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कहानी के लिए दीवानगी शुरू से ही थी! प्रकाश मनु के 75वें जन्मदिन पर विशेष बातचीत

आज वरिष्‍ठ कवि-कथाकार प्रकाश मनु का 75वां जन्मदिन है. इस अवसर पर लेखक, संपादक श्याम सुशील ने उनका एक आत्मीय साक्षात्कार किया है.

प्रकाश मनु: किताबें और लेखक प्रकाश मनु: किताबें और लेखक
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 12 मई 2024,
  • अपडेटेड 7:00 AM IST

आज वरिष्‍ठ कवि-कथाकार प्रकाश मनु का 75वां जन्मदिन है. इस अवसर पर लेखक, संपादक श्याम सुशील ने उनसे एक आत्मीय साक्षात्कार किया है. श्याम सुशील के ही शब्दों में मनु जी से मिलने-बतियाने का अपना ही सुख है. उनसे मिलकर हर बार अपने को भरा-पूरा महसूस करता हूं और फिर-फिर मिलने की आस के साथ लौटता हूं. हर मुलाकात में उनकी अंतर्यात्रा के नए-नए पृष्ठ खुल पड़ते हैं. उनकी आत्मकथा के लिखे-अनलिखे पन्ने भी. मनु अपने पूरे तरन्नुम में बोलते हैं तो उन्हें सुनना एक अलग अनुभव है... कुछ अरसा पहले ऐसे ही बातों-बातों में सवालों-जवाबों का यह सिलसिला चल निकला, जो किसी बतकही सरीखा ही दिलचस्प था. फिर अनजाने ही उसमें मनु के व्यक्तित्व की भीतरी परतें खुलती चली गईं. उन्होंने बड़ी बेबाकी से और खुलकर मेरे सवालों के जवाब दिए... तो साहित्य आज तक पर पढ़िए प्रकाश मनु की लंबी सृजन-यात्रा के उतार-चढ़ाव, संघर्षों और गहरी भावनात्मक उथल-पुथल से गुजरते साक्षात्कार का कुछ संक्षिप्त रूप.
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श्याम सुशील : आत्मकथा के पहले खंड 'मेरी आत्मकथा: रास्ते और पगडंडियां' में आपने छुटपन में सुनी कहानियों का भरपूर जिक्र किया है. यहां तक कि 'बचपन के किस्से-कहानियों की सतरंगी दुनिया' शीर्षक से एक पूरा अध्याय ही है. और आपने लिखा भी है कि 'कहानी के लिए दीवानगी तो शुरू से ही थी'...तो मां और नानी से सुनी कहानियों के बाद जब आपने किताबों में छपी कहानियों को पढ़ना शुरू किया, तो कहानी सुनने और पढ़ने के फर्क को किस तरह महसूस किया? उस अनुभव के बारे में कुछ बताइए. 
प्रकाश मनु : न श्याम, कोई फर्क नहीं था. इसलिए कि जो मैं पढ़ता था, उसे मां और नानी से सुनी कहानियों के किस्सागोई के तार में पिरोकर, और एक तरह से पुनःसृजित करके उन्हीं कहानियों सरीखा बना लेता था, जिन्हें मां और नानी से सुनकर मैं अपने अदृश्य पंखों से उड़ता हुआ कल्पना की किसी नई दुनिया में पहुंच जाता था, जहां सब कुछ नया और अद्भुत था, हैरानियों से भरा. इसे कुछ और साफ शब्दों में कहना हो तो मैं कहूंगा कि पढ़ी हुई कहानियों में भी मैं उसी तरह अदृश्य पंख लगाकर, उन्हें उड़ाना सीख गया था, जिससे वे खुद-ब-खुद मां और नानी से सुनी हुई कहानियों में बदल जाती थीं. यह कैसे होता था, सोचकर मैं आज भी चकित हूं, पर होता तो था. इसीलिए उस दौर में पढ़ी हुई कहानियां भी मुझे उसी शिद्दत से याद आती हैं, जैसे बचपन में मां और नानी से सुनी हुई कहानियां.
श्याम सुशील : कहानियां सुनते-पढ़ते हुए आपको कब लगा कि आपके भीतर भी एक कहानीकार कुनमुनाने लगा है? और पहली कहानी कागज पर किस उम्र में और कौन सी उतरी? 
प्रकाश मनु : यह तो श्याम, बहुत छुटपन से ही लगने लगा था कि मेरे अंदर एक कहानीकार कुनमुनाने लगा है, पर उसे कागज तक आने में कोई अठारह-बीस बरस लग गए. क्योंकि उन दिनों कहानियां लिखने की बात तो मन में आती ही न थी. बस, कविताएं लिखने का खयाल ही मन में उमड़ता था. लेकिन कहानियां मैं जीता था, हर पल जीता था और उनके जरिए कल्पना की रहस्यपूर्ण दुनिया में मेरी आवाजाही शुरू हो गई थी, जिससे मुझे बहुत सुकून मिलता था. अच्छा, एक किस्सा आपको सुनाता हूं, एकदम मेरे छुटपन का किस्सा. उस समय मैं शायद कोई पांच-छह बरस का रहा होऊंगा. एकदम अबोध और बुद्धू सा था तब मैं. हमारा नया मकान अभी हाल में बना ही था. शाम के समय उसकी छत पर बैठा मैं खुली हवाओं का आनंद ले रहा था. बारिशों के दिन थे, अचानक तेजी से बारिश शुरू हो गई. 
मैंने पतला सा मलमल का कुरता पहना हुआ था. तो मन में आया कि कुरता नीचे फेंक देता हूं ताकि बारिशों की झड़ी में नहाने का आनंद लिया जाए. लिहाजा छज्जे से कुरता नीचे फेंकने के लिए मैं झुका, तो खुद भी कुरते के साथ-साथ नीचे आ गया. कारण यह था कि तब तक छज्जा तो बन गया था, पर उसकी मुँडेर नहीं बनी थी. पूरे घर में कुहराम मच गया कि कुक्कू गिर गया, कुक्कू गिर गया...! पर गिरने के बाद मैं तो बड़े आराम से नीचे पालथी मारे बैठा था, जैसे कुछ हुआ ही न था. उस समय नीचे खड़ी ईंटों का फर्श बना हुआ था, पर सौभाग्य से मुझे कुछ खास चोट नहीं आई. हां, घर में सबके घबराए हुए चेहरे देखकर लग रहा था कि कुछ हो गया है. उससे थोड़ी सी घबराहट शायद मुझमें भी आई होगी. 
