
कहानी की तुलना में बाल उपन्यास की दुनिया बड़ी है. देर तक बच्चे को रिझाने और अपने में रमाकर रखने वाली. और साथ ही साथ, काल के भीतर एक लंबी, रोमांचक यात्रा कराने वाली, जिसकी आह्लादकारी स्मृति देर तक बाल पाठकों के मन पर छाई रहती है. कहना चाहिए, किसी अच्छे बाल उपन्यास की दुनिया भी बहुत हद तक बच्चों की अपनी दुनिया ही हो जाती है. उपन्यास पूरा पढ़ लेने के बाद भी उस दुनिया के भीतर बाल पाठकों की आवाजाही अनवरत चलती रहती है, और कई बार तो बहुत लंबे अरसे तक चलती रहती है. कोई पचास-साठ बरसों तक, और कभी-कभी तो जीवन में चला-चली के आखिरी कंपकंपाते लम्हों तक.
मुझे बचपन में 'चंदा मामा' पत्रिका में पढ़े गए ऐसे बाल उपन्यास आज भी याद हैं, जो आज साठ बरस बाद भी, जब-तब मुझे अपने साथ बहा ले जाते हैं. तब एकाएक मैं अपने आप को आठ-दस साल के एक भोले, जिज्ञासु बच्चे में बदलता देखता हूं, जिसके भीतर उस दुनिया की स्मृति भर से एक रोमांच सा तारी हो जाता है. और फिर वहां से लौट पाना आसान नहीं होता.
यही हाल किशोरावस्था में प्रेमचंद के 'निर्मला', 'वरदान', 'गबन', 'कर्मभूमि' सरीखे उपन्यासों को पढ़ने पर होता था. ये बड़ों के लिए लिखे गए उपन्यास थे, पर मुझ किशोर को यह समझ कहां थी. वह तो उन्हीं में डूबता था, और डूबते-डूबते इतना डूब जाता था, कि आज सत्तर बरस की उम्र में भी उनसे बाहर नहीं आ पाया, बल्कि कभी-कभी तो मन करता है, सारे काम-धाम एक ओर रखकर, एक बार फिर से उसी लय, उसी तल्लीनता से आकंठ डूबकर उन्हें पढ़ूं. फिर से उन्हें जिऊं, और साथ ही साथ अपनी उस भावुक किशोरावस्था को भी फिर से जी लूं, जो बहुत-बहुत सच्ची और निर्मल थी. यही वजह है कि उपन्यास में कोई करुण दृश्य पढ़ते ही मेरी आंखें आंसुओं से तर हो जाती थीं. और उन संवेदन क्षणों में जो भी मुझे देखता था, वह हैरान होता था कि अरे, यह क्या! मेरा पूरा चेहरा आंसुओं से गीला क्यों है? जबकि सच तो यह है कि उस समय मैं इस दुनिया से दूर, किसी और ही दुनिया में होता था, जहां खुद पर मेरा कोई बस नहीं था.
मेरे पाठकों और साहित्यिक मित्रों को यह जानकर हैरानी होगी, कि इस दुनिया के बहुत सारे दुख-दर्द, मुश्किलों, परेशानियों, और तमाम-तमाम समस्याओं को पहलेपहल मैंने किशोरावस्था में पढ़े इन उपन्यासों के जरिए ही जाना था. वास्तविक जीवन में तो बाद में उन्हें देखा. उनके दुख, त्रास और कुरूपताओं से परिचित हुआ, तो थोड़ा अचरज भी हुआ, कि अरे, इन्हें तो पहलेपहल मैंने प्रेमचंद के उपन्यासों के जरिए ही जाना था.
आज क्यों साहित्य की दुनिया मुझे अपनी गुरु लगती है? क्यों मेरा मन आज भी अच्छे साहित्य के लिए बेकाबू होता है? इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि सबसे पहले उसी से मैंने जीवन को उसके पूरे विस्तार, हंसी-खुशी और उदासी के विविध रंगों और एक अजीब से चकराने वाले उतार-चढ़ाव के साथ देखा था. सच कहूं तो जीवन को ठीक-ठीक समझने की शुरुआत मेरी यहीं से हुई थी. तो इसे केवल कल्पना की दुनिया या महज किस्सा-कहानी कहकर कैसे बिसरा सकता हूं मैं?
