
शहीद-ए-आजम भगत सिंह एक ऐसे समय जी रहे थे, जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम जोर पकड़ने लगा था और जब महात्मा गांधी का अहिंसात्मक, आंशिक स्वतंत्रता का शांत विरोध लोगों के धैर्य की परीक्षा ले रहा था. हथियार उठाने की भगत सिंह की अपील युवाओं को प्रेरित कर रही थी और उनके साथ ही हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की सैन्य शाखा के कॉमरेड मिलकर सुखदेव और राजगुरु की ललकार तथा दिलेरी उनमें जोश भर रही थी. 'इनकलाब जिंदाबाद!' का जो नारा उन्होंने दिया था, वह स्वतंत्रता की लड़ाई का जयघोष बन गया. इस बीच लाहौर षड्यंत्र केस में भगत सिंह के शामिल होने को लेकर मुकदमे का ढोंग चला और तेईस वर्ष की उम्र में अंग्रेजों ने भगत सिंह को फांसी दे दी. पर नतीजा यह हुआ कि भारतीयों ने भगत सिंह की शहादत को उनकी जवानी, वीरता, और निश्चित मृत्यु के सामने अदम्य साहस के लिए पूजना शुरू कर दिया. इसके कई वर्षों बाद, 1947 में स्वतंत्रता मिलने पर, जेल में उनके लिखे लेख सामने आए. आज, इन लेखों के कारण ही भगत सिंह ऐसे कई क्रांतिकारियों से अलग दिखते हैं, जिन्होंने अपना जीवन भारत के लिए बलिदान कर दिया.
विख्यात पत्रकार, लेखक, राजनयिक और राजनीतिज्ञ कुलदीप नैयर ने एक पुस्तक लिखी Without Fear: The Life & Trial of Bhagat Singh. पं गोविंद बल्लभ पंत और लाल बहादुर शास्त्री के प्रेस सूचना अधिकारी, इंग्लैंड में भारत के उच्चायुक्त, राज्यसभा के सदस्य और यूएनआई, पीआईबी जैसी समाचार एजेंसियों सहित 'द स्टेट्समैन' और 'द इंडियन एक्सप्रेस' जैसे अखबारों में में बड़े पदों पर रहे नैयर ने कई किताबें लिखीं. वे लगभग पच्चीस वर्षों तक लंदन में 'द टाइम्स' के संवाददाता भी रहे. उनकी लोकप्रिय पुस्तकों में 'स्कूप इनसाइड स्टोरीज फ्रॉम पार्टिशन टू प्रेजेंट', 'बिटवीन द लाइंस', 'डिस्टैंट नेबर्स: अ टेल ऑफ द सबकंटिनेंट', 'इंडिया आफ्टर नेहरू' और 'इंडिया हाउस' शामिल है. अब उसी पुस्तक का हिंदी अनुवाद आनंद कुमार राय ने किया है, जिसे प्रभात प्रकाशन ने 'भगत सिंह की फांसी का सच' नाम से छापा है. हिंदी पुस्तक में सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह पर ट्रिब्यूनल की काररवाई वाला अध्याय भी शामिल है. ऐसे समय में जब देश जश्न-ए-आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा, तब साहित्य आजतक अगले कुछ समय तक लगातार ऐसी किताबों और नायकों पर लिखी पुस्तकों के अंश के साथ आपसे रूबरू हो रहा, जिनसे यह राष्ट्र बना. इसी क्रम में आज पढ़िए
कुलदीप नैयर ने क्यों लिखी 'भगत सिंह की फांसी का सच', पुस्तक की भूमिका में बताया
जहां कभी भगत सिंह की काल कोठरी 'फांसी की कोठी' हुआ करती थी, ठीक उसी जगह पर एक सजीली मसजिद की मीनार खड़ी है; लेकिन जिस स्थान पर भगत सिंह और उनके दो कॉमरेडों-सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी, वहां गुंबद नहीं, धातु की पट्टी नहीं, यहां तक कि एक पत्थर तक नहीं लगा है.
