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गोरक्षा की अद्भुत मिसाल, जर्मन महिला जिसे 1000 बछड़ों की मां कहते हैं

एक तरफ जहां गोरक्षा के नाम पर हिंसा और राजनीति हो रही है. वहीं कुछ ऐसा भी जिसका पता लगना सुखद है. यह पता है 'हजार बछड़ों की मां' सुदेवी दासी का जो गोरक्षकों के लिए एक नजीर हैं. जर्मन महिला द्वारा संचालित इस गोशाला में 1200 से अधिक वृद्ध गाय, बैल और बछड़े हैं. ये जानवर या तो बीमार हैं या फिर किसी दुर्घटना में जख्मी हुए हैं. मथुरा में इस महिला को हजार गायों की मां के तौर पर जाना जाता है.

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विष्णु नारायण
  • मथुरा,
  • 19 सितंबर 2017,
  • अपडेटेड 1:10 PM IST

वैसे तो उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृंदावन में लोगों का गायों के प्रति प्रेम जगजाहिर है लेकिन किसी जर्मन महिला का गोसेवा को ही मिशन बना लेने की खबर सुखद एहसास तो कराता ही है. यदि आप मथुरा में गोवर्धन परिक्रमा करते हुए राधाकुंड से कोन्हई गांव की तरफ बढ़ते हैं तो कस्बाई बसावट से कुछ फर्लांग दूर हरी चादर जैसे धान के खेतों के बीच अचानक गाय-बछड़ों के रंभाने की आवाज कानों में पड़ती है. जैसे ही आप मुड़कर देखते हैं तो एक चारदीवारी पर पुराना सा फाटक दिखता है. उस पर धुंधले हो रहे अक्षरों में लिखा है- राधा सुरभि गोशाला. एक तरफ जहां गोरक्षा के नाम पर हिंसा और राजनीति हो रही है. वहीं कुछ ऐसा भी जिसका पता लगना सुखद है. यह पता है 'हजार बछड़ों की मां' सुदेवी दासी का जो गोरक्षकों के लिए एक नजीर हैं.

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इस गोशाला में 1200 से अधिक वृद्ध गाय, बैल और बछड़े हैं. ये जानवर या तो बीमार हैं या फिर किसी दुर्घटना में जख्मी हुए हैं. यहां कोई गाय चल नहीं पाती या फिर किसी को दिखाई नहीं देता. सुदेवी ने ऐसी ही गायों की नि:स्वार्थ सेवा के लिए खुद को समर्पित कर दिया है.

दो मार्च 1958 को जर्मनी के बर्लिन शहर में जन्मी सुदेवी दासी का मूल नाम फ्रेडरिक इरिन ब्रूनिंग है. आजतक ने जब उनसे बात की तो वह बहुत भावुक हो गईं. वह खुद के बारे में बताती हैं कि वो साल 1978-79 में बतौर पर्यटक भारत आईं थीं. तब वो महज 20 साल की थीं. वह थाईलैंड, सिंगापुर, इंडोनेशिया और नेपाल की सैर पर भी गईं लेकिन उनका मन ब्रज में आकर ही लगा. सुदेवी कहती हैं कि वह राधाकुंड में गुरु दीक्षा लेकर पूजा, जप और परिक्रमा करती रहीं.

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एक दिन उनके पड़ोसी ने कहा कि उन्हें गाय पालनी चाहिए. उन्होंने एक गाय पालने से शुरुआत की और धीरे-धीरे गाय पालने का क्रम गोसेवा मिशन में बदल गया. उनके पिता जर्मन सरकार में आला अधिकारी थे. उन्हें जब यह खबर मिली तो उन्होंने अपनी इकलौती संतान को समझाने के लिए अपनी पोस्टिंग दिल्ली स्थित जर्मन दूतावास में करा ली. पिता के लाख समझाने के बाद भी वह अपने निश्चय पर अड़ी रहीं.

आज भी हर दिन उनकी एंबुलेंस आठ से दस गायें लेकर आती है. जो या तो किसी दुर्घटना में घायल हुई होती हैं या वृद्ध और असहाय हैं. वह उनका उपचार किया करती हैं. हालांकि गोशाला चलायमान रखने की चुनौतियां भी कम नहीं हैं. वह गाय, बछड़ों को अपने बच्चों की तरह मानती हैं. अब तो दूसरी गोशालाओं ने भी बीमार और वृद्ध गायों को उनकी गोशाला में भेजना शुरू कर दिया है. गोशाला में अंधी और घायल गायों को अलग-अलग रखे जाने की व्यवस्था है.

वह उन्हें बिना किसी ना-नुकुर के उन्हें अपने पास रख लेती हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि यहां रहने से उनकी पीड़ा कुछ कम हो जाएगी. गोशाला में 60 लोग काम करते हैं. उनका परिवार भी गोशाला से ही चलता है. हर महीने गोशाला पर करीब 25 लाख रुपये खर्च होते हैं. यह धनराशि वह बर्लिन में अपनी पैतृक संपत्ति से मिलने वाले सालाना किराए और यहां से मिलने वाले दान से जुटाती हैं.

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