भारत में 16 जनवरी से कोरोना वायरस के खिलाफ वैक्सीनेशन अभियान शुरू किया जा रहा है. इसकी शुरुआत कोविशील्ड और कोवैक्सीन के साथ की जा रही है. भारत में दो वैक्सीन के साथ वैक्सीनेशन का अभियान शुरू किया जा रहा है. एक है कोविशील्ड और दूसरी कोवैक्सीन. जहां, सीरम इंस्टिट्यूट की कोविशील्ड की दो डोज दिए जाने पर एफिकेसी दर 62 फीसदी बताई गई है, वहीं, भारत बायोटेक की एफिकेसी रेट के डेटा जारी ना किए जाने को लेकर सवाल खड़े किए जा चुके हैं. आइए जानते हैं कि एफिकेसी रेट का मतलब क्या है और ये कैसे तय होता है?
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वैक्सीन Pfizer और BioNTech ने अपनी वैक्सीन का एफिकेसी रेट 95 प्रतिशत तक बताया है. जबकि रूस की Sputnik और अमेरिका की Moderna का एफिकेसी रेट 90 से 94.5 प्रतिशत तक बताया गया है.
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मेयो क्लीनिकल के वैक्सीन डेवलपर डॉ. ग्रेगरी पॉलैंड वैक्सीन के इतने शानदार एफिकेसी रेट को बड़ा गेम चेंजर मान रहे हैं. उनका कहना है कि वह तो सिर्फ 50 से 70 प्रतिशत तक एफिकेसी रेट की उम्मीद लगाए बैठे थे. जबकि, फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) ने ऐसी वैक्सीन को ही इमरजेंसी अप्रूवल देने की बात कही थी जिसका एफिकेसी रेट कम से कम 50% हो.
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एक्सपर्ट का कहना है कि 90 फीसदी एफिकेसी रेट के साथ इन्हें आदर्श वैक्सीन कहना गलत नहीं है. हालांकि, 90 फीसदी एफिकेसी रेट का ये मतलब नहीं है कि अगर 100 लोगों को वैक्सीन लगाई गई तो 90 फीसदी लोगों पर असरदार होगी. आइए जानते हैं किसी वैक्सीन का एफिकेसी रेट कैसे तय किया जाता है.
कैसे तय होता है एफिकेसी रेट- लगभग 100 साल पहले वैज्ञानिकों ने वैक्सीन ट्रायल के नियम बनाए थे. इस प्रक्रिया के तहत, ट्रायल में कुछ वॉलंटियर्स को असल में वैक्सीन दी जाती है, जबकि कुछ को प्लेसिबो यानी आर्टिफिशियल टीका दिया जाता है. इसके बाद शोधकर्ता देखते हैं कि किस समूह में कितने लोग बीमार हुए.
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उदाहरण के लिए, फाइजर ने 48,661 लोगों को परीक्षण में शामिल किया था जिनमें से 170 लोगों में कोविड-19 के लक्षण मिले. यहां 170 वॉलंटियर्स में से सिर्फ 8 को असली वैक्सीन दी गई थी, जबकि 162 को प्लेसिबो (मरीज को बिना बताए दिए जाने वाला आर्टिफिशियल टीका) दिया गया था. फाइजर के शोधकर्ताओं ने दोनों ही ग्रुप के ऐसे लोगों को छांटा जो बीमार पड़ गए थे.
ये दोनों ही समूह काफी छोटे थे. हालांकि, जिन लोगों को असली वैक्सीन दी गई थी, उनकी तुलना में आर्टिफिशियल वैक्सीन पाने वाले लोग ज्यादा बीमार पड़े. इसी आधार पर, वैज्ञानिकों ने दोनों समूहों में वैक्सीन के असर को रेखांकित किया. दोनों समूहों के बीच जो अंतर दिखता है, उसे ही वैज्ञानिक एफिकेसी (प्रभावकारिता) कहते हैं. दोनों समूहों, जिन्हें असली वैक्सीन दी गई और जिन्हें नकली वैक्सीन दी गई, अगर उनके बीच कोई फर्क नहीं होता तो वैक्सीन बेअसर मानी जाती है. एफिकेसी रेट वैक्सीन दिए गए लोगों की, बिना वैक्सीन दिए गए लोगों में जोखिम से तुलना करके ही तय किया जाता है.
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ऐसे में 95 प्रतिशत एफिकेसी रेट का मतलब यही है कि वैक्सीन काम कर रही है. हालांकि, असल में ये दर कभी ये तय नहीं करती कि वैक्सीन लगने के बाद आपके बीमार पड़ने की संभावना कितनी है. क्योंकि लोगों को सार्वजनिक रूप से वैक्सीन देने की प्रक्रिया में किसी तरह का प्लेसीबो यानी नकली डोज का इस्तेमाल नहीं होता है. यहां वैक्सीन लगने के बाद बीमार पड़ने वाले और स्वस्थ लोगों के अनुपात के आधार पर सही एफिकेसी रेट निर्धारित हो सकता है.
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जॉन्स होपकिंस ब्लूमबर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के एपिडेमियोलॉजिस्ट नोआर बार ज़ीव कहते हैं, 'प्रभावकारिता (एफिकेसी) और प्रभावशीलता (इफेक्टिवनेस) एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, लेकिन ये बिल्कुल अलग चीजें हैं. एफिकेसी सिर्फ पैमाना है, जो क्लीनिकल ट्रायल के दौरान बनाया जाता है. जबकि इफेक्टिवनेस का मतलब है कि पूरी दुनिया में वैक्सीन कैसा काम कर रही है.'
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