23 मार्च, 1931 को जिस लाहौर सेंट्रल जेल में उन तीन क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी, आज वह बरबादी के कगार पर है. जिन कोठरियों में वे तीनों शहीद रहा करते थे, वे ढह रही हैं. जिस मचान पर उन्हें फांसी दी गई थी, वहां एक ट्रैफिक गोलंबर है. उसके चारों ओर से गाड़ियां उसी अफरा-तफरी में गुजरती हैं, जिस तरह लाहौर के दूसरे हिस्सों में दौड़ती-भागती हैं. उस चौराहे के चारों ओर शोरगुल, धुआं और गर्दो-गुबार उड़ता रहता है. मसजिद-जेल के खँडहर के बीच की सड़क मानसिक रोगियों के अस्पताल के दरवाजे तक जाती है. ऐसा लगता है, जैसे सरकार उसकी किसी भी निशानी को बचने नहीं देना चाहती है. विडंबना देखिए कि सत्ताधारियों ने उसके आसपास बनी कॉलोनी को 'शादमान', यानी 'खुशियों का बसेरा' नाम दिया है.
एक बार पाकिस्तान के दौरे पर मैंने शादमान के निवासियों से पूछा कि क्या वे जानते हैं, भगत सिंह कौन थे? उनमें से कई ने इस नाम को सुना तक नहीं था. कुछ एक को उनके कैद में रहने और फांसी दिए जाने की थोड़ी-बहुत जानकारी थी. पचास साल के करीब की उम्र के शख्स ने बताया, 'हम जब यहां आए, तब केवल पुलिस के क्वार्टर थे, जिन्हें कॉलोनी के फैलने के बाद गिरा दिया गया.' लेकिन उस गोल चक्कर को लेकर एक कहानी है, जिसे करीब तीन दशक पहले सन् 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के बाद कई बार कहा और सुना गया है. यह वही जगह है, जहां पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के तत्कालीन सदस्य अहमद रजा कसूरी के पिता मोहम्मद अहमद खान को गोली मारी गई थी. ऐसा कहा जाता है कि भुट्टो ने ही उनकी हत्या का फरमान जारी किया था. जब बंदूकों से गोलियां निकलीं, उस वक्त कसूरी गोल चक्कर के करीब आ रहे थे. उनकी कार में उनके साथ बैठे उनके पिता जानलेवा तौर पर घायल हो गए. कसूरी के दादा ड्यटी पर तैनात उन अधिकारियों में से एक थे, जिन्हें तीनों क्रांतिकारियों के शवों की औपचारिक पहचान के लिए बुलाया गया था. उस जमाने के लोगों का मानना है कि नियति ने कसूरी परिवार का पीछा नहीं छोड़ा, जब उसी जगह पर मोहम्मद अहमद खान की हत्या हुई.
'80 के दशक में लाहौर में विश्व पंजाबी सम्मेलन हुआ था. जिस सभागार में सम्मेलन हुआ था, उसकी दीवारों पर केवल एक ही तसवीर थी- भगत सिंह की तसवीर. मैंने आयोजकों से पूछा कि मशहूर उर्दू शायर और पाकिस्तान नाम के देश का सपना सबसे पहले देखनेवाले मोहम्मद इकबाल जैसे पंजाबी स्वतंत्रता सेनानी को अनदेखा कर उन्होंने भगत सिंह को सम्मानित करने का फैसला क्यों किया? उनका जवाब था, "सिर्फ एक पंजाबी ने देश की स्वतंत्रता के लिए अपनी कुरबानी दी और वे थे भगत सिंह."
पाकिस्तान के अपने दौरे के कुछ ही दिनों बाद मुझे दक्षिण भारत के शहरों में घूमने का मौका मिला. मैं दक्षिण के कई शहरों में भगत सिंह की मूर्ति देखकर हैरान था और दिल्ली लौटने पर मैंने उन पर एक लेख लिखा. उसके कुछ ही समय बाद मुझे हरजिंदर सिंह और सुखजिंदर सिंह की चिट्ठी मिली. इन दोनों को पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल ए.एस. वैद्य की पुणे में हत्या करने के आरोप में मौत की सजा सुनाई गई थी. उन्होंने जो कुछ लिखा, उसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने मेरे निर्णय पर सवाल उठाया. उन्होंने पूछा कि मैंने भगत सिंह को 'क्रांतिकारी' क्यों कहा, जबकि उन्हें 'आतंकवादी' बताकर उनकी निंदा की थी. उनका कहना था कि वे भी एक मकसद के लिए लड़े. भगत सिंह ने एक अंग्रेज पुलिस अधिकारी के हाथों शहीद होनेवाले शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था; जबकि उन दोनों ने सन् 1984 में सिखों के पवित्र धर्मस्थल स्वर्ण मंदिर पर हमले की योजना बनानेवाले वैद्य से हिसाब बराबर किया था.