फौरन डाक्टर को बुलवाया गया, उसने आकर दवा दी. साथ ही कुछ दिनों तक बिस्तर पर ही रहकर आराम करने के लिए कहा. अब तो मेरे लिए रोजाना विशेष रूप से अंगूर, आलूबुखारा जैसे महंगे फल, और भी न जाने कौन-कौन सी चीजें आ रही थीं. खूब खातिर हो रही थी. मैं सोचता, वाह, यह तो क्या मजे की बात है! कमलेश दीदी रोज स्कूल जाने से पहले और स्कूल से घर आने के बाद भी मेरा हालचाल पूछती कि कुक्कू, किसी चीज की जरूरत तो नहीं है? पर मुझे भला किस चीज की जरूरत थी. खासी मौज में था और आराम फऱमा रहा था. पर यह चीज मुझे खासा हैरान करती थी कि अरे वाह जी वाह, राम जी, यह तो बड़ा कमाल हो गया कि छत से गिरकर भी मैं एकदम ठीक-ठाक रहा. कहीं एक खऱोंच तक नहीं आई. मुझे लगता था कि यह तो एक कहानी हो गई, एक अचंभे भरी कहानी. आखिर कहानी में भी तो कुछ ऐसे ही तमाशे होते हैं न! 
तो मैं कमलेश दीदी से कहता कि तुम मेरी कहानी लिख दो कि एक था कुक्कू. एक दिन बारिश में नहाते हुए वह छत से नीच गिर पडा, पर उसे जरा भी चोट नहीं आई. कहानी लिखने के बदले में मैं तुम्हें दो पैसे दूंगा. यह कहानी भला थी भी कितनी? मुश्किल से दो-ढाई लाइनों की कहानी थी. दीदी ने उसे मोटे-मोटे अक्षरों में उसे लिखा तो मैंने उसे अपने हिस्से के दो पैसे दिए और उसका लिखा हुआ कागज बड़ी सावधानी से तकिए के नीचे तहाकर रख लिया. इसलिए कि अब वह कोई मामूली कागज नहीं रहा था. उस पर कुक्कू की कहानी लिखी हुई थी, तो वह एक बेशकीमती कागज हो चुका था. 
इससे पता चलता है श्याम भाई कि कहानी उन दिनों मैं लिखता भले ही न होऊं, पर कहानी क्या होती है, यह चीज मेरे मन में बचपन में ही उमड़ने लगी थी. जैसे कहानी को मैं देख सकता हूं, छू सकता हूं, बहुत करीब से महसूस भी कर सकता हूं. कहानी का होना और कहानी का आनंद दोनों ही मैं जान गया था.
श्याम सुशील : बचपन और किशोरावस्था में किस तरह की कहानियां और किन कहानीकारों को पढ़ना अच्छा लगता था? 
प्रकाश मनु : श्याम भाई, उन दिनों प्रेमचंद सबसे अच्छे लगते थे. उनकी कहानियां और उपन्यास दोनों ही. हिंद पाकेट बुक्स में उनके 'निर्मला', 'वरदान' आदि उपन्यास मिलते थे, वे मैंने पढ़े. पर खास बात बात यह है कि कहानी और उपन्यास के फर्क पर उन दिनों मेरा कोई खास ध्यान नहीं गया. मेरे लिए तो कहानी भी कहानी थी, उपन्यास भी एक तरह से कहानी ही थे. अपेक्षाकृत कुछ लंबी और फैली-फैली सी कहानी सरीखे. प्रेमचंद के अलावा रवींद्रनाथ टैगोर और शरत के उपन्यास भी मैंने किशोरावस्था में ही पढ़ लिए थे और मुझे बहुत अच्छे लगे थे. उनकी पीड़ा मैं महसूस करता था, पढ़ते-पढ़ते अकसर रो पड़ता था. पर एक हाथ से आंसू पोंछता जाता और दूसरे में किताब पकड़े आगे की कहानी पढ़ना भी जारी रहता. मन में यह उत्सुकता बराबर बनी रहती कि आगे क्या हुआ, आगे क्या हुआ...? यह चीज जैसे मुझे हर पल दौड़ाए रखती और बिल्कुल चैन नहीं लेने देती थी. इसलिए कोशिश करता कि बड़े से बड़ा उपन्यास भी लगातार पढ़ते हुए एक या दो दिन में ही पूरा पढ़ डालूँ, ताकि भीतर यह तेज खुद-बुद न चलती रहे कि आगे क्या हुआ आगे क्या...?

श्याम सुशील : पढ़ने के संदर्भ में आपने एक जगह लिखा है कि 'कहानी का डंक मुझे चुभ गया था और जितना अधिक पढ़ता, नशा और गहराता जाता!' इस डंक की चुभन के बारे में थोड़ा विस्तार से बताइए. 
प्रकाश मनु : बस, यह समझिए कि कहानी के लिए मन में दीवानगी थी, एक तरह पागलपन....एक नशा भी आप कह सकते हैं. मैं जैसे चारों ओर से कहानियों से घिरा हुआ था और कहानियों में ही सांस लेता था. कहीं भी कहानी या उपन्यास मिल जाता तो मैं खाना-पीना सब कुछ भूलकर एक पागल आवेश के साथ उसे उठा लेता और पढ़ना शुरू कर देता. जब तक उसे पूरा न कर लेता, मुझे चैन नहीं पड़ता था. यही कहानियों का डंक था कि मैं चौबीसों घंटे बस कहानियों की दुनिया में ही रहता था और उससे बाहर आने का मन ही नहीं करता था. शायद इसलिए कि वास्तव की दुनिया उन रसपूर्ण कहानियों के सामने कुछ रूखी-सूखी और नीरस जान पड़ती थी. बेस्वाद....
