जयंती विशेषः माखनलाल चतुर्वेदी; बदरिया थम-थमकर झर री और अन्य कविताएं

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की जयंती पर साहित्य आजतक के पाठकों के लिए उनकी चुनिंदा 5 कविताएं- बदरिया थम-थनकर झर री!, पुष्प की अभिलाषा, यह अमर निशानी किसकी है?, समय के समर्थ अश्व, कैसी है पहिचान तुम्हारी..

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प्रतीकात्मक इमेज- GettyImages प्रतीकात्मक इमेज- GettyImages

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 04 अप्रैल 2019,
  • अपडेटेड 6:56 PM IST

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी आधुनिक भारत के प्रखर राष्ट्रवादी लेखक, कवि व विलक्षण पत्रकार थे. उनका जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में बाबई नामक जगह पर हुआ था. उनकी भाषा सरल पर प्रभाव ओजपूर्ण है. उनकी 'पुष्प की अभिलाषा' नामक कविता 'चाह नहीं सुर बाला के गहनों में गूंथा जाऊं' जैसी पंक्तियां आज भी बच्चे-बच्चे की जबान पर है. प्रभा और कर्मवीर पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया. वह असहयोग आंदोलन में भी सक्रिय रहे और जेल भी गए.

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देशप्रेम के अलावा उनकी कविताओं में प्रकृति और प्रेम का भी चित्रण हुआ है. उनकी साहित्य सेवाओं को देखते हुए उन्हें 'हिम किरीटिनी' के लिए 'देव पुरस्कार', 'हिमतरंगिनी' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया गया. उनकी चर्चित रचनाओं में काव्य कृति; हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिणी, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, माता, वेणु लो गूंजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही, धूम्र वलय आदि गद्यात्मक कृतियों में कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पांव, अमीर इरादे: गरीब इरादे आदि शामिल हैं.

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की जयंती पर साहित्य आजतक के पाठकों के लिए उनकी चुनिंदा 5 कविताएं- बदरिया थम-थनकर झर री!, पुष्प की अभिलाषा, यह अमर निशानी किसकी है?, समय के समर्थ अश्व, कैसी है पहिचान तुम्हारी....

1.

बदरिया थम-थनकर झर री !

बदरिया थम-थनकर झर री !

सागर पर मत भरे अभागन

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गागर को भर री !

बदरिया थम-थमकर झर री !

एक-एक, दो-दो बूँदों में

बंधा सिन्धु का मेला,

सहस-सहस बन विहंस उठा है

यह बूँदों का रेला।

तू खोने से नहीं बावरी,

पाने से डर री !

बदरिया थम-थमकर झर री!

जग आये घनश्याम देख तो,

देख गगन पर आगी,

तूने बूंद, नींद खितिहर ने

साथ-साथ ही त्यागी।

रही कजलियों की कोमलता

झंझा को बर री !

बदरिया थम-थमकर झर री !

2.

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं, मैं सुरबाला के

गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध

प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं सम्राटों के शव पर

हे हरि डाला जाऊँ,

चाह नहीं देवों के सिर पर

चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,

मुझे तोड़ लेना बनमाली,

उस पथ पर देना तुम फेंक!

मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,

जिस पथ पर जावें वीर अनेक!

3.

यह अमर निशानी किसकी है?

यह अमर निशानी किसकी है?

बाहर से जी, जी से बाहर-

तक, आनी-जानी किसकी है?

दिल से, आँखों से, गालों तक-

यह तरल कहानी किसकी है?

यह अमर निशानी किसकी है?

रोते-रोते भी आँखें मुँद-

जाएँ, सूरत दिख जाती है,

मेरे आँसू में मुसक मिलाने

की नादानी किसकी है?

यह अमर निशानी किसकी है?

सूखी अस्थि, रक्त भी सूखा

सूखे दृग के झरने

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तो भी जीवन हरा ! कहो

मधु भरी जवानी किसकी है?

यह अमर निशानी किसकी है?

रैन अँधेरी, बीहड़ पथ है,

यादें थकीं अकेली,

आँखें मूँदें जाती हैं

चरणों की बानी किसकी है?

यह अमर निशानी किसकी है?

आँखें झुकीं पसीना उतरा,

सूझे ओर न ओर न छोर,

तो भी बढ़ूँ, खून में यह

दमदार रवानी किसकी है?

यह अमर निशानी किसकी है?

मैंने कितनी धुन से साजे

मीठे सभी इरादे

किन्तु सभी गल गए, कि

आँखें पानी-पानी किसकी है?

यह अमर निशानी किसकी है?

जी पर, सिंहासन पर,

सूली पर, जिसके संकेत चढ़ूँ

आँखों में चुभती-भाती

सूरत मस्तानी किसकी है?

यह अमर निशानी किसकी है?

4.

समय के समर्थ अश्व

समय के समर्थ अश्व मान लो

आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।

छोड़ दो पहाड़ियाँ, उजाड़ियाँ

तुम उठो कि गाँव-गाँव ही चलो।।

रूप फूल का कि रंग पत्र का

बढ़ चले कि धूप-छाँव ही चलो।।

समय के समर्थ उश्व मान लो

आज बन्धु! चार पाँव ही चलो।।

वह खगोल के निराश स्वप्न-सा

तीर आज आर-पार हो गया

आँधियों भरे अ-नाथ बोल तो

आज प्यार! क्यों उदार हो गया?

इस मनुष्य का ज़रा मज़ा चखो

किन्तु यार एक दाँव ही चलो।।

समय के समर्थ अश्व मान लो

आज बन्धु ! चार पाँव ही चलो।।

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5.

कैसी है पहिचान तुम्हारी

कैसी है पहिचान तुम्हारी

राह भूलने पर मिलते हो !

पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने

विविध धुनों में कितना गाया

दायें-बायें, ऊपर-नीचे

दूर-पास तुमको कब पाया

धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही

तुम खिलते हो तो खिलते हो।

कैसी है पहिचान तुम्हारी

राह भूलने पर मिलते हो!!

किरणों प्रकट हुए, सूरज के

सौ रहस्य तुम खोल उठे से

किन्तु अँतड़ियों में गरीब की

कुम्हलाये स्वर बोल उठे से !

काँच-कलेजे में भी कस्र्णा-

के डोरे ही से खिलते हो।

कैसी है पहिचान तुम्हारी

राह भूलने पर मिलते हो।।

प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा

मनमोहिनी धरा के बल हैं

दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब

तेरी ही छाया के छल हैं।

प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये

जो बलि के फूलों खिलते हो।

कैसी है पहिचान तुम्हारी

राह भूलने पर मिलते हो।।

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