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सजा पूरी होने से पहले ही कैसे रिहा हो रहे हैं नवजोत सिंह सिद्धू? जानें कैदियों को कैसे मिलती है छूट

रोड रेज के मामले में सजा काट रहे कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू शनिवार को पटियाला जेल से रिहा हो सकते हैं. सिद्धू के वकील ने बताया कि उन्हें अच्छा बर्ताव के कारण रिहा किया जा रहा है. जानिए एक कैदी को समय से पहले कैसे रिहा किया जाता है? और जेल में रहते हुए कब और कैसे बाहर आ सकता है?

नवजोत सिंह सिद्धू को पिछले साल 20 मई को सुप्रीम कोर्ट ने एक साल की सजा सुनाई थी. (फाइल फोटो) नवजोत सिंह सिद्धू को पिछले साल 20 मई को सुप्रीम कोर्ट ने एक साल की सजा सुनाई थी. (फाइल फोटो)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 31 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 6:41 AM IST

कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू शनिवार को जेल से रिहा हो जाएंगे. सिद्धू के ट्विटर अकाउंट से इस बात की जानकारी दी गई है. सिद्धू के वकील एचपीएस वर्मा ने भी न्यूज एजेंसी से उनकी रिहाई की पुष्टि की है. 

सिद्धू को पिछले साल तीन दशक पुराने रोड रेज केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक साल की सजा सुनाई थी. सिद्धू इस समय पटियाला जेल में बंद हैं.

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उनके वकील एचपीएस वर्मा ने बताया कि पंजाब प्रिजन रूल्स के अनुसार अगर किसी कैदी का बर्ताव अच्छा होता है तो उसे समय से पहले रिहा किया जा सकता है. उन्होंने बताया कि सिद्धू को शनिवार को रिहा किया जा सकता है.

पर समय से पहले कैसे?

दरअसल, सजा खत्म होने से पहले रिहाई मिलना कैदी के बर्ताव पर निर्भर करता है. अगर कैदी का बर्ताव अच्छा रहता है, तो उसे समय से पहले रिहाई मिल जाती है.

अगर किसी कैदी का बर्ताव अच्छा रहता है तो हर महीने 5 से 7 दिन उसकी सजा कम होती जाती है. बॉलीवुड एक्टर संजय दत्त को भी इसी आधार पर समय से पहले रिहा कर दिया गया था, क्योंकि जेल में अच्छा बर्ताव था. संजय दत्त 1993 के मुंबई ब्लास्ट केस में पुणे के येरवदा जेल में बंद थे.

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रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब प्रिजन रूल में लिखा है कि अगर कोई कैदी जेल में अच्छा बर्ताव करता है तो हर महीने उसकी सजा में 5 दिन की छूट मिल जाती है. 

सिद्धू को सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 20 मई को एक साल की सजा सुनाई थी. लिहाजा उनकी रिहाई में अभी डेढ़ महीना और बाकी है. लेकिन अच्छे बर्ताव के कारण उन्हें समय से पहले रिहा किया जा रहा है.

फरलो और परोल पर भी होते हैं रिहा

जेल में बंद कैदियों को समय-समय पर फरलो या फिर परोल पर भी कुछ समय के लिए रिहा किया जाता है. फरलो और परोल दोनों अलग-अलग बातें हैं. प्रिजन एक्ट 1894 में इन दोनों का जिक्र है. फरलो सिर्फ सजा पा चुके कैदी को ही मिलती है. जबकि, परोल पर किसी भी कैदी को थोड़े दिन के रिहा किया जा सकता है.

फरलो एक तरह से छुट्टी की तरह होती है, जिसमें कैदी को कुछ दिन के लिए रिहा किया जाता है. फरलो की अवधि को कैदी की सजा में छूट और उसके अधिकार के तौर पर देखा जाता है. फरलो सिर्फ सजा पा चुके कैदी को ही मिलती है. फरलो आमतौर पर उस कैदी को मिलती है जिसे लंबे वक्त के लिए सजा मिली हो. 

