
मैं मर जाऊं तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना
- राहत इंदौरी
एक माइक, एक आवाज़ और उसके बाद आवाज़ों का हुजूम. एक क़लम, उससे निकले हज़ारों अश'आर और पूरी दुनिया में दीवानगी. एक दीवाना, मोहब्बत के अल्फ़ाज़ और दुनिया की भाग-दौड़ में पत्थर बन चुके दिलों को 'राहत' मिलने की तमाम उम्मीदें. दिलों को मिलने वाली राहत और डॉ राहत इंदौरी साहब के बीच शानदार रिश्ता था. वो क़लमकार, जिसने अपनी क़लंदरी से दुनिया भर के शहंशाहों को ललकार दिया. उसकी आवाज़ में वो असर था, जो मुशायरों में मौजूद भीड़ की पिछली सफ़ में खड़े शख़्स को भी बांध लिया करता था.
जनाज़े पर मिरे लिख देना यारो
मोहब्बत करने वाला जा रहा है
-राहत इंदौरी
पैदाइशी नाम राहत कुरेशी था और अदबी दुनिया ने राहत इंदौरी के नाम से पहचाना. राहत इंदौरी, सिर्फ शायर ही नहीं थे, बल्कि आज़ाद ख़याल और नाउम्मीदी से टूटे दिलों की दुनिया के लिए राहत थे, उम्मीद थे और सुकून का ज़रिया थे.
शाख़ों से टूट जाएं वो पत्ते नहीं हैं हम
आंधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे
- राहत इंदौरी
राहत इंदौरी को अदबी दुनिया में दिलचस्पी रखने वालों ने अपनी पलकों पर बिठाकर सुना, ये दुनिया का कमाल नहीं था, ये राहत इंदौरी की क़लम, लहज़ा, ज़िंदादिली, हाज़िर-जवाबी और वाक्पटुता का कमाल था. ये राहत इंदौरी का कमाल ही था, जब वो हज़ारों-हज़ार सामईन की मौजूदगी में माइक पर हवा में हांथ लहराते हुए एक आंख दबाकर अपना शेर डिलीवर करते थे, तो क्या बूढ़े, क्या जवान, उनकी आवाज़ के असर से मुशायरों में शामिल लोगों में पागलपन की बयार बह जाया करती थी.
राहत इंदौरी की शायरी में दुनिया को बेहतर बनाने की मुसलसल कोशिशें झलकती हैं. ग़ौर करने वाली बात है कि उनकी पैदाइश ही कुछ ऐसे ही दौर में हुई थी, जब उथल-पुथल भरे सियासी माहौल को बेहतर बनाने की कोशिशें की जा रही थीं.
हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
- राहत इंदौरी
साल 1950 की सर्दी इंदौर के लिए कुछ गर्मी भरी थी. तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके साथी वीपी मेनन आज़ादी के बाद भारतीय गणतंत्र में क़रीब 565 रियासतों का विलय करने की कोशिशों में जी-जान से लगे हुए थे. होल्कर यानी इंदौर रियासत ने भी गणतंत्र में शामिल होने का मन बना लिया था लेकिन इसके बादशाह यशवंत राव होल्कर द्वितीय और सरदार पटेल में संधि पत्रों पर हस्ताक्षर करने को लेकर कुछ मतभेद थे लेकिन आखिरकार इस रियासत ने भारतीय लोकतंत्र में यक़ीन जताते हुए, एक बेहतर राष्ट्र निर्माण में सहयोग देने के लिए अपनी राजशाही परंपरा को छोड़कर विलय के संधि-पत्रों पर दस्तख़त किए. ये 1 जनवरी 1950 का दिन था और इसी दिन राहत साहब की पैदाइश हुई थी.