मुझे इस बात का अंदेशा हुआ कि कहीं सारे उग्रवादी अपनी तुलना भगत सिंह से न करने लग जाएं, इसलिए मैंने उनके जीवन और दर्शन को बताने तथा यह समझाने का फैसला किया कि एक आतंकवादी और एक क्रांतिकारी के बीच क्या फर्क होता है. एक क्रांतिकारी के लिए हत्या का मतलब क्या होता है? भगत सिंह ने इसे अपने ही शब्दों में समझाया था-
"हम मनुष्य के जीवन को काफी पवित्र मानते हैं. हम मनुष्य के जीवन को पावन समझते हैं...किसी को घायल करने की बजाय आज नहीं तो कल, हम अपने प्राणों और सेवा को मानवता पर न्योछावर कर देंगे."
भगत सिंह के मन में न विद्वेष था, न बदले की भावना थी-
"ऐसी काररवाइयों (हत्याओं) का वहीं तक राजनीतिक महत्त्व होता है, जहां तक वे एक मानसिकता और एक माहौल बनाने में सहायक होती हैं, जो आखिरी संघर्ष के लिए निहायत जरूरी हो जाता है, बस."
एक क्रांतिकारी किसी भी स्थापित सरकार या राजनीतिक व्यवस्था के पूरी तरह से तख्तापलट में यकीन रखता है, जो अपने लोगों को आर्थिक समानता नहीं देती है. उसकी योजना में नागरिकों को आर्थिक सत्ता के अभाव के विपरीत सशक्त करना और व्यक्तिगत सम्मान देना शामिल रहता है. दूसरी तरफ, एक आतंकवादी किसी विशेष व्यक्ति के विरुद्ध व्यक्तिगत बदले की भावना से प्रेरित रहता है, जो शासकों के हाथों का महज एक खिलौना होता है. इसलिए एक जहां नफरत से परे होता है, वहीं दूसरा इसका शिकार होता है.
इस पुस्तक के लिए शोध करना बेहद मुश्किल काम था. सात वर्षों से भी अधिक समय तक छिट-पुट काम चलता रहा. भगत सिंह के जीवन और समय पर सामग्री के लिए आर्काइव्स ऑफ पाकिस्तान सबसे अच्छा और समग्र स्रोत है; लेकिन यहां भारतीय नहीं जा सकते. नई दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच ऐसा कोई समझौता नहीं, जो दोनों देशों के नागरिकों को एक-दूसरे के अभिलेखागारों में जाने की इजाजत देता है. मैंने एक मित्र के जरिए पाकिस्तान सरकार से संपर्क साधा. मेरी गुजारिश को खारिज करने के लिए एक कमजोर सा बहाना ढूँढ़ा गया. उनका कहना था कि उन्हें सिख समस्या में फँस जाने का डर है. मुझे पचास साल पहले सन् 1931 में दी गई फांसी और सिख समस्या के बीच संबंध की बात समझ नहीं आई, सिवाय इसके कि भगत सिंह एक सिख थे.
लंदन स्थित इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में भगत सिंह पर वास्तव में कुछ भी नहीं है. वैसे भी, उस लाइब्रेरी ने पूरे ब्रिटेन की अलग-अलग लाइब्रेरियों को अपनी किताबें, रिपोर्ट्स और दस्तावेज बांट दिए हैं. ऐसा इस वजह से किया गया है, ताकि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तथा ग्रेट ब्रिटेन के दूसरे उपनिवेश उन चीजों पर दावा न कर सकें, जिस पर वास्तव में उनका हक था. उपमहाद्वीप के बँटवारे के बाद भारत और पाकिस्तान उस लाइब्रेरी के बँटवारे के फॉर्मूले पर राजी नहीं हो सके, जिस कारण ब्रिटेन को उसे पूरी तरह से हड़प लेने का बहाना मिल गया.