कुछ-कुछ यही चीज मैं बचपन और किशोरावस्था में श्याम भैया के साथ देखी फिल्मों के बारे में भी कह सकता हूं. मुझे आज भी बहुत अच्छी तरह याद है कि फिल्म खत्म होने के बाद जब मैं बाहर आता था, तो काफी देर तक असहज रहता था. इसलिए कि कहानियों की दुनिया से असली दुनिया में आना मेरे लिए एक तेज और अप्रत्याशित झटके की तरह था. किसी खूबसूरत सपने के टूटने की तरह. मैं मानो असली दुनिया में आकर भी बहुत देर तक अपनी कल्पना में कहानी की दुनिया के साथ ही तैरता रहता था. इसलिए सहज और प्रकृतस्थ होने में मुझे काफी समय लग जाता था. जबकि श्याम भैया तो बाहर आते ही फिल्म को एकदम भूल जाते थे और पूरी तरह असली दुनिया में लौट आते थे. पर मेरे लिए यह काफी कष्ट भरी चीज थी.
श्याम सुशील : लगभग चालीस बरस लंबी कथा-यात्रा रही है आपकी. इस यात्रा के वे यादगार मोड़ कौन से हैं जिन्होंने आपके जीवन और लेखन को गहराई तक प्रभावित करने के साथ ही एक नई राह खोजने के लिए प्रेरित किया.
प्रकाश मनु : श्याम भाई, मैं जब शिकोहाबाद में बीएस-सी कर रहा था, तो उन्हीं दिनों एक आदर्शवादी युवक की बड़ी भावावेगपूर्ण कहानी लिखी थी मैंने, जिसे दो विरोधी विचारधाराएं एक साथ तेजी से अपनी ओर खींच रही हैं. एक ओर राष्ट्रवादी विचारधारा, दूसरी ओर साम्यवादी विचारधारा. वह उन दोनों ही प्रभावों को नकार नहीं पाता, पर पूरी तरह स्वीकार भी नहीं कर पाता. तब आखिर वह एक मध्य मार्ग को चुनता है, जिसमें दोनों विचारधाराओं के सकारात्मक हिस्से हैं और अतिवाद किसी का नहीं है. बाद में मैं आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. कर रहा था, तो वहां भी दो-तीन बड़ी भावनात्मक कहानियां लिखी गईं, जो कुछ बेहतर थीं. इनमें से एक कहानी मैं आगरा के उन दिनों के नए उठते हुए कहानीकार विभांशु दिव्याल को दिखाने भी गया था. उन्होंने तत्काल कहानी पढ़ी और फिर कुछ रचनात्मक सुझाव भी दिए, जिससे कहानी कुछ और बेहतर हो सकती थी. मैंने वैसा कुछ किया तो नहीं, पर विभांशु जी की आत्मीयता मुझे बड़ी भली-भली सी लगी. यह आत्मविश्वास भी मन में आया कि कहानी मैं लिख सकता हूं. ऐसे ही कहानी में निजता और भीतर के अनुभव कैसे लाए जा सकते हैं और उनका आनंद क्या होता है, यह मैं जान गया था.
कुछ अरसे बाद शोध के लिए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में आने के बाद काफी कहानियां लिखी गईं, जिन्हें एक तरह से मेरी सुव्यवस्थित कथा-यात्रा का प्रथम चरण कह सकते हैं. 'यात्रा', 'सुकरात मेरे शहर में' और 'जिंदगीनामा एक जीनियस का' उन्हीं दिनों की कहानियां हैं, जिन्हें खासा सराहा गया. फिर नवें दशक में दिल्ली आने के बाद से लेकर बीसवीं सदी के अंत, यानी सन् 2000 तक बहुत कहानियां लिखी गईं. वे बड़े सम्मान से छपी और चर्चित भी हुईं. मेरा पहला कहानी संग्रह 'अंकल को विश नहीं करोगे' भी इसी दौरान छपा. इसे मेरे कहानी लेखन का दूसरा चरण मान सकते हैं. इसके बाद सन् 2001 से आज तक, यानी इक्कीसवीं सदी में लिखी गई कहानियों में कुछ अधिक अनौपचारिकता आई. शायद एक तरह की सादगी और सहजता भी. इसे मेरी कथा-यात्रा का तीसरा चरण कहा जा सकता है. पिछले दो दशकों में लिखी गई अपनी कहानियों के बारे में कुछ कहना हो तो मैं कहूंगा कि इधर लिखी गई मेरी कहानियां जीवन से कहीं अधिक सटकर चलती कहानियां हैं, जिनमें खुद मेरे जीवन के या आसपास देखे, जाने हुए अनुभव अधिक हैं और उनमें जीवन के प्रति एक तरह का सकारात्मक नजरिया भी है.
श्याम सुशील : आपका पहला कहानी संग्रह 'अंकल को विश नहीं करोगे' सन् 1994 में प्रकाशित हुआ. लेकिन इससे पहले सन् 1990 में देवेंद्र कुमार और विजयकिशोर मानव के साथ साझा संग्रह 'दिलावर खड़ा है' आ चुका था. आपकी इन कहानियों में जो जीवन धड़क रहा है, उसे पाठकों ने कहानीकार के जीवन से जोड़कर देखने की कोशिश की, तो आपको उस समय यह स्पष्टीकरण देना क्यों जरूरी लगा कि कहानीकार तो हर पात्र को अपने भीतर पहले जीता है, तभी तो उसकी भावनाओं को शब्द दे पता है. इस पर क्या कहना चाहेंगे? 
प्रकाश मनु : असल में श्याम भाई, मेरी कहानियां शुरू से ही औरों की कहानियों से कुछ अलग लीक पर चलती रही हैं. यानी ये कहानी के बने-बनाए रास्ते पर चलने से इनकार करती कहानियां हैं, जो अपनी एक अलग राह निर्मित करती हैं. ये बहुत अधिक चुस्त-दुरुस्त और कटी-तराशी कहानियां भी नहीं हैं. उन्हें एक तरह की आत्मकथात्मक कहानियां तो कह सकते हैं, पर आत्मकथा वे नहीं हैं. मैंने अपनी कहानी के पात्रों को तटस्थ नजरिए से आंकने और सिरजने के बजाय भीतर उमड़ती भावनाओं के साथ देर-देर तक अपने उदर में सेने का काम किया है, और इस दौरान मेरा खुद का भी बहुत कुछ नितांत निजी उनके अंदर चला आया है. यह कैसे होता है, यह तो मैं नहीं जानता, पर ऐसा होता तो है. लेकिन इसके साथ ही एक अजीब सा संकट यह भी था कि लोग कहानी के नायक या किसी और विशेष पात्र को मुझसे जोड़ लेते थे और उसके साथ जो-जो कुछ घटा, उसे खुद मेरी जीवन कथा मानकर सवाल करने लगते थे.
