
कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में,
बहुत अहले-सुखन उट्ठे बहुत अहले-कलाम आये!
अली सरदार जाफरी का यह कलाम उनके अंदर के साहित्यकार का दर्प भी है और उनकी खुद मुख्तारी का कुबूलनामा भी. साल 1913 में 29 नवंबर को उत्तर प्रदेश के गोंडा ज़िले के बलरामपुर में उनका जन्म हुआ था. उन्होंने हाईस्कूल तक की शिक्षा वहीं ली और आगे की पढा़ई के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय चले आए. यहां उन्हें उस समय के मशहूर और उभरते हुए शायरों की संगत मिली. अख़्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, मुईन अहसन जज़्बी, असरार-उल-हक़ मजाज़, जांनिसार अख़्तर और ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे अदीब इनमें शामिल थे.
यह वह दौर था जब देश गुलाम था और अंग्रेज़ों के खिलाफ आजादी आंदोलन की नींव काफी पहले पड़ चुकी थी. नौजवानों पर आजादी आंदोलन का जुनून तारी था. अली सरदार जाफरी भी उन्हीं में शुमार थे. नतीजा यह निकला कि ऐसे ही एक आंदोलन के दौरान वॉयसराय के एक्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों के विरुद्ध हड़ताल के अपराध में सरदार को यूनिवर्सिटी से बेदखल कर दिया गया. पर सरदार तो सरदार थे. उन्होंने एंग्लो-अरेबिक कालेज दिल्ली से बीए पास किया और लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल की. इस दौरान छात्र-आंदोलनों में भाग लेने का उनका जज़्बा कम नहीं हुआ.
अली सरदार जाफरी ने आजादी आंदोलन और उसके बाद भी जेल यात्राएं कीं, जहां उनकी मुलाकात प्रगतिशील लेखक संघ के खुर्राट साथियों से हुई, जिनमें सज्जाद ज़हीर भी शामिल थे. उन्हीं के प्रभाव में सरदार ने व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव लेनिन व कार्ल हेनरिख मार्क्स को पढ़ा. यहीं से उनके चिंतन और मार्गदर्शन को मार्क्सवाद, साम्यवाद की ठोस ज़मीन मिली. अपनी साम्यवादी विचारधारा के चलते वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए. इस दौरान उन्होंने प्रेमचन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़', मुल्कराज आनंद जैसे भारतीय साहित्यकारों सहित पाब्लो नेरूदा व लुईअरांगा जैसे विदेशी चिंतकों के विचारोंको न केवल पढ़ा, बल्कि उनके विचारों, साहित्य को जान-समझ जो सीखा, उसे अपनाया भी. उस दौर के काबिल और बेहतरीन आलिमों की संगत का असर यह हुआ कि अली सरदार जाफरी एक ऐसे शायर के रूप में उभरें जिनकी शायरी मेहनतकशों के दुख-दर्द का आईना थी.
जाफरी का साहित्यिक सफर 1938 में 'मंजिल' नामक लघु कथा संग्रह के प्रकाशन से शुरू हुआ. पर इससे पहले ही 1936 में वह लखनऊ में प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता कर चुके थे. 1939 में वह प्रगतिशील राइटर्स आंदोलन के साहित्यिक जर्नल ‘नयाअदब’ के सह-संपादक बने, जो 1949 तक प्रकाशित हुआ. उन्होंने ग्यारह काव्य-संग्रह, चार गद्य संग्रह, दो कहानी संग्रह और एक नाटक के अलावा खूब सारे पद्य एवं गद्य लिखे और अपने दौर की साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लिखते रहे. उनका पहला कविता संग्रह 'परवाज' 1944 में छपा. वह कई सामाजिक, सियासी और साहित्यिक आंदोलनों में लगातार शामिल रहे. अपनी इन गतिविधियों के चलते उन्हें देश की आजादी के बाद भी कई बार जेल भेजा गया. 20 जनवरी, 1949 को उन्हें तब के बंबई और अब के महाराष्ट्र राज्य के भिवंडी में मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई से चेतावनी के बावजूद प्रगतिशील उर्दू लेखकों के सम्मेलन के आयोजन के लिए गिरफ्तार किया गया. यह संगठन तब प्रतिबंधित था. तीन महीने बाद जब वह छूटे तो उन्हें दोबारा धर लिया गया.
इस समूचे दौर में अली सरदार जाफ़री ने नए शब्दों और विचारों के साथ कई तरह की रचनाएं कीं. उनकी ख्याति एक ऐसे शायर के रूप में रही है, जिसने उर्दू शायरी में छंद-मुक्त कविता की परंपरा शुरू की. उर्दू में होते हुए भी वह हिंदवी के करीब थे. उनकी शायरी की भाषा इतनी सरल है कि उसके अर्थ अपने भाव के साथ झलकते हैं. उन्होंने बोझिल बौद्धिक भाषाई प्रयोग की जगह सहज समझ में आने वाली शायरी की, जो ईरानी अंदाज और शब्दों के असर से अलग अपने मुल्क की खुशबू लिए, उसकी जरूरतों के हिसाब से थी. उनकी शायरी के कुछ उदाहरणों को देखें तो, 'जब नहीं आए थे तुम, तब भी तो तुम आए थे', 'गाय के थन से निकलती है चमकती चांदी', 'धुएं से काले तवे भी चिंगारियों के होठो से हंस रहे हैं', 'इमलियों के पत्तों पर धूप पर सुखाती है', 'मेरी वादी में वो इक दिन यूं ही आ निकली थी', 'अभी और तेज़ कर ले सर-ए-ख़न्जर-ए-अदा को', 'तुम से बेरंगी-ए-हस्ती का गिला करना था', 'मेरे दरवाज़े से अब चाँद को रुख़सत कर दो' आदि उर्दू शायरी में नए लहजे की पहचान को बताने के लिए काफी हैं.