तीनों क्रांतिकारियों को सुनाई गई मौत की सजा के खिलाफ लंदन की प्रिवी काउंसिल में की गई अपील पर थोड़ी जानकारी है. यह सामग्री हमारे अभिलेखागारों में भी है. मेरा मानना है कि महत्त्वपूर्ण फाइलों को नष्ट कर दिया गया या अपने पास रख लिया गया. मुझे पूरा यकीन है कि क्रांतिकारियों की पौध को कुचलने के लिए भगत सिंह और उनके दो साथियों को फांसी पर लटकाने के लिए ब्रिटिश सरकार मन बना चुकी थी और इसका संकेत देनेवाले टेलीग्राम एवं ऐसे दस्तावेज, जो अब तक सामने नहीं आए हैं, वे कहीं-न-कहीं जरूर पड़े होंगे.
भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों को फ्रांस की क्रांति, अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा और रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रेरणा मिली थी. सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष, पीड़ित जातियों के जागरण और सामाजिक उत्पीड़न तथा असमानता के विरुद्ध किसानों व मजदूरों का विद्रोह स्वतंत्रता संग्राम के अभिन्न अंग बन गए. अपने शोध के दौरान मुझे पता चला कि भगत सिंह ने जेल में चार किताबें लिखी थीं- 'द हिस्ट्री ऑफ द रिवॉल्यूशनरी मूवमेंट इन इंडिया', 'दि आइडियल ऑफ सोशलिज्म', 'ऑटोबायोग्राफी' और 'ऐट द डोर ऑफ डेथ'. मैंने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा. मुझे बताया गया कि जिन पांडुलिपियों को भगत सिंह की फांसी से पहले चोरी-छिपे जेल से बाहर लाया गया था और क्रांतिकारियों ने अपने पास रखा था, उन्हें '40 के दशक के दौरान कुमारी लाज्यवंती को सौंपा गया था, जो आगे चलकर केंद्रीय महाविद्यालय, जालंधर की प्रिंसिपल बनीं. लाज्यवंती अब इस दुनिया में नहीं हैं. बताया जाता है कि उन्होंने बँटवारे से ठीक पहले भारत भिजवाने के लिए लाहौर में किसी को उन पांडुलिपियों को सौंपा था. ऐसा कहा जाता है कि किसी व्यक्ति ने, जिसकी पहचान नहीं हो सकी है, उसने उन्हें बताया कि अगस्त 1947 में भारत जाने के दौरान दहशत के चलते उसने सारी पांडुलिपियों को जला दिया था. इस कहानी पर विश्वास नहीं होता. आज भी मेरा मानना है कि किसी दिन सारी पांडुलिपियां सामने आ जाएंगी.
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अपनी किताब के लिए सामग्री जुटाने के दौरान मैंने पहला काम किया कि भगत सिंह के भाइयों का पता लगाया. दुर्भाग्य से, मैं कुलबीर सिंह से मिल पाता, उससे पहले ही वे चल बसे. उनके छोटे भाई कुलतार सिंह यूपी के सहारनपुर में रहते थे. भगत सिंह से आखिरी मुलाकात की उनकी यादें कलेजे को चीर देनेवाली और यादों को ताजा कर देनेवाली थीं. मुझे पता चला कि भगत सिंह के परिवार के दूसरे लोगों में भी राष्ट्रवाद की आग थी. जब भगत सिंह का जन्म हुआ था, तब उनके चाचा अजीत सिंह बर्मा में लाजपत राय के साथवाली जेल की कोठरी में थे, जबकि उनके दादा कांग्रेस पार्टी को खुलकर योगदान दे रहे थे.
दिसंबर 1992 में मैंने मथुरा दास थापर को ढूँढ़ा, जो सुखदेव के छोटे भाई थे. मैंने उसी महीने उन्हें एक चिट्ठी लिखी. थापर ने मार्च 1993 में मेरी चिट्ठी का जवाब दिया. उनकी कहानी दिल को छू लेनेवाली थी. उन्होंने कहा कि 'सुखदेव का सगे भाई होने के चलते पंजाब पुलिस लगातार मेरे लिए मुसीबत पैदा करती रहती थी.' जिसके कारण उन्हें लायलपुर (आज का फैसलाबाद) छोड़ना पड़ा.