मुझे यह तो अच्छा लगता था कि वे मेरी कहानी के पात्रों से इस कदर आंतरिक जुड़ाव महसूस करते हैं, पर उनका पात्रों के साथ घटी हर घटना या प्रसंग के साथ मुझे जोड़ लेने पर कई बार बड़ी अटपटी स्थित पैदा हो जाती थी. शायद इसीलिए मुझे यह कहना जरूरी लगा हो मैंने उन पात्रों को खुद जिया है, ताकि उनकी भावनाओं को शब्द दे सकूँ. पर उन भावनाओं को जीने का यह अर्थ न निकाला जाए कि वह पात्र असल में मैं ही हूं. मैंने बस अपने भीतर का कुछ आत्म उसे दिया है. उसके भीतर कुछ उपस्थिति मेरी भी है, सच बस इतना ही है. इसे स्पष्ट करने के लिए ही शायद इस कथन की जरूरत पड़ी हो, जिसकी ओर आपने इंगित किया है.
श्याम सुशील : शब्द-शिल्पी देवेंद्र सत्यार्थी जी को आपने अपना कथागुरु माना है. कहानी लेखन के संदर्भ में उनकी कौन सी बातें हैं जिन्होंने आपको इस यात्रा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया? 
प्रकाश मनु : श्याम भाई, सत्यार्थी जी ने कहानी के बारे में कुछ ऐसी उस्तादाना बातें कहीं, जिन्हें मैं कभी नहीं भूल पाता. एक तो उनकी यह बात नहीं भूलती कि 'मनु, तुम्हारे चारों ओर कहानियां ही कहानियां बिखरी हुई हैं, बस उन्हें देखने वाली आंख चाहिए. यहां तक कि अगर तुम सुन सको तो रास्ते में पड़ा मिट्टी का ढेला भी अपनी एक नायाब कहानी सुना रहा है. बस उसे सुनने और महसूस करने की जरूरत है.' ऐसे ही कहानी के आलोचक की सीमा दरशाने वाली उनकी यह उक्ति भी मैं नहीं भूल पाता कि कोई आलोचक यह तो बता सकता है कि कहानी क्या होती है, पर कहानी क्या हो सकती है, इसे कोई कहानीकार ही अपनी कहानी लिखकर बताता है. इसलिए कि उसमें बहुत कुछ ऐसा होता है, जहां तक आलोचक की आंख जा ही नहीं पाती. 
इसी तरह कहानी को लेकर तीसरी एक और बड़ी बात उन्होंने मेरी आत्मकथात्मक कहानी 'यात्रा' सुनने के बाद कही थी कि 'याद रखो मनु, जब तुम कोई कहानी लिखते हो, तो सिर्फ तुम ही नहीं लिखते, कहानी भी तुम्हें लिखती है. इसलिए कोई कहानी लिखने के बाद तुम ठीक-ठीक वही नहीं रहते, जो कहानी लिखने से पहले थे. तुम कुछ न कुछ बदल चुके होते हो.' श्याम भाई, कहानी को लेकर मेरे गुरु सत्यार्थी जी के ये तीन महकथन मुझे आज भी चकित कने वाले लगते हैं, जिनके बारे में सोचता हूं तो एक पूरी दुनिया खुलती चली जाती है.
श्याम सुशील : 'अंकल को विश नहीं करोगे' आपकी बहुचर्चित कहानी रही है, जिसे पढ़कर सैकड़ों पाठक बेचैन हुए और उन्होंने आपको पत्र भी लिखे. मुझे लगता है, इस कहानी को लिखना आपके लिए भी सहज नहीं रहा होगा. उन दिनों की मनःस्थिति के बारे में कुछ बताइए.
प्रकाश मनु : हां, श्याम भी, यह कहानी काफी तकलीफ के साथ लिखी गई, और जिन दिनों लिखी गई, तब मैं कुछ अजीब स्थितियों से गुजर रहा था. मन में एक वैचारिक हलचल और आंधी सी हमेशा रहती थी, जो लिखने के लिए बेचैन करती थी. उन्हीं दिनों अपने घर के पड़ोस में ही मैंने एक डाक्टर को बहुत करीब से देखा, जो और डाक्टरों जैसा नहीं था. अपने आसपास की दुनिया और लोगों के बारे में वह बड़ी सहानुभूति से सोचता था. उसके अपने कुछ उसूल भी थे, जिसने उसके अंदर अपने ढंग से जीने की एक जिद भी पैदा कर दी थी. पर ऐसा व्यक्ति परिवार के लोगों की नजर में तो एकदम पागल ही था. उससे मिलना, उससे बात करना और धीरे-धीरे उसकी तकलीफ को महसूस करते हुए सहभोक्ता बनना, सब कुछ मुझे आज भी याद है. कहानी में भी वह काफी तकलीफ के साथ आया है. यही कारण है कि 'अंकल को विश नहीं करोगे' मेरी सबसे चर्चित कहानियों में से एक है. आप इसे बड़े विचार और बड़े फलक की कहानी कह सकते हैं. इसे पढ़कर बल्लभ सिद्धार्थ ने पत्र लिखा था कि मनु, तुमने कम से कम एक बड़ी कहानी लिखी है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा. ऐसे ही मेरे बहुत से लेखक मित्रों का कहना था कि यह कहानी भीतर एक तेज खलल पैदा करती है और एक बार पढ़ने के बाद इसके प्रभाव से मुक्त होना कठिन है. मेरे मित्र कथाकार श्रवण कुमार और डॉ माहेश्वर भी इस कहानी के बड़े प्रशंसक थे.
श्याम सुशील : आपकी कहानियां अकसर लंबी होती हैं. 'मिसेज मजूमदार' और 'टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की कहानी' तो एक बैठकी में नहीं लिखी गई होंगी. ऐसे में आपकी लेखन-प्रक्रिया क्या रहती है?
