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'ममता बनर्जी सबसे बड़ी वामपंथी', साहित्य आजतक में बोले बंगाली लेखक मनोरंजन ब्यापारी

साहित्य आजतक में बंगाली लेखक और टीएमसी विधायक मनोरंजन ब्यापारी ने कई मुद्दों पर खुलकर अपनी बात रखी. कैसे 24 साल तक अनपढ़ रहने के बाद आज वह इतने बड़े लेखक बन गए, इस पर उन्होंने चर्चा की. इस दौरान उन्होंने बंगाल में वामपंथियों के घटते जनाधार पर भी बात की.

बंगाली लेखक और टीएमसी विधायक मनोरंजन ब्यापारी बंगाली लेखक और टीएमसी विधायक मनोरंजन ब्यापारी
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 18 नवंबर 2022,
  • अपडेटेड 7:19 PM IST

दो साल बाद फिर से आयोजित हो रहे साहित्य आजतक में बंगाली लेखक और टीएमसी विधायक मनोरंजन ब्यापारी ने कई मुद्दों पर खुलकर अपनी बात रखी. कैसे 24 साल तक अनपढ़ रहने के बाद आज वह इतने बड़े लेखक बन गए, इन सभी बातों को उन्होंने साहित्य आजतक के मंच पर साझा किया. अपनी किताब 'गन पाउडर इन द एयर' पर बातचीत करते हुए कहा कि हमने किताब नहीं, जीवन लिखा है. जो जीवन हमने जिया, जो अपने चारों ओर देखा, उसके बारे में सभी को बताने के लिए कहानियां व उपन्यास लिखे. 

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उन्होंने कहा कि जिन नक्सलियों पर इस पुस्तक को लिखा, उन सभी को हमने जेल में देखा. मैं पांच बार जेल काट चुका हूं. बंगाल की एक जेल में मैंने इन नकसलियों को देखा था. इन लोगों से मिलने के बाद नक्सलियों की सोच के बारे में मुझे थोड़ा-थोड़ा पता चला. जब मैं जेल गया तो मुझे नक्सलवाद के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी. लेकिन जेल में मुझे इन लोगों से मिलने के बाद इनकी राजनीति और देश के बारे में सोच की जानकारी मिली.

24 साल तक नहीं आता था पढ़ना-लिखना

उन्होंने बताया कि ये लोग हम सभी के जैसे दिखने वाले होते हैं, लेकिन ये लोग इतने खतरनाक काम में क्यों कूद पड़े, इसको मैंने उनसे पूछा और पता लगाया. तब मुझे लगा कि इन सभी जानकारियों को मुझे किताब में लिखना चाहिए. जब मैं 24 साल का था तो मुझे पढ़ना लिखना नहीं आता था. लेकिन जब मैं जेल में गया तो मेरी एक गुरुजी से मुलाकात हो गई. उन्होंने मुझे पढ़ना-लिखना सिखाया ताकि मैं बाहर आकर लेखक बनकर अपना गुजारा कर सकूं. बाहर आकर मुझे पसीना न बहाना पड़े. मैंने जेल का लेखक बनने के लिए पढ़ाई लिखाई शुरू की थी. ये नहीं पता था कि मैं बाहर का लेखक बन जाउंगा.

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'जिजीविषा' शब्द ने बदल दी जिंदगी

मनोरंजन ब्यापारी ने बताया कि जेल में हमें पुस्तक पढ़ने का नशा सा हो गया था, जो बाहर आकर छूटने वाला नहीं था. जेल से बाहर निकले तो एक कबाड़खाने में बैठकर हम पढ़ते थे. तब रिक्शा चलाते थे. एक फटे हुए पुस्तक में एक शब्द मिला था, 'जिजीविषा' जो हमने भी पहली बार सुना था. तब मैं सभी से पूछता था कि इसका मतलब क्या होता है. मेरे रिक्शे में एक बुजुर्ग बैठे तो उन्होंने मुझे बताया कि इसका मतलब होता है जीने की इच्छा. तब उन्होंने हमसे पूछा कि ये शब्द तुम्हें मिला कहां से. हमने बताया एक पुस्तक से मिला. उन्होंने मेरी पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछा तो मैंने बताया कि मैं कभी स्कूल नहीं गया. तब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने कौन-कौन सी पुस्तक पढ़ी हैं. तब मैंने 15-20 पुस्तक के नाम ले लिए, जिनमें 5-6 उन्हीं की लिखी हुई थी. तब उन्होंने कहा कि हमारी एक पत्रिका निकलती है, उसमें तेरे जैसे लोग लिखते हैं, क्या तू लिखेगा. लिखेगा तो मैं छाप दूंगा. तेरी आत्मकथा तू लिख और मैं छापूंगा. वहीं से मेरी शुरुआत हुई.