उस वक्त बयासी साल के हो चुके मथुरा दास थापर के मन में काफी कड़वाहट थी. मेरी चिट्ठी के जवाब में उन्होंने कहा-
"मुझे खुलकर इस बात को कहने में परहेज नहीं कि डॉ. किचलू के बेटे जैसे दूसरे राजनीतिक पीड़ितों को हर महीने रुपए 5,000 और एक फ्लैट मुफ्त में मिला. डॉ. किचलू के बेटे से हमारे कुनबे के बलिदान की तुलना कर लीजिए."
उन्होंने मेरा ध्यान 'लाहौर षड्यंत्र केस की काररवाई पुस्तिका' की एक प्रति की ओर दिलाया, जिसे वे पाकिस्तान से लेकर आए थे और नई दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में जमा करा दिया था. इस प्रति के हाशिए पर सुखदेव के हाथों से लिखी टिप्पणियां थीं, जिन्हें फांसी दिए जाने से पहले इसे पढ़ने की इजाजत मिली थी. पाकिस्तान के पास काररवाई का उर्दू भाषा में लिखा मूल लेख है, जिसे मैंने पढ़ा है.
थापर की जो चिट्ठी मैंने अपने पास रखी, वह इस टिप्पणी के साथ समाप्त होती है- "असाधारण ऐतिहासिक महत्त्व की उत्कृष्ट रचना के लेखन में उपयोग किए जाने की आशा है." इससे पहले कि हम मिल पाते, उनकी भी मृत्यु हो गई. पता नहीं, वे इस पुस्तक के बारे में क्या सोचते. मेरी रचना उत्कृष्ट तो नहीं, लेकिन मैंने भगत सिंह को उस रूप में प्रस्तुत करने का यथासंभव प्रयास किया है, जिस रूप में वे जिए, जैसे उनके विचार थे और जिस प्रकार उनकी मृत्यु हुई.
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मैंने मथुरा दास थापर और हंस राज वोहरा के बीच के पत्राचार को एक निजी संग्रह में पढ़ा. हंस राज वोहरा बाद में लाहौर षड्यंत्र केस में सरकारी गवाह बन गए. वह पत्राचार और विशेष रूप से वोहरा की चिट्ठी, जिसमें उन्होंने सरकारी गवाह बनने के फैसले पर सफाई दी है और उस चिट्ठी पर थापर का जवाब इस पुस्तक का उपसंहार है.
इसके साथ ही, कुलतार सिंह के जरिए मुझे पता चला कि उन दिनों के एक प्रमुख क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गा देवी अपने बेटे के साथ गाजियाबाद में रहती थीं. वैसे वे भूल जाने की बीमारी से पीड़ित थीं, लेकिन डिप्टी सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस जे.पी. सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह के लाहौर से भागने की कहानी को फिर से जोड़ने में उनसे काफी मदद मिली. इसमें उनकी भी एक बड़ी भूमिका थी. कुछ साल पहले उनकी भी मृत्यु हो गई.
भगत सिंह पर लिखी गई कई किताबों और उनके अपने लेखों से मुझे उनकी कहानी तथा उनके जीवन-दर्शन को बताने में मदद मिली. ऐसे शब्द, जो उनके हवाले से कहे गए हैं, उन्हें उनकी चिट्ठियों, बयानों और भाषणों से निकाला गया है. मैंने तथ्यों से कहीं कोई छेड़छाड़ नहीं की है.
उस जमाने के पुलिस रिकॉर्ड से मुझे पता चला कि क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए अंग्रेज किस तरह के तौर-तरीके अपनाते थे. हमारे अभिलेखागारों में बड़ी मुश्किल से बची थोड़ी-बहुत खुफिया रिपोर्ट से भी मुझे मदद मिली. अमिय के. सामंत का 'टेररिज्म इन बंगाल' सूचना का भंडार है, जो दस्तावेजों का छह खंडों का एक संग्रह है, जिसे पश्चिम बंगाल सरकार ने जारी किया. मैंने इस संग्रह में से कुछ सूचनाओं का उपयोग किया है.