कहते हैं अदब और साहित्य समाज का आईना होता है और राहत इंदौरी ने भी अपनी शायरी के ज़रिए इस बात पर दस्तख़त की. वे जब तक ज़िंदा रहे पूरी ज़िम्मेदारी और ईमानदारी के साथ समाज और सियासी रहनुमाओं को आईना दिखाने का काम करते रहे. उन्होंने दुनिया भर की सियासी ख़ुराफ़ातों को अपनी क़लम का निशाना बनाया.
राहत साहब की ग़ज़लों में मोहब्बत, सियासत, देशभक्ति, भाईचारा, मोटिवेशन के साथ और भी बहुत कुछ है. वीराने में निकले नए लोगों के लिए कुछ भी कर गुज़रने का जज़्बा भी है. राहत इंदौरी नई नस्लों को हिदायत देते हुए क्या कहते हैं...
राहत इंदौरी, हिंदुस्तान की आम अवाम के मुश्तरका ग़म को बयान करने वाले शायर थे. जब वे मंच पर आते थे, तो सिर्फ शायर ही नहीं होते थे, बल्कि उनमें एक फ़लसफ़ी और ज़माने की तमाम बुराइयों से लड़ता हुआ मुसाफ़िर भी नज़र आता था, जो किसी शख़्स के पहाड़ जैसे दर्द को अपने एक शेर के ज़रिए सुकून में तब्दील कर देने का माद्दा रखता हो.
राहत इंदौरी की आवाज़ में बग़ावत से भरी ललकार थी. ये ललकार कभी सरकारों पर सवाल खड़ा करते हुए गूंजी, कभी दुनिया के ज़ुल्म के ख़िलाफ़, तो कभी देश के दुश्मनों के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद हुई. इसीलिए उनके चले जाने के बाद भी उनकी आवाज़ दुनिया भर में गूंज रही है और उनके होने का एहसास दे रही है.
राहत इंदौरी के बेटे सतलज राहत aajtak.in के साथ बातचीत में अपने वालिद के बारे में कहते हैं, "राहत साहब को याद करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती है क्योंकि हम उनकी मौजूदगी पहले से ज़्यादा महसूस करते हैं. बचपन के दिनों से ही उनके साथ मेरी बॉन्डिंग बहुत गहरी रही, इसके साथ ही उनसे दूर रहने की भी आदत रही क्योंकि वो अक्सर मुशायरों की वजह से हमसे और शहर से दूर रहते थे."
सतलज राहत आगे कहते हैं, "हर रोज़ राहत साहब का कोई न कोई शेर, जुमला पूरी दुनिया के अंदर हवा में तैरता हुआ महसूस होता है. राहत साहब की मौजूदगी पहले से ज़्यादा अब है. मुझे नहीं लगता कि उनको याद करने की ज़रूरत है. वो हमारे आस-पास ही हैं."
पिछले दिनों सिंगर दिलजीत दोसांझ इंदौर के एक कॉन्सर्ट में परफ़ॉर्म करने पहुंचे थे, इस दौरान उन्होंने राहत साहब की ग़ज़ल (अगर ख़िलाफ़ हैं, होने दो...) के कुछ शेर पढ़े और कॉन्सर्ट को राहत साहब के नाम कर दिया.
दिलजीत से जुड़े सवाल पर सतलज राहत कहते हैं, "अच्छा शेर हमेशा आवारा हो जाता है. जब इंसान को अपने जज़्बात को एक्प्लेन करना होता है, तो वो शेर-ओ-शायरी का सहारा लेता है. राहत साहब का जो शेर दिलजीत ने कॉन्सर्ट में पढ़ा, वो इमरजेंसी के ज़माने में कहा गया था और ये हर अहद (ज़माना) में वापस जवान होता है. कभी सीएए-एनआरसी आंदोलन में, कभी किसी सियासी दल के ख़िलाफ़ या और भी कई मौक़ों पर. इस शेर का इस्तेमाल हमेशा सियासी लीडर्स करते रहे हैं. इस बार एक सिंगर ने भी किया और मुझे लगता है कि उन्होंने अपने जज़्बात का इज़हार किया और इंदौर में कॉन्सर्ट था, तो दिलजीत ने बहुत ही अलग तरीक़े से राहत साहब को याद किया. राहत साहब ऐसे ही याद किए जाते रहते हैं."
