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होली की श्रेष्ठ कविताएं: मैथिलीशरण गुप्त, निराला, बच्चन और नामवर सिंह की कविताओं में रंगोत्सव

साहित्य आजतक के पाठकों के लिए हिंदी साहित्य के दिग्गज साहित्यकारों द्वारा होली पर लिखी गई श्रेष्ठ कविताएं. पढ़ें और रूबरू हों मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंशराय बच्चन और नामवर सिंह की कविताओं में बिखरी रंगोत्सव की छटा से...

रंगोत्सवः प्रतीकात्मक इमेज [ सौजन्यः Wellcome Collections ] रंगोत्सवः प्रतीकात्मक इमेज [ सौजन्यः Wellcome Collections ]
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 21 मार्च 2019,
  • अपडेटेड 10:30 AM IST

हिंदी साहित्य में रंगोत्सव के बहुरंगी रंगों से अपने पाठकों को रूबरू कराने के लिए 'साहित्य आजतक' ने पहली कड़ी में आपको अमीर खुसरो, मीरा बाई, नज़ीर अकबराबादी और भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखी गई होली कविताओं से रूबरू कराया. इसी क्रम में अब आप आधुनिक हिंदी साहित्य के अन्य दिग्गजों मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', हरिवंशराय बच्चन और नामवर सिंह की कविताओं में शामिल रंगो से भीगिए.

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1.

होली

                  - मैथिलीशरण गुप्त

जो कुछ होनी थी, सब होली!

धूल उड़ी या रंग उड़ा है,

हाथ रही अब कोरी झोली।

आँखों में सरसों फूली है,

सजी टेसुओं की है टोली।

पीली पड़ी अपत, भारत-भू,

फिर भी नहीं तनिक तू डोली!

2.

केशर की कलि की पिचकारी

                                      - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

केशर की, कलि की पिचकारीः

पात-पात की गात सँवारी।

राग-पराग-कपोल किए हैं,

लाल-गुलाल अमोल लिए हैं

तरू-तरू के तन खोल दिए हैं,

आरती जोत-उदोत उतारी-

गन्ध-पवन की धूप धवारी।

गाए खग-कुल-कण्ठ गीत शत,

संग मृदंग तरंग-तीर-हत

भजन-मनोरंजन-रत अविरत,

राग-राग को फलित किया री-

विकल-अंग कल गगन विहारी ।

3.

होली

                      - हरिवंशराय बच्चन

यह मिट्टी की चतुराई है,

रूप अलग औ’ रंग अलग,

भाव, विचार, तरंग अलग हैं,

ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।

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होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर

और निकटतम भी जाओ,

रूढ़ि-रीति के और नीति के

शासन से मत घबराओ,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।

होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,

होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,

भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,

होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

4.

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है

देखी मैंने बहुत दिनों तक

दुनिया की रंगीनी,

किंतु रही कोरी की कोरी

मेरी चादर झीनी,

तन के तार छूए बहुतों ने

मन का तार न भीगा,

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

अंबर ने ओढ़ी है तन पर

चादर नीली-नीली,

हरित धरित्री के आँगन में

सरसों पीली-पीली,

सिंदूरी मंजरियों से है

अंबा शीश सजाए,

रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

5.

फागुनी शाम

                            - नामवर सिंह

फागुनी शाम

अंगूरी उजास

बतास में जंगली गंध का डूबना

ऐंठती पीर में

दूर, बराह-से

जंगलों के सुनसान का कूंथना।

बेघर बेपरवाह

दो राहियों का

नत शीश

न देखना, न पूछनाष

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शाल की पंक्तियों वाली

निचाट-सी राह में

घूमना घूमना घूमना।

- साहित्य आजतक की ओर से अपने सभी पाठकों को होली की हार्दिक बधाई!

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