प्रकाश मनु : श्याम भाई, मेरी लंबी तो क्या औसत कहानियां भी हफ्ते-दस दिन से पहले पूरी नहीं होतीं. कोई-कोई कहानी तो पूरा महीना भी ले लेती है. हां, कहानी का पहला प्रारूप मैं बहुत जल्दी बना लेता हूं. फिर पूरी तन्मयता से मैं उस पर काम करने में जुट जाता हूं. उसके एक-एक हिस्से को स्वाभाविक रंग-रेशे के साथ उभारना मुझे अच्छा लगता है. लेकिन कहानी को खत्म करने की बहुत जल्दी मुझे नहीं होती. वह सहज, स्वाभाविक रूप में आगे बढ़े, यही मुझे अच्छा लगता है. इसलिए जब तक मुझे तसल्ली नहीं होती, मैं उस पर काम करता हूं. यही कारण है कि किसी-किसी कहानी के पांच-छह प्रारूप भी बन जाते हैं. फिर 'मिसेज मजूमदार' और 'टैक्सी ड्राइवर रामलाल दुआ की सच्ची कहानी' सरीखी कहानियां तो कई बार डेढ़-दो महीनों तक भी चल जाती हैं. बस, मैं कहानी का धागा पकड़कर उसके साथ बहता जाता हूं. मेरे लिए यह बड़ी रोमांचक और आनंदपूर्ण यात्रा है, जिसमें मेरा मन, शरीर और समूचा अस्तित्व अपनी पूरी आब, निर्मलता और रचनात्मक शक्तियों के साथ उपस्थित होता है. फिर किसी क्षण भीतर से आवाज आती है कि हां, यही, बिलकुल यही प्रभाव तो मैं अपनी कहानी के जरिए लाना चाहता था. और तब कहानी मेरी ओर से संपन्न होती है. हालांकि कुछ कहानियों पर तो मैंने कई साल बाद फिर से काम किया, जिससे ठीक-ठीक वही प्रभाव उभर सके, जो मैं लाना चाहता था.
श्याम सुशील : आपकी कहानी 'भटकती जिंदगी का नाटक' काफी दिनों से आधी-अधूरी रुकी पड़ी थी. लेकिन विष्णु खरे के आग्रह पर आपने इस कहानी को एक दिन में पूरा किया. बाद में यह हिंदी अकादमी की पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती' में प्रकाशित हुई और कुछ समय बाद ही इसका नाट्य रूपांतरण भी हुआ. अपनी कहानी को नाटक के रूप में देखना आपके लिए एक नया अनुभव रहा होगा. जो बात आपने कहानी में कहनी चाही है, क्या वह नाटक में संभव हो सकी है? 
प्रकाश मनु : हां श्याम, मेरी कहानियों में यह शायद एकमात्र कहानी है, जो सिर्फ एक दिन में लिखी गई और इसका श्रेय पूरी तरह से विष्णु खरे को ही जाता है. जिन दिनों वे हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष बनकर दिल्ली आए, उन्हीं दिनों की बात है. एक दिन सुबह-सुबह उनका फोन आया. अपने निराले अंदाज में उन्होंने पूछा कि मनु जी, आपने कहानियां लिखना छोड़ दिया या अभी लिख रहे हैं? मैंने कहा, 'विष्णु जी, कहानियां मैं लिख रहा हूं.' 'तो 'इंद्रपस्थ भारती' के कहानी विशेषांक के लिए भेजिए अपनी कहानी.' विष्णु जी का आग्रह. मैंने कहा, 'कब तक भेजनी है विष्णु जी?' उन्होंने कहा, 'आज ही भेज दीजिए.' मैंने उन्हें बताया कि कहानी का पहला ड्राफ्ट मैंने लिख लिया है, पर उस पर काम करना अभी बाकी है. इस पर विष्णु जी ने कहा, 'कहानी तो हमें आज ही चाहिए प्रकाश जी.' 'ठीक है, मैं सब काम छोड़कर, अभी इसी को पूरी करने में जुटता हूं. शाम तक मैं आपको जरूर भेज दूंगा.' मैंने कहा.
और फिर मैं खाना-पीना सब भूलकर उसी समय उस कहानी को पूरा करने में लग गया. शाम तक उसका कुछ रूप निकल आया. पर अभी इस पर काम बाकी था. तभी देखा मोबाइल में विष्णु जी का संदेश था, 'प्रकाश जी आपने कहानी नहीं भेजी.' जवाब में मैंने लिखा, 'उसी पर काम कर रहा हूं विष्णु जी. रात तक आपको मिल जाएगी.' रात में फिर से संदेश, 'आपकी कहानी की प्रतीक्षा कर रहा हूं.' इस पर मेरा जवाब, 'जी, कहानी मैंने लिख ली है, बस उसे फाइनल टच देना बाकी है. उसे आज ही पूरा करके भेजूँगा.' 
रात कोई ग्यारह बजे कहानी पूरी हुई और मैंने विष्णु जी भेज दी. मोबाइल से संदेश भी दे दिया और तब सोने गया. सुबह चार बजे मेरी नींद खुली तो देखा मोबाइल पर उनका संदेश चमक रहा था, 'कहानी बहुत अच्छी है प्रकाश जी. वसंतदेव का चरित्र दिलचस्प है. आभार.'
पढ़कर मुझे कितनी खुशी हुई, मैं आपको बता नहीं सकता. लगा, विष्णु जी ने मुझ पर भरोसा करके एक जिम्मा सौंपा था, मैंने उस भरोसे को टूटने नहीं दिया. अलबत्ता इस कहानी के सिलसिले में मैंने विष्णु खरे के संपादक जो रूप देखा, उसे भी मैं कभी भूल नहीं सकता. मैंने लेखक को प्यार करने और उसकी रचना का सम्मान करने वाले संपादक तो देखे थे, पर लेखक के पीछे पड़कर उससे लिखवा लेने वाला विष्णु खरे सरीखा जिद्दी और आग्रहशील संपादक कोई और नहीं देखा. इस मामले में भी वे बेनजीर हैं, जैसे और कई मामलों में उनका जवाब नहीं है.