महात्मा गांधी के कई लेख क्रांतिकारियों के प्रति उनके रुख को स्पष्ट करते हैं. उन्होंने उनके साहस की प्रशंसा की, लेकिन उनके द्वारा बंदूकों और बमों के प्रयोग से वे सहमत नहीं थे. उन्हें उनके संकल्प पर संदेह नहीं था; लेकिन वे इस बात को मान चुके थे कि ताकत के बल पर भारत को अंग्रेजी हुकूमत के चंगुल से आजाद नहीं कराया जा सकता है. अपने सोच के लिहाज से गांधी और भगत सिंह एक-दूसरे के विपरीत छोर पर खड़े थे. भगत सिंह हिंसा में यकीन करते थे और आजादी पाने के लिए उसके इस्तेमाल में उन्हें जरा भी परहेज नहीं था. दूसरी तरफ, गांधीजी जीवन भर अहिंसा के प्रति समर्पित रहे और किसी दूसरे तरीके पर विचार तक नहीं किया.
डॉ. पट्टाभि सीतारामैया ने अपनी पुस्तक 'हिस्टरी ऑफ दि इंडियन नेशनल कांग्रेस' में लिखा कि "गांधी और भगत सिंह समान रूप से लोकप्रिय थे- एक सत्य के साथ अपने प्रयोगों के कारण तो दूसरे साहस पर अपने लेखों की वजह से." ऐसा लिखना भगत सिंह की उल्लेखनीय उपलब्धि के प्रति एक श्रद्धांजलि थी. भगत सिंह जब पहली बार गांधी से मिले तो उनकी उम्र इक्कीस वर्ष थी, जबकि गांधी उनसठ वर्ष के थे.
मैंने उन दिनों के अखबारों को पढ़ा है. मैंने ऐसे कुछ लोगों से भी बात की, जो भगत सिंह को जानते थे. ऐसे लोग अब ज्यादा नहीं हैं. मेरे मुख्य स्रोत एक मित्र थे- वीरेंद्र, जो जालंधर में 'प्रताप' के संपादक थे. कुछ साल पहले उनकी मृत्यु हो गई. जब भगत सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चल रहा था, तब वे लाहौर सेंट्रल जेल में थे. वीरेंद्र भी संदिग्धों में शामिल थे, लेकिन उनके खिलाफ कुछ भी पुख्ता नहीं मिला. जेल में कुछ समय रखने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया.
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'मैं नास्तिक क्यों हूं' में भगत सिंह ने लिखा थाः
मैं एक मकसद के लिए अपने प्राण न्योछावर कर रहा हूं. इससे अधिक संतोष की बात क्या होगी? भगवान् को माननेवाले किसी हिंदू की एक राजा के रूप में फिर से जन्म लेने की इच्छा हो सकती है; एक मुसलिम या ईसाई अपने कष्ट और त्याग के बदले स्वर्ग में इनाम के रूप में ऐशो-आराम के सपने देख सकता है. मेरे अरमान कैसे होने चाहिए? मैं जानता हूं कि जब मेरे पैरों तले का तख्ता खींचा जाएगा और गले में फांसी का फंदा कसेगा तो मेरी मृत्यु हो जाएगी. धार्मिक शब्दों में इसे कहूं तो मेरे लिए वह पूर्ण विनाश की घड़ी होगी. मेरी आत्मा शेष नहीं रहेगी. यदि मैं इसे 'इनाम' की दृष्टि से देखूँ तो मुझे लगता है कि संघर्ष के इतने संक्षिप्त जीवन में इस प्रकार की शानदार मौत से बड़ा 'इनाम' मेरे लिए कुछ और हो नहीं सकता. बस, यही सबकुछ है. यहां-वहां पुरस्कृत किए जाने का मन में न कोई स्वार्थ है, न इच्छा. पूर्ण विरक्ति से मैंने स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं इसके सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकता था.
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पुस्तकः भगत सिंह की फांसी का सच
लेखकः कुलदीप नैयर
अनुवाद: आनंद कुमार राय
भाषाः हिंदी
विधाः जीवनी
प्रकाशकः प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ संख्याः 288
मूल्यः 300 रुपए