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बाल कहानियां लिखते-लिखते न जाने कब, शायद अनजाने में ही, मैं बाल उपन्यासों की ओर मुड़ा. बच्चों के लिए लिखी गई मेरी कहानियां हों या उपन्यास, उनके केंद्र में ज्यादातर बच्चे ही हैं. बल्कि सच तो यह है कि बच्चे ही मुझे चरित्र या पात्रों के रूप में फेसिनेट करते हैं. अपनी सरलता, अबोधता और नटखट शरारतों के साथ वे मुझे बहुत मोहते हैं. इस कदर कि मुझे बारीक रेशों में उनके आर-पार बुनी हुई कहानियां नजर आने लगती हैं. और फिर अचानक, न जाने कब, भीतर कोई कहानी या उपन्यास आकार लेने लगता है.
अकसर बच्चों का कोई उपन्यास लिखने के दौरान ही, कथा-विन्यास में नई-नई घटनाएं, मजेदार किस्से और बहुत सारे देखे-अदेखे प्रसंग जुड़ने लगते हैं. चरित्रों की नई-नई भाव-भंगिमाएं उभरती हैं, कुछ नए उदास या किलकते रंग भी. और तब मेरे अंदर बैठा हुआ कोई नेत्रविहान सूरदास, मन की आंखों से उस सबको देखता हुआ, इस कदर आह्लादित होता है कि उसकी देह की सारी सुध-बुध जाती रहती है. वह सिर से पैर तक आनंद विभोर हुआ सा, उस आनंद की भीनी-भीनी फुहारों से बाल पाठकों को भी भिगोने लगता है.
बच्चों के लिए लिखा गया मेरा पहला उपन्यास है 'गोलू भागा घर से'. मेरा खयाल है, सन् 2003 के आसपास मैंने इसे लिखा था. यह वह दौर था, जब बड़ों के लिए उपन्यास लिखने का खुमार मन में छाया हुआ था, और वह रात-दिन मेरा पीछा करता था. मोटे तौर से सन् 1992 से इसकी शुरुआत मानें, तो अगले कोई दस बरसों में 'यह जो दिल्ली है', 'कथा-सर्कस' और 'पापा के जाने के बाद' उपन्यास लिखे गए थे, और उनकी जबरदस्त चर्चा हुई थी.
इसी बीच बच्चों के लिए बहुत कविताएं, कहानियां लिखी गई थीं. ऐसे ही बाल साहित्य के लिहाज से मेरे जीवन की एक बड़ी घटना थी, मेधा बुक्स से मेरे बहुप्रतीक्षित इतिहास-ग्रंथ 'हिंदी बाल कविता का इतिहास' का छपकर आना, जिसे बहुत सराहा गया था. हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों ने भी इसकी बेहद सराहना करते हुए, अपनी बधाई दी थी. और फिर देखते ही देखते हिंदी के पूरे बाल साहित्य जगत में इसकी धूम मच गई. मेरे लिए ये बहुत आह्लाद भरे क्षण थे, बेहद रोमांचित करने वाले.
निस्संदेह, मेरे साहित्यिक जीवन की यह एक बड़ी और यादगार घटना थी. शायद इसी का यह प्रभाव था कि मेरा मन बाल साहित्य की ओर तेजी से झुका. तभी पहलेपहल मन में विचार आया कि मैंने बड़ों के लिए तो उपन्यास लिखे हैं, और उनकी पर्याप्त चर्चा भी हुई है. तो क्या मुझे बच्चों के लिए भी वैसे ही रसपूर्ण उपन्यास नहीं लिखने चाहिए, जो लीक से अलग और अपने आप में विशिष्ट हों? कहीं अंदर से आवाज आई कि प्रकाश मनु, तुम्हें बच्चों के लिए भी उपन्यास लिखने चाहिए. मैंने खुद को भीतर-बाहर टटोला, तो लगा कि मैं कुछ ऐसा लिख सकता हूं, जो औरों से अलग हो, और जिस पर मेरी भी अपनी कुछ छाप हो. साथ ही वह बाल पाठकों के दिलों को भी गहराई से छू सके....
यह मेरे जीवन का एक निर्णायक क्षण था. फिर एकाएक ही 'गोलू भागा घर से' की भूमिका बन गई थी. मेरे जीवन की एक सच्ची घटना थी, जो मुझसे यह लिखवा रही थी.
फिर लिखने का सिलसिला शुरू हुआ. जिस तरह मैं बड़ों के उपन्यासों के लिए काफी विस्तृत प्रारूप बनाता था, ऐसे ही इस उपन्यास का पहला प्रारूप बना जो करीब सत्तर-अस्सी पन्नों का रहा होगा. और फिर दूसरा, फिर तीसरा प्रारूप. मुझे याद है, कि यहां तक आते-आते मैं एक तीव्र प्रभाव की लपेट में आ गया था, जिसने मुझे पूरी तरह जज्ब कर लिया.... और फिर होते-होते एक दिन 'गोलू भागा घर से' उपन्यास पूरा हुआ. सच कहूं तो इसके पूरा होने पर मुझे कुछ वैसी ही खुशी हुई, जैसी बड़ों के लिए 'यह जो दिल्ली है' लिखकर हुई थी....'यह जो दिल्ली है' बड़ों की दुनिया में मेरी नई सृजन-यात्रा का पहला पड़ाव था, और 'गोलू भागा घर से' बच्चों की दुनिया की अंतर्यात्रा में मेरे एक नए पड़ाव का पहला आह्लादकारी अनुभव, जो अब मेरे वजूद, बल्कि मेरे रक्त, हड्डी और मज्जा का अनिवार्य हिस्सा बन चुका था.
