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एक ऐसी औरत जिसे ऑफ‍िस वाले नहीं दे रहे मां बनने की छुट्टी

एक ओर जहां प्रेग्नेंसी में साथ, देखभाल और अच्छे माहौल की दरकार होती है, वैसे में एक होने वाली मां को इस तरह टॉर्चर करना वाकई किसी अपराध से कम नहीं.

राधि‍का गुप्ता राधि‍का गुप्ता
भूमिका राय
  • नई दिल्ली,
  • 23 जुलाई 2016,
  • अपडेटेड 4:48 PM IST

कुछ समय पहले चीन के एक बैंक FINES ने एक रोटा निकाला था. ये रोटा कोई आम रोटा नहीं था. ये रोटा बैंक में काम करने वाली महिलाओं के लिए था. जिसमें उन्हें ये बताया गया था कि वो कब प्रेग्नेंट हो सकती हैं. उनके प्रेग्नेंट होने का महीना बैंक ने तय किया था. बैंक ने ये भी नोटिस जारी किया था कि अगर कोई महिला कर्मचारी उनके तय समय से पहले प्रेग्नेंट हो गई तो उसे हर्जाना देना होगा.

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जब ये खबर पढ़ी थी तो यही सोचा था कि ये सब चीन में ही होता होगा. भारत में कोई ऐसा नहीं कर सकता लेकिन ये सोच गलत थी. चीन के इस मामले से मिलता-जुलता एक मामला नोएडा का भी है. जहां एक मल्टीनेशनल कंपनी ने अपनी एकमात्र एचआर कर्मचारी को मैटरनिटी लीव देने से मना कर दिया. इतना ही नहीं उन पर दबाव बनाया कि या तो वो खुद रीजाइन कर दें वरना उन्हें टर्मिनेट कर दिया जाएगा.

एक ओर जहां प्रेग्नेंसी में साथ, देखभाल और अच्छे माहौल की दरकार होती है, वैसे में एक होने वाली मां को इस तरह टॉर्चर करना वाकई किसी अपराध से कम नहीं.


ये पूरा मामला नोएडा में रहने वाली राधिका गुप्ता का है. 28 साल की राधिका ने 2014 में रेडियस सिनर्जी इंटरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी बतौर असिस्टेंट मैनेजर ज्वाइन की थी. 2016 में उन्होंने फैमिली प्लान की लेकिन ऑफिस की जिम्मेदारियों से किनारा नहीं किया. 7 महीने की प्रेग्नेंट होने के बावजूद वो जून 2016 तक ऑफिस जाती रहीं. लेकिन जब उन्होंने अपनी कंपनी से मैटरनिटी लीव की बात कही तो कंपनी के रुख ने उन्हें परेशानी में डाल दिया.


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कंपनी ने मैट‍रनिटी लीव की बात पर तो कोई हामी नहीं भरी हां लेकिन उन्हें मेंटली टॉर्चर करना जरूर शुरू कर दिया. टॉर्चर इतना ज्यादा था कि उनकी तबियत बिगड़ गई. उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा जहां डॉक्टर ने उन्हें रेस्ट करने की सलाह दी. राधिका को मैटरनिटी लीव 1 सितंबर से चाहिए थी. पर तबियत खराब होने की वजह से उन्हें मेडिकल लीव लेनी पड़ी.

हालांकि उन्होंने कंपनी को ये आश्वासन भी दे रखा था कि वो उस दौरान भी घर से ही ऑफिस का काम देखती रहेंगी. बजाय उनके इस जिम्मेदाराना व्यवहार को सराहने के उनकी कंपनी ने उन्हें ही परेशान करना शुरू कर दिया.

राधिका कंपनी के एचआर डिपार्टमेंट का सारा काम अकेले संभालती थीं. यही वजह थी कि उन्होंने घर से मदद करने का वादा किया था. लेकिन कंपनी ने उन्हें साफ तौर पर कह दिया कि वो उन्हें मैटरनिटी लीव नहीं दे सकते. कंपनी ने न तो उन्हें मेडिकल लीव दी और मैट‍रनिटी लीव पर तो बात करना भी सही नहीं समझा. एक दिन कंपनी के आला अधिकारियों के साथ मीटिंग हुई और उन्हें दो टूक शब्दों में बोल दिया गया कि या तो वो खुद रीजाइन कर दें वरना उन्हें टर्मिनेट कर दिया जाएगा.


जब राधिका ने रीजाइन करने से मना कर दिया गया तो उन्हें टर्मिनेशन लेटर थमा दिया गया. इस लेटर ने राधिका को अंदर तक तोड़ दिया. जिस समय में उन्हें ज्यादा से ज्यादा खुश रहना चाहिए, उन्हें अपना भविष्य अंधकार में नजर आने लगा. दो साल तक एक कंपनी के लिए रात-दिन मेहनत करने के बाद कोई भी ऐसा ही महसूस करता. जबकि हमारे कानून के तहत गर्भावस्था के दौरान किसी भी महिला कर्मचारी को नौकरी से नहीं निकाला जा सकता.

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पर राधिका ने खुद को समेटा और एक नई लड़ाई के लिए उठ खड़ी हुईं. उन्होंने हर उस जगह अपनी आवाज पहुंचाई जहां से उन्हें मदद मिल सकती है. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में भी उन्होंने खत लिखा, जिस पर मेनका गांधी की ओर से उन्हें उचित कदम उठाए जाने का आश्वासन मिला है.

हमारे देश में महिलाओं के हितों के लिए कई तरह के कानून हैं. सरकारी कर्मचारियों के लिए तो पहले से ही 26 सप्ताह या छह महीने की मैटरनिटी लीव दी जाती है. वहीं निजी कंपनियां अधिकतम तीन महीने का अवकाश देती हैं. लेकिन मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट 1961 में बदलाव करके प्राइवेट कंपनियों को एक नए विधेयक के तहत अपनी महिला कर्मचारियों को 6 महीने की मैटरनिटी लीव देनी ही होगी. इस विधेयक को आने वाले सत्र में पेश करने की योजना है.

ऐसे में राधिका की लड़ाई मानवीय होने के साथ ही कानूनी भी है. साथ ही उनकी ये कहानी उन सभी महिलाओं के लिए भी एक सीख है जो परिस्थितियों से डरकर शांत हो जाती हैं और घुटने टेक देती हैं.

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