डॉ. राहत इंदौरी की बायोग्राफ़ी ‘राहत साहब’ लिखने वाले शायर और लेखक डॉ. दीपक रूहानी कहते हैं, "राहत साहब को याद करने पर कई बातें एक साथ याद आती हैं, उनके शेर तो हैं ही, उनके पढ़ने का अंदाज़ बिल्कुल जुदा था. मैंने राहत साहब पर काम किया और इस सिलसिले में उनसे कई बार मुलाक़ातें हुईं, उनका व्यवहार अपने से बहुत छोटों के प्रति बहुत अच्छा था. उनमें किसी तरह का कोई अहंकार और रौब नहीं था. ये ख़ूबियां इतने बड़े शायर में होना, याद आने वाली बातें हैं. राहत साहब की हंसी भी बहुत याद आती है. राहत साहब एक ट्रेंड और कल्ट हैं."
दीपक रूहानी आगे कहते हैं, "राहत साहब के कलाम में एंटी-स्टैब्लिस्टमेंट की शायरी है. उनकी बहुत सी ग़ज़लें हैं, जो कांग्रेस हुकूमत के दौरान कही गई थीं लेकिन वो आज भी प्रासंगिक ही लगती हैं. राहत साहब 'किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है' बहुत पहले से कह रहे थे. राहत साहब ने कभी स्थिति और परिस्थिति से समझौता नहीं किया. राहत साहब ने हमेशा जम्हूरियत (लोकतंत्र) को बचाने वाली शायरी की."
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नई पीढ़ी के जाने-माने लेखक और दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी कहते हैं, "हमें राहत साहब की शायरी और परफ़ॉर्मेंस की दो ही चीज़ें याद आती हैं, एक उनका तेवर और दूसरा नौजवानी. वो बुज़ुर्ग हो गए थे, उनके बाद भी उसके अंदर की नौजवानी बरक़रार थी. ये दो चीज़ें हमें शुरू से आख़िरी तक अपील करती रहीं और कभी बदली नहीं."
वे आगे कहते हैं कि राहत साहब में एक कशिश है, जो नये लोगों को उर्दू और शायरी की तरफ़ खींच लाती है. राहत साहब की शायरी से उर्दू अदब को जो एक अहम चीज़ मिली, वो ये है कि कंटेम्पररी मौज़ू'आत पर ग़ज़ल के ज़रिए किस तरह से अपनी बात कही जा सकती है. इस तरह के प्रयोग करने वाले शायरों में, राहत साहब अहम हैं.
राहत साहब ग़ज़लों में आने वाले मुश्किल अल्फ़ाज़ का मतलब भी बताया करते थे और मज़ाकिया लहजे में ये भी कहते थे कि अगर मेरा कोई शेर न समझ आए, तो समझिएगा कि मैंने कोई बड़ी बात कह दी है. ये वो बातें हैं, जो डॉक्टर राहत कुरेशी को 'राहत इंदौरी' बनाती हैं.
साल 2020 में अगस्त महीने की 11 तारीख़ को अदबी दुनिया के लिए दर्द भरी ख़बर आई कि राहत साहब ने 70 साल की उम्र में ज़िंदगी की आख़िरी सांस ले ली है.
राहत साहब भले ही दुनिया छोड़कर चले गए हों, लेकिन हम उन्हें अक्सर याद करते रहते हैं. उनकी आवाज़ हम सबके बीच उम्मीद की पुकार और दहाड़ की तरह ज़िंदा है. और कहते हैं कि ज़िंदा रहने के लिए आवाज़ का भरम ही काफ़ी होता है.
अभी ग़नीमत है सब्र मेरा अभी लबालब भरा नही हूं,
वो मुझको मुर्दा समझ रहा है उसे कहो मैं मरा नही हूं.
- राहत इंदौरी