उपन्यास पूरा होने पर मैंने खुद धड़कते दिल से, एक किशोर वय के बच्चे की तरह इसका हर्फ-हर्फ पढ़ा. और उन क्षणों की खुशी मैं बयान नहीं कर सकता, जो उपन्यास पूरा पढ़ लेने के बाद, मेरी आंखों के आगे मानो ठहर से गए थे. ओह, यह तृप्ति कितनी निर्मल, कितनी पवित्र, कितनी आह्लादकारी थी, कि मेरे भीतर जो कुछ उमग रहा था, वह बहुत कुछ इस बाल उपन्यास में ढल सा गया है. और इसके शब्दों को छुओ, तो छलछला पड़ता था.
जैसा कि मैंने पहले बताया, इससे पहले बड़ों के लिए 'यह जो दिल्ली है', 'कथा सर्कस' और 'पापा के जाने के बाद' उपन्यास लिखे जा चुके थे. पर बच्चों के लिए लिखे गए इस पहले उपन्यास की खुशी ऐसी थी कि भीतर समा नहीं रही थी. मेरे लिए यह भी एक बड़े सुख की बात है कि बाल पाठकों ने इसे बेहद पसंद किया. संभवतः सन् 2003 में ही यह छप भी गया था और अब तक इसके कोई बीस संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं.
'गोलू भागा घर से' पूरी तरह तो नहीं, पर एक सीमा तक आत्मकथात्मक उपन्यास है. असल में बचपन में मैं किसी बात पर नाराज होकर घर छोड़कर चला गया था. उस समय मेरे मन में अपने ढंग से जीवन जीने का सपना था और वही मेरे पैरों को दूर उड़ाए लिए जा रहा था. पर दो-तीन दिनों में ही पता चल गया कि वे घर वाले जिनसे रूठकर मैं घर छोड़कर जा रहा हूं, सचमुच कितने अच्छे हैं और उनके बिना इस दुनिया में जीना कितना मुश्किल है. हालांकि उस समय मन में जो आंधी-अंधड़ चले, वे ही 'गोलू भागा घर से' उपन्यास की शक्ल में सामने आए. उसे घरेलू नौकर के रूप में घर में जूठे बरतन माँजने और सफाई करने का काम मिला. साथ ही छोटे बच्चे को भी खिलाने-पिलाने और टहलाने का काम उसे करना था. दिन भर काम करने के बाद भी मालकिन की जली-कटी सुनने को मिलती तो उसका मन कलप उठता.
गोलू वहां से ऊबा तो कुछ समय बाद बहुत मामूली तनखा पर उसे एक फैक्टरी में काम मिला. बहुत तंग सी कोठरी में जीवन जीना पड़ा. यहां तक कि एक बार गोलू अपराधियों के चंगुल में भी फँस गया. पर अंत में अपनी बहादुरी से वह अपराधियों को पकड़वा देता है. पुलिस कप्तान रहमान साहब उसकी बहादुरी की प्रशंसा करते हैं और उसे घर तक छोड़ने आते हैं. अखबारों में उसके साहस की कहानी छपती है. उससे इंटरव्यू लिए जाते हैं और दूर-दूर तक उसका नाम फैल जाता है. अब घर में भी सब उसे प्यार करने लगते हैं.
पर गोलू घर से भागा क्यों था? इसलिए कि उसके पढ़ाई में नंबर कम आते थे और पापा ने उसे बुरी तरह डांटा था. असल में हम भूल जाते हैं कि इस दुनिया में हर किसी की अपनी जगह है. पर अकसर हम अपने एक बच्चे का उदाहरण देकर दूसरे को लज्जित और लांछित करते हैं और तभी इस तरह की घटनाएं घटती हैं, जिनका वर्णन 'गोलू भागा घर से' उपन्यास में मिलता है. यह उपन्यास काफी तकलीफ के साथ लिखा गया था. पर बीच-बीच में गोलू को लगातार ऐसे लोग मिलते हैं, जो उसके दुख को हलका करते हैं. उपन्यास में आशा और उम्मीद की ये उजली पगडंडियां बेशक बाल पाठकों को भी राहत देती हैं.