कहानी का नाट्य रूपांतरण भी बहुत खूबसूरत हुआ श्याम भाई. मेरे जीवन का यह सचमुच एक अविस्मरणीय अनुभव है. उस विशाल प्रेक्षालय में बैठे सभी लोग किस तरह नाटक की भावधारा में बह रहे थे और पूरी तरह नाटकमय थे, यह बात मैं कभी भूल नहीं सकता. इस मामले में एक निर्देशक के रूप में मीता मिश्र के नाट्य कौशल और निर्देशन का मैं कायल हो गया. उन्होंने कहानी के पूरे प्रभाव को लाने के लिए बड़ी विलक्षण युक्तियों, कल्पना और अद्भुत कौशल से विभिन्न दृश्यों को साकार करते हुए, नाटक को एक संपूर्ण कलात्मक संरचना दी. इससे यह नाटक कुछ भिन्न तरह का नाटक तो बना, पर साथ ही साथ दर्शकों से बहुत करीबी तौर से जुड़ा भी रहा. लिहाजा दर्शकों ने इसका खूब आनंद लिया. बीच-बीच में कभी एक साथ हवा में गूंजती सबकी सामूहिक हंसी, या फिर प्रसन्नता या घनीभूत उदासी का भाव तिरता हुआ मुझ तक आता, तो यह समझना मेरे लिए मुश्किल न था कि नाटक किस तरह सबके दिलों में अपनी जगह बना रहा है और लोग उसके साथ-साथ बह रहे हैं. 

श्याम सुशील : 'यह जो दिल्ली है', 'कथा सर्कस', और 'पापा के जाने के बाद' आपके बहुचर्चित उपन्यास हैं. क्या इन उपन्यासों के लेखन की शुरुआत कहानियों के रूप में हुई थी, जो धीरे-धीरे लंबी होती गईं और आपको लगा कि कहानी में इनकी समाई नहीं, तो आपने उपन्यास के कलेवर में इनको पूरा किया? या फिर आपने पहले से ही तय कर लिया था कि उपन्यास ही लिखना है. 
प्रकाश मनु : न श्याम भाई, कहानी वाली बात नहीं. बिल्कुल नहीं.... इसलिए कि ये तीनों उपन्यास मेरे जेहन में उपन्यास के रूप में ही उभरे थे. कहना चाहिए कि उपन्यास के एक विशाल फलक, घटना बहुलता और कथा-विस्तार के साथ ही ये मेरे भीतर उतरे और उसी रूप में लिखे भी गए. कहना चाहिए कि इन तीनों उपन्यासों को मैंने अपनी कल्पना में उपन्यास के रूप में ही साक्षात् किया था. और फिर इन्होंने मुझे इस कदर व्याकुल किया कि तीनों उपन्यास एक के बाद एक मानो आंधी की तरह लिखे गए. वैसी रचनात्मक आंधी या वैसा भीतरी आवेग मैंने अपने जीवन में न इससे पहले कभी महसूस किया था और न बाद में. मेरे जीवन का यह एक विरल अनुभव है. कहना चाहिए अन्यतम, जिसे मैं जीवन भर कभी भूल नहीं पाऊंगा. ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं लिख नहीं रहा, बल्कि कोई और है जो विकट दबाव और बलाघात के साथ मुझसे इन्हें लिखवा रहा है. और इन्हें लिखते हुए मैंने एक ऐसी गहरी सृजनात्मक पीड़ा, इतना आनंद, इतना रोमांच महसूस किया कि मैं शायद कभी बता नहीं पाऊँगा. एक लेखक के रूप में ये मेरे लिए असाधारण उत्तेजना के क्षण थे, जब हर वक्त भीतर एक थरथरराहट सी होती थी, जो इन्हें जल्दी से पूरा करने के लिए बेचैन करती थी.
पहला उपन्यास 'यह जो दिल्ली है' लिखते समय मैं इस कदर भावबिद्ध और व्याकुल था कि रात-दिन यह उपन्यास ही मेरे जेहन में घूमता था. उठते-बैठते, सोते-जागते हर समय. हालांकि इतना बड़ा उपन्यास लिखने के लिए समय कहां था? पहले मैंने दफ्तर से कुछ दिनों की छुट्टी ली और शुरू का हिस्सा लिखा. फिर कुछ महीनों बाद दुबारा छुट्टियां लीं तो यह आगे बढ़ा. तीसरी बार में पूरा हुआ. एक बार छुट्टी लेने के बाद दुबारा छुट्टी लेना आसान नहीं था. बीच में एक लंबा अंतराल जरूरी था. तब तक उपन्यास को स्थगित रखना बहुत कठिन था. हालांकि मेरे भीतर तो यह धीरे-धीरे पकता ही रहा, कुछ और बेसब्री के साथ. फिर लिखने के बाद बार-बार संपादन. यहां तक कि प्रूफ रीडिंग के समय तक इसका सिलसिला जारी रहा. उपन्यास का शीर्षक भी पहले 'दिल्ली में सत्यकाम' था, जो बाद में मेरे मित्र हरिपाल त्यागी की सलाह पर बदलकर 'यह जो दिल्ली है' किया गया. अखबारी कागज पर उकेरी गई आकृतियां इसके आवरण पर दरशाई गई थीं. उपन्यास का यह एकदम भिन्न सा आवरण भी त्यागी जी ने ही बनाया था. 
फिर कुछ समय बाद अपनी शर्तों पर जीवन जीने वाले एक संवेदनशील लेखक के जीवन की विडंबना पर 'कथा सर्कस' उपन्यास लिखा गया तो मेरी हालत सचमुच बहुत खराब थी. यह अकेले में बड़बड़ाने वाली हालत थी. पूरा उपन्यास जैसे अवचेतन की हालत में लिखा गया हो. तीसरे उपन्यास 'पापा के जाने के बाद' में भी हालत लगभग ऐसी ही थी. हालांकि अपने समय में इनकी जबरदस्त चर्चा हुई थी और मुझे खुशी है कि पाठकों का मुझे खूब प्यार मिला.
श्याम सुशील : मनु जी, कहानी के डंक के बारे में तो आपने बताया, लेकिन कविता का डंक कब और कैसे लगा? जरा इसकी भी कुछ बात करें. 
