवाई की. इस दौरान कोर्ट ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) से कहा कि जिहादी साहित्य रखना तब तक अपराध नहीं है, जब तक उसकी वजह से आतंकवादी उद्देश्यों को अंजाम नहीं दिया जाता.
रिपोर्ट्स के मुताबिक एनआईए ने 11 लोगों पर IS के साथ लिंक होने का आरोप लगाया था. साथ ही ये भी कहा गया था कि आरोपी कई सोशल मीडिया साइट्स समेत ISIS की विचारधारा का प्रसार करने वाले प्लेटफॉर्म का हिस्सा थे. साथ ही ये लोग IS की हिंसक जिहादी विचारधारा का भी प्रचार करते थे. इतना ही नहीं, आरोपियों के बीच टेरर फंडिंग के रूप में 60,000 रुपये का लेनदेन भी हुआ था.
प्रधान जिला और सत्र न्यायाधीश धर्मेश शर्मा ने 31 अक्टूबर को अपने आदेश में कहा कि ऐसा साहित्य किसी भी प्रावधान के तहत स्पष्ट रूप से या विशेष रूप से प्रतिबंधित नहीं है. जब तक कि आतंकवादी कृत्यों को करने के लिए इस तरह के साहित्य के साथ कोई अन्य सामग्री न मिले. तब तक यह अपराध नहीं है.
प्रधान जिला और सेशन जज धर्मेश शर्मा ने 11 आरोपियों में से एक को सभी आरोपों से बरी कर दिया. जबकि मुख्य आरोपी की मौत हो गई थी. वहीं अन्य 9 आरोपियों पर IPC की धारा 120 बी, धारा 2 (O) के साथ धारा 13 के तहत यूएपीए की धारा 38 और 39 के तहत मामला दर्ज किया गया था.
कोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 121 ए के तहत आरोप तय करने से इनकार करते हुए कहा कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि उनमें से कोई भी भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश कर रहा था.
कोर्ट ने कहा कि आरोपी शायद ISIS का सदस्य बनना चाहते थे, लेकिन उनमें से कोई भी अभी तक ऐसे किसी संगठन का सक्रिय सदस्य नहीं रहा है. इसमें कहा गया है कि इस बात का भी कोई सबूत नहीं है कि आईएस द्वारा किसी भी आरोपी को कोई रैंक, पद या पदनाम दिया गया था, या फिर आरोपियों ने आतंकवादी गतिविधि को अंजाम देने के लिए कोई काम किया था.
कोर्ट ने कहा कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि आईएसआईएस या उसकी सहायक या संबद्ध संगठन के किसी भी कमांडेंट द्वारा किसी भी आरोपी को अपने सैनिकों या किसी "स्लीपर सेल" के सदस्यों के रूप में नियुक्त किया था.
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