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इसका मकसद होता है कि कैदी अपने परिवार और समाज के लोगों से मिल सके. इसे बिना कारण के भी दिया जा सकता है. चूंकि जेल राज्य का विषय है, इसलिए हर राज्य में फरलो को लेकर अलग-अलग नियम है. उत्तर प्रदेश में फरलो देने का प्रावधान नहीं है.

फरलो देने के लिए किसी कारण की जरूरत नहीं होती. लेकिन परोल के लिए कोई कारण होना जरूरी है. परोल तभी मिलती है जब कैदी के परिवार में किसी की मौत हो जाए, ब्लड रिलेशन में किसी की शादी हो या कुछ और जरूरी कारण. किसी कैदी को परोल देने से इनकार भी किया जा सकता है. परोल देने वाला अधिकारी ये कहकर मना कर सकता है कि कैदी को छोड़ना समाज के हित में नहीं है.

कब नहीं मिलती परोल और फरलो?

- सितंबर 2020 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने परोल और फरलो के लिए नई गाइडलाइंस जारी की थी. इसमें गृह मंत्रालय ने बताया था कि किसी को परोल और फरलो कब नहीं दी जाएगी? इसके मुताबिक- 

a) ऐसे कैदी जिनकी मौजूदगी समाज में खतरनाक हो या जिनके होने से शांति और कानून व्यवस्था बिगड़ने का खतरा हो, उन्हें रिहा नहीं किया जाना चाहिए.

b) ऐसे कैदी जो हमला करने, दंगा भड़काने, विद्रोह या फरार होने की कोशिश करने जैसी जेल हिंसा से जुड़े अपराधों में शामिल रहे हों, उन्हें रिहा नहीं किया जाना चाहिए.

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c) डकैती, आतंकवाद संबंधी अपराध, फिरौती के लिए अपहरण, मादक द्रव्यों की कारोबारी मात्रा में तस्करी जैसे गंभीर अपराधों के दोषी या आरोपी कैदी को रिहा नहीं किया जाना चाहिए.

d) ऐसे कैदी जिनके परोल या फरलो की अवधि पूरा कर वापस लौटने पर संशय हो, उन्हें भी रिहा नहीं किया जाना चाहिए.

e) यौन अपराधों, हत्या, बच्चों के अपहरण और हिंसा जैसे गंभीर अपराधों के मामलों में एक समिति सारे तथ्यों को ध्यान में रखकर परोल या फरलो देने का फैसला कर सकती है.

सिद्धू को किस मामले में मिली थी सजा?

ये मामला 27 दिसंबर 1988 का है. उस दिन सिद्धू अपने दोस्त रूपिंदर सिंह संधू के साथ पटियाला के शेरावाले गेट की मार्केट में पहुंचे. ये जगह उनके घर से 1.5 किलोमीटर दूर है. उस समय सिद्धू एक क्रिकेटर थे. उनका अंतरराष्ट्रीय करियर शुरू हुए एक साल ही हुआ था.

इसी मार्केट में कार पार्किंग को लेकर उनकी 65 साल के बुजुर्ग गुरनाम सिंह से कहासुनी हो गई. बात हाथापाई तक जा पहुंची. सिद्धू ने गुरनाम सिंह को घुटना मारकर गिरा दिया. उसके बाद गुरनाम सिंह को अस्पताल ले जाया गया, जहां उनकी मौत हो गई. रिपोर्ट में आया कि गुरनाम सिंह की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी. 

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उसी दिन सिद्धू और उनके दोस्त रूपिंदर पर कोतवाली थाने में गैर इरादतन हत्या का केस दर्ज हुआ. सेशन कोर्ट में केस चला. 1999 में सेशन कोर्ट ने केस को खारिज कर दिया. मामला हाईकोर्ट पहुंचा. हाईकोर्ट ने सिद्धू और संधु को 3-3 साल कैद की सजा सुनाई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. बाद में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल हुई और अदालत ने दोषी मानते हुए एक साल की सजा सुनाई. 

 

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