प्रकाश मनु : कविता का डंक थोड़ा आगे चलकर लगा था, जब मैं अपनी पाठ्य पुस्तकों में छपी कविताएं बड़ी रुचि से पढ़ने लगा था. कविताओं वाले पाठ मेरे लिए सिर्फ स्कूली पढ़ाई वाले पाठ नहीं थे, बल्कि कुछ और हो चुके थे. फिर हमारे यहां सहायक पुस्तक 'भाषा भास्कर' चलती थी, छठी कक्षा से बारहवीं कक्षा तक. उसमें मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, निराला, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा नवीन सरीखे कवियों की इतनी सुंदर काव्य पंक्तियां बीच-बीच में उद्धृत की गई थीं कि मैं रोज सुबह उठकर उन्हें जोर-जोर से पढ़ते हुए याद करता था. इन्हें सिर्फ मैं इम्तिहान में लिखने और अच्छे नंबर लाने के लिए ही नहीं पढ़ता था, बल्कि इसलिए कि इन्हें बार-बार पढ़ना मुझे अच्छा लगता था. इन कविताओं के जरिए मेरे हृदय के कपाट खुलते जा रहे थे और कविता क्या होती है, कविता का रस, कविता का आनंद क्या होता है, यह मैं जानने लगा था. 
'भाषा भास्कर' हमारे ही कॉलेज के एक धीर-गंभीर अध्यापक शांतिस्वरूप दीक्षित जी ने लिखी थी, जो बड़े ही सहृदय विद्वान थे और साहित्य की उनकी समझ काफी अच्छी थी. इसलिए 'भाषा भास्कर' कहने को पाठ्य पुस्तक थी, पर यह मुझे कविता के मायने समझाने वाली किताब बन गई गई. कविता की कुछ रसबूँदें जैसे मुँह में पड़ गई थीं और उससे मेरी अतृप्ति कुछ और बढ़ गई थी. मन करता था कि जिन कवियों की इतनी अच्छी कविताएं मैंने पढ़ी हैं, काश, उन्हें मैं पूरा पढ़ूँ और इस आनंद को जानूं. आप इसी को कह सकते हैं कि कविता का डंक मुझे चुभ गया था, जिसने फिर मुझे कभी चैन नहीं लेने दिया और यह हालत आज तक चली आती है.
श्याम सुशील : कविता की इस यात्रा में आपको सुनीता जी का संग-साथ कब और कैसे सुलभ हुआ?
प्रकाश मनु : श्याम भाई, आप कह सकते हैं कि कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में साथ-साथ रिसर्च करते हुए कविता ने ही हमें जोड़ा. सुनीता जी का शोध साठोत्तरी हिंदी कविता पर था और मेरा छायावाद से लेकर समकालीन कविता तक, यानी काफी बड़ा कालखंड था. पर हम दोनों ही कविता पर काम कर रहे थे. तो अकसर सुनीता जी पुस्तकालय से समकालीन कवियों के नए संकलन ढूंढ़कर ले आती थीं. उन्हें हम दोनों साथ-साथ पढ़ा करते थे. पढ़ते हुए हमने एक-दूसरे के मन, रुचियों और स्वभाव को जाना. एक-दूसरे के व्यक्तित्व की भीतरी परतों को पूरी सच्चाई और निर्मलता के साथ जाना, और इसी परस्पर संवाद ने हमें कुछ इस कदर एक-दूसरे से जोड़ दिया कि हमें लगने लगा कि हम एक-दूसरे के साथ से ही पूर्ण होते हैं. और तब हमने तय किया कि अब आगे की यात्रा हम साथ-साथ करेंगे. यों कविता ने मेरे जीवन में इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई कि बताऊं तो शायद किसी को यकीन न होगा.
श्याम सुशील : आपके कविता संग्रहों 'छूटता हुआ घर' तथा 'एक और प्रार्थना' के प्रकाशन के बीच ही तीनों उपन्यास 'यह जो दिल्ली है', 'कथा सर्कस' और 'पापा के जाने के बाद' प्रकाशित हुए. इन कथा कृतियों को पढ़ते हुए पाठकों ने महसूस किया कि वे एक ऐसे कवि-हृदय बेचैन आदमी के अनुभवों की भयावह दुनिया से रूबरू हो रहे हैं, जो उनके आसपास का ही है. इन उपन्यासों में व्यक्त पीड़ा को शब्दों में उतारना भी कम पीड़ाजनक नहीं रहा होगा. क्या इन उपन्यासों को लिखते हुए आपका कवि होना भी कुछ रास आया?
प्रकाश मनु : हां, श्याम भाई, आप कह सकते हैं कि कविता और कहानी के बीच की जो विभाजक रेखा थी, मैंने उसे तोड़ा या कहिए कि अतिक्रमित किया. और यह मेरे लिए बड़े सुख की बात थी कि इससे अभिव्यक्ति के बहुत से नए रास्ते निकल आए और निकलते चले गए. बहुत छोटे-छोटे चौखटों में बाँधकर चीजों को देखना वैसे भी मुझे प्रिय नहीं. मुझे याद है, मेरे गुरुवर देवेंद्र सत्यार्थी जी कहा करते थे कि विधाओं की शुद्धता का मैं कायल नहीं हूं और जैसे खाना खाते हुए थाली में परोसे गए सारे व्यंजनों को मैं मिला-जुलाकर खाने का आनंद लेता हूं, इसी तरह विधाएं भी मेरे लेखन में आपस में घुल-मिल जाती हैं और यह मुझे पसंद है. 
सच ही सत्यार्थी जी के यहां निबंध में संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत में संस्मरण, यहां तक कि कहानी में भी संस्मरण आ जाता है. इसी तरह कभी-कभी लेख और रेखाचित्र एक हो जाते हैं, या रेखाचित्र और संस्मरण एक हो जाते हैं. रेखाचित्र और यात्रा-वृत्तांत भी एक हो जाते हैं. मुझे भी यह चीज काफी रास आई. इसलिए मेरी कविताओं में कहानी या किस्सा खुलकर चला आता है. इसी तरह कहानी या उपन्यास में कविता आती है तो वे एक तरह से कवितामय हो जाते हैं. लिहाजा जिन दिनों 'यह जो दिल्ली है', 'कथा सर्कस' या 'पापा के जाने के बाद' उपन्यास लिखे गए तो मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं कुछ अलग कर रहा हूं. कहीं न कहीं अंदर लग रहा था कि यह मेरी कविता का ही विस्तार हैं. यानी 'यह जो दिल्ली है' मेरे लिए कोई साढ़े तीन सौ सफे की कविता ही थी और 'कथा सर्कस' कोई छह सौ पन्ने की कविता. यही बात मेरे तीसरे उपन्यास 'पापा के जाने के बाद' को लेकर भी कही जा सकती है. सच तो यह है कि कहानी या कविताएं जब अपने पूरे तरन्नुम में खुलकर बहती हैं तो वे खुद-ब-खुद किनारे तोड़कर पास आ जाती हैं. पर मेरे यहां वे पास ही नहीं आतीं, बल्कि एक-दूसरे में घुल-मिल भी जाती हैं. 