अली सरदार जाफरी ने भारतीय सिनेमा में भी योगदान दिया. एक गीतकारके रूप में उनके महत्वपूर्ण कामों में 'जलजला', 'धरती के लाल' और 'परदेसी' जैसी फिल्मों का गीत लेखन शामिल है. साल 1948 से 1978 के बीच उन्होंने 'नई दुनिया को सलाम', 'खून की लकीर', 'अमन का सितारा', 'एशिया जाग उठा', 'पत्थर की दीवार', 'एक ख्वाब', 'पैरहन-ए-शरार' और 'लहू पुकारता है' जैसे संग्रह लिखे, जिनसे भारतीय साहित्य समृद्ध हुआ. इसके अलावा उन्होंने 'मेरा सफर' जैसी प्रसिद्ध रचना भी लिखी. उनका आखिरी संग्रह ‘सरहद’ के नाम से छपा, जो 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के दौरान लिखा गया था.
इस संग्रह की एक पंक्ति उन दिनों खूब मशहूर हुई, ‘गुफ़्तुगू बंद न हो, बात से बात चले, सुब्ह तक शाम-ए-मुलाक़ात चले, हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले’’. जाफरीने कबीर, मीर तक़ी मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब के संग्रहों का संपादन भी किया. उन्होंने इप्टा के लिए दो नाटक भी लिखे. जाफरी ने दो डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बनाईं. उन्होंने उर्दू के सात प्रसिद्ध शायरों के जीवन पर आधारित 'कहकशाँ' नामक धारावाहिक का निर्माण भी किया.
अली सरदार जाफरी को उनके साहित्यिक योगदान के लिए साल 1998 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वह फिराक गोरखपुरी और कुर्तुल एन हैदर के बाद ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले उर्दू के तीसरे साहित्यकार हैं. साल 1967 में उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया. इसके अलावा वह सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार, उत्तर प्रदेश सरकार के उर्दू अकादमी पुरस्कार और मध्यप्रदेश सरकार के इकबाल सम्मान से भी सम्मानित हुए. उनकी कई रचनाओं का भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ. पर अगर हम ध्यान से देखें तो इस अज़ीम शायर को जनता की शोहरत चाहे जितनी मिली हो, सत्ता से उतना सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे. उन्होंने अपने लंबे जीवन में मज़लूम और मेहनतकश ग़रीबों की समस्याओं को लगातार उजागर किया और साहित्य सेवा में अपनी क़लम चलाई, जिसके लिए निजी यातनाएं भी झेली. 86 वर्ष की आयु मेंवह ब्रेन-ट्यूमर से ग्रस्त होकर कई माह तक मुंबई के अस्पताल में मौत से जूझते रहे और पहली अगस्त साल 2000 को इस दुनिया से कूच कर गए... पर सचमुच ऐसे लोग शरीर छोड़ देने भर से कहीं जाते हैं क्या? उन्हीं की एक कविता 'फिर एक दिन ऐसा आयेगा' में इस सवाल का जवाब शामिल है.
फिर एक दिन ऐसा आयेगा
आँखों के दिये बुझ जायेंगे
हाथों के कँवल कुम्हलायेंगे
और बर्ग-ए-ज़बाँ से नुत्क़ ओ सदा
की हर तितली उड़ जायेगी
इक काले समन्दर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हँसती हुई
सारी शक्लें खो जायेंगी
खूँ की गर्दिश, दिल की धड़कन
सब रागनियाँ सो जायेंगी
और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर
हँसती हुई हीरे की ये कनी
ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं
इस की सुबहें इस की शामें
बेजाने हुए बेसमझे हुए
इक मुश्त ग़ुबार-ए-इन्साँ पर
शबनम की तरह रो जायेंगी
हर चीज़ भुला दी जायेगी
यादों के हसीं बुतख़ाने से
हर चीज़ उठा दी जायेगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
'सरदार' कहाँ है महफ़िल में
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन से बोलूँगा
चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती-पत्ती कली-कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सर सब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंग-ए-हिना, आहंग-ए-ग़ज़ल,
अन्दाज़-ए-सुख़न बन जाऊँगा
रुख़सार-ए-उरूस-ए-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा
जाड़ों की हवायें दामन में
जब फ़स्ल-ए-ख़ज़ाँ को लायेंगी
रहरू के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
हँसने की सदायें आयेंगी
धरती की सुनहरी सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जायेंगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है सरदार यहाँ
हर माशूक़ा सुल्ताना है
मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ
अय्याम के अफ़्सूँ खाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़-ए-सफ़र जो रहता है
माज़ी की सुराही के दिल से
मुस्तक़्बिल के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