'हम बांग्लादेशी नहीं हैं'

उन्होंने कहा कि जब देश का बंटवारा हुआ तो पूर्वी बंगाल बना. हम वहां से आए हैं लेकिन जब हम देश के किसी भी हिस्से में बोलते हैं तो लोग हमें बांग्लादेशी बोलते हैं. हम बांग्लादेशी नहीं हैं. हम लोगों को सरकार से मदद मिलनी बंद हो गई. हम लोग भूखमरी की कगार पर आ गए. तब बहुत छोटे थे. मवेशियों को चराने लगे. चाय की दुकान में काम करने लगे और अन्य कामों में जुट गए. पिताजी की इच्छा थी पढ़ाने की लेकिन पैसा नहीं था तो पढ़-लिख नहीं पाए. छोटी उम्र में घर से भाग आए थे. पेटभर खाने की तलाश में बिना टिकट ट्रेन में सिलीगुड़ी पहुंचे. उस समय नक्सलबाड़ी का आंदोलन चल रहा था. वहां हमने देखा कि वहां हम जैसे लोग भूख के खिलाफ लड़ रहा है. हम फसल बोएंगे, धान काटेंगे और हम ही भूखे रहेंगे. ये कहां का कानून है. उसके खिलाफ इन लोगों ने जंग छेड़ दी थी. ये आंदोलन पूरे भारत में फैल गया था. 

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कैसे हुई राजनीति में एंट्री?

राजनीति में एंट्री पर उन्होंने बताया कि हम विश्वास करते हैं कि ये जो चुनावी प्रक्रिया है, इसके माध्यम से हम समाज को बदल नहीं सकते. फिर हम चुनाव में इसलिए आ गए कि जब विधानसभा चुनाव बंगाल में शुरू हुए तो तब वहां माहौल ऐसा हो गया था, हमारे घरों का बंटवारा हो गया. हमें इतने पुरस्कार मिले कि उससे इतने पैसे हो गए कि अपना एक मकान बना सकें. तो हमने अपना मकान बनाया. तब धमकियां मिल रही थीं कि गौरी लंकेश का भाई बना देंगे. तब हमारे घर का बंटवारा होने लगा था. तब हमने सोचा कि ऐसे लोगों के खिलाफ लड़ना पड़ेगा. हमने देखा कि टीएमसी की ममता बनर्जी इसके खिलाफ लड़ रही थीं. हम भी उनके साथ हो लिए और चुनाव लड़ लिए. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जन्मभूमि वाली सीट से हमने चुनाव जीता. 

'ममता बनर्जी वामपंथी होतीं तो...'

बंगाल में लेफ्ट और कम्युनिस्ट पार्टियों के घटते वर्चस्व के सवाल पर उन्होंने कहा कि ये कम्युनिस्ट और वामपंथी जैसे शब्द हमारे जहन में बैठ गया है. बोलने से कोई कम्युनिस्ट नहीं हो जाता. इसके लिए कुछ काम करना होता है. ममता बनर्जी को हम लोग सबसे बड़ा वामपंथी मान रहे हैं. भूख क्या चीज है, हम जानते हैं. कुत्ते के मुंह से रोटी छीनकर हमको खानी पड़ी थी. हमें ऐसा जीवन नहीं जीना पड़ता, अगर ममता बनर्जी जैसा कोई नेता वामपंथी हो जाता तो. हम भाजपा के खिलाफ नहीं है. हम मनोवाद, ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं. हमें कौन बोला कि तुम अछूत हो. जन्म के आधार पर हमें दबाना चाहते हैं. हमकों इंसान का दर्जा दो. अगर स्कूल का दरवाजा हम जैसे लोगों के लिए खोल दिया जाता, खाना दे दिया जाता तो हम कहां होते. ये इसलिए डरते हैं. इसलिए हम लोगों को दबाए रखने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए गए.

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'साहित्य आजतक' में आप भी ऐसे ले सकते हैं एंट्री 

दो साल बाद फिर से शुरु हुए साहित्य आज तक देश में भारतीय भाषा में आयोजित होने वाले किसी भी साहित्यिक आयोजन से बड़ा है. यह प्रत्येक साल अपने स्वरूप में और विराट होता जा रहा है. इस बार का यह आयोजन और ही भव्य हो रहा है. अगर आप भी इस आयोजन में शिरकत करना चाहते हैं तो आज ही आप आजतक की वेबसाइट Aajtak.in पर निशुल्क रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं. या 9310330033 पर मिस्ड कॉल देकर फ्री एंट्री पा सकते हैं.

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