वैसे ऐसा सिर्फ मेरे यहां ही नहीं है, विष्णु खरे की कविताएं पढ़ें तो आपको पता चलेगा कि वहां कविता के भीतर कहानियां किस तरह आकार लेती हैं और खुलकर बहती हैं. यानी उनकी बहुत सी कविताएं एक तरह से कविता में लिखी गई कहानियां हैं. मैंने एक बार विष्णु जी से यह कहा भी था और उन्होंने स्वीकार किया था कि हां, ऐसा उनकी कविताओँ में सहज ही होता है. बहरहाल, 'यह जो दिल्ली है', 'कथा सर्कस' और 'पापा जाने के बाद' उपन्यासों में मैं जो कुछ कहना चाहता था, वह कह पाने के लिए कविता मुझे जरूरी लगी, और वह सहज ही इन उपन्यासों के भीतर अपने पूरे वेग के साथ बहती है. यह मेरे लिए आनंद की बात है कि मैं ऐसा कर सका.
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# वरिष्ठ साहित्यकार प्रकाश मनु का जन्म उत्तर प्रदेश के शिकोहाबाद में 12 मई, 1950 को हुआ. आपका मूल नाम चंद्रप्रकाश विग है. आपने आगरा कॉलेज से भौतिक विज्ञान में एमएस-सी की डिग्री हासिल की, पर साहित्यिक रुझान ने उनके जीवन का ताना-बाना बदल दिया. 1975 में आपने हिंदी साहित्य में एमए किया और 1980 में यूजीसी की फेलोशिप के तहत कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से 'छायावाद एवं परवर्ती काव्य में सौंदर्यानुभूति' विषय पर शोध किया. अब तक शताधिक रचनाओं का सृजन कर चुके मनु प्रसिद्ध साहित्यकारों के संस्मरण, आत्मकथा तथा बाल साहित्य से जुड़ी बड़ी योजनाओं पर अपने काम के लिए जाने जाते हैं.
आपकी प्रकाशित पुस्तकों में उपन्यास: यह जो दिल्ली है, कथा सर्कस, पापा के जाने के बाद, कहानियां; अंकल को विश नहीं करोगे, सुकरात मेरे शहर में, अरुंधती उदास है, जिंदगीनामा एक जीनियस का, तुम कहां हो नवीन भाई, मिसेज मजूमदार, मिनी बस, दिलावर खड़ा है, मेरी श्रेष्ठ कहानियां, मेरी इकतीस कहानियां, 21 श्रेष्ठ कहानियां, प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियां, मेरी कथायात्रा: प्रकाश मनु, मेरी ग्यारह लंबी कहानियां, जीवनी; जो खुद कसौटी बन गए, आत्मकथा; मेरी आत्मकथा: रास्ते और पगडंडियां. हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब 'मुलाकात' बहुचर्चित रही. आपने 'यादों का कारवाँ' में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के संस्मरण. देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र तथा विष्णु खरे के व्यक्तित्व और साहित्यिक अवदान पर गंभीर मूल्यांकनपरक पुस्तकें; साहित्य अकादेमी के लिए देवेंद्र सत्यार्थी और विष्णु प्रभाकर पर मोनोग्राफ; प्रकाशन विभाग से सत्यार्थी जी की संपूर्ण जीवनी 'देवेंद्र सत्यार्थी: एक सफरनामा' और आलोचना विधा में 'बीसवीं शताब्दी के अंत में उपन्यास: एक पाठक के नोट्स' से भी अपनी छाप छोड़ी. आपने 'हिंदी बाल साहित्य का इतिहास', 'हिंदी बाल कविता का इतिहास', 'हिंदी बाल साहित्य के शिखर व्यक्तित्व', 'हिंदी बाल साहित्य के निर्माता' और 'हिंदी बाल साहित्य: नई चुनौतियां और संभावनाएं' जैसे महत्त्वपूर्ण काम भी किए हैं. बाल उपन्यास 'एक था ठुनठुनिया' पर साहित्य अकादमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार; उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के 'बाल साहित्य भारती पुरस्कार'; दिल्ली हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान'; कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर' पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार सम्मानित मनु वर्तमान में साहित्यकारों के संस्मरण, आत्मकथा तथा बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं. साहित्य आज तक की ओर से मनु को सतत सृजनरत रहने की शुभकामनाएं. संपर्क: 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो. 09810602327, ईमेल - prakashmanu333@gmail.com
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# साक्षात्कारकर्ता श्याम सुशील लेखक, पत्रकार और संपादक हैं. दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रम 'सृजन', 'फलक' और 'किताब की दुनिया' के लिए पचास से अधिक साहित्यकारों के रचनात्मक जीवन और कृतित्व पर शोध के अलावा आपने दूरदर्शन-रेडियो आर्काइव्स में भाषा विशेषज्ञ के तौर पर स्वतंत्र रूप से भी कार्य किया है. आप अपनी पुस्तकों 'अपनी जमीन पर', 'होती मैं भी चंचल तितली', ‘बकरी के साथ’, ‘आओ बादल’, 'ठाँव-ठाँव घूमा’ तथा ‘आबू-साबू’ (कविता), ‘श्रीकृष्ण’ (जीवन कथा); 'निरंकारदेव सेवक की प्रतिनिधि बाल कविताएं' (प्रकाश मनु के साथ), ‘बात से बात : केदारनाथ सिंह के साथ’ तथा 'मेरे साक्षात्कार' सीरीज़ के अंतर्गत अमृता प्रीतम और त्रिलोचन के साक्षात्कारों की किताब के संपादन;  राहुल सांकृत्यायन स्मृति व्याख्यान-माला की पहली किताब 'दूसरी दुनिया संभव है' तथा 'प्रतिनिधि कविताएं: त्रिलोचन' का सह-संपादन के लिए भी जाने जाते हैं. संपर्क: ए-13, दैनिक जनयुग अपार्टमेंट्स, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096, मो. 9871282170

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