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साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत मेरा बाल उपन्यास 'एक था ठुनठुनिया' इससे एकदम अलग मिजाज का है. जैसा कि मैंने पहले भी कहा, 'गोलू भागा घर से' उपन्यास में दुख की स्याही कुछ अधिक फैल गई है. इस लिहाज से 'एक था ठुनठुनिया' मस्ती की धुन में लिखा गया बाल उपन्यास है. यों भी ठुनठुनिया हर वक्त बड़ा मस्त रहने वाला पात्र है. हालांकि उसके घर के हालात अच्छे नहीं हैं. पिता हैं नहीं. माँ बहुत गरीबी और तंगी की हालत में उसे पाल-पोस रही है. पर इन सब परेशानियों के बीच ठुनठुनिया उम्मीद का दामन और मस्ती नहीं छोड़ता. वह बड़ा खुशमिजाज, हरफनमौला और हाजिरजवाब है और इसीलिए बड़ी से बड़ी मुश्किलों के बीच रास्ता निकाल लेता है.
माँ चाहती है कि ठुनठुनिया पढ़-लिखकर कुछ बने. पर उसे तो किताबी पढ़ाई के बजाय जिंदगी के खुले स्कूल में पढ़ना ज्यादा रास आता है. इसीलिए वह कभी रग्घू चाचा के पास जाकर खिलौने बनाना सीखता है तो कभी कठपुतली वाले मानिकलाल की मंडली के साथ मिलकर कठपुतलियां नचाने का काम शुरू कर देता है. पर फिर एक बार अपने शो के दौरान अचानक उसे मास्टर अयोध्या बाबू मिलते हैं और उनसे माँ की बीमारी की खबर पता चलती है तो ठुनठुनिया सब कुछ छोड़-छाड़कर अललटप घर की ओर दौड़ पड़ता है. वह फिर से पढ़ाई में जुटता और कुछ बनकर दिखाता है.
पर वह अपने दुर्दिन के साथियों को नहीं भूलता और उपन्यास के अंत में सबको साथ लेकर लोक कलाओं के एक ऐसे संगम को साकार रूप देता है, जहां अलग-अलग कलाओं के लोग एक साथ काम करते हैं.
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और अब प्रकाशन विभाग से छपे बाल उपन्यास 'पुंपू और पुनपुन' की बात की जाए. 'पुंपू और पुनपुन' में, जैसा कि नाम से ही पता चल जाता है, एक तो पुंपू है और एक पुनपुन. जाहिर है नन्हा, नटखट पुंपू कम शरारती नहीं है. और पुनपुन...? भई, वह तो एकदम ही शैतानों की नानी है. मगर 'पुंपू और पुनपुन' बाल उपन्यास ऐसे ही नहीं लिखा गया. उसकी कहानी तो 'चीनू का चिड़ियाघर' से शुरू होती है. तो चलिए, 'चीनू का चिड़ियाघर' की ही बात की जाए.
मैं नहीं जानता कि पता नहीं कब, एक छोटी, बहुत छोटी-सी बच्ची कब मेरे जेहन में आकर बैठ गई और एक दिन बड़ी मासूमियत से बोली, "अंकल, लिखो, मुझ पर लिखो ना कोई कहानी. नहीं लिखोगे?''
झूठ नहीं बोलूंगा, उसका कहना मुझे अच्छा लगा. सचमुच अच्छा, बहुत अच्छा. पर इतनी छोटी, इतनी भोली और इतनी नटखट थी वह बच्ची कि मैं तो चकरा गया कि कहानी क्या लिखूं? पर खुद वह अपने किस्से बताती गई और कहानी आगे बढ़ती गई....उस छोटी बच्ची को, चीनू जिसका नाम था, घूमना बहुत पसंद था. कभी वह रास्ते पर जा रही होती तो उसे बाघ मिल जाता, कभी भालू, कभी ऊंट और कभी बड़ी-बड़ी सूंड़ हिलाते हुए अलमस्त हाथी दादा. सबके साथ उसकी दोस्ती हो जाती और उनकी पीठ पर बैठकर वह पूरे जंगल में घूम आती. जंगल के जानवर उसे बहुत प्यार करते और उस पर जान छिड़कते थे....
मैंने सबसे प्यार करने वाली खुशदिल बच्ची चीनू के बारे में लिखना शुरू किया तो कलम चली और बस चलती ही गई. और जब कलम रुकी, तो मेरे सामने पड़ा था एक छोटा-सा उपन्यास, बल्कि कहना चाहिए, शिशु उपन्यास- 'चीनू का चिड़ियाघर'.
मगर 'चीनू की चिड़ियाघर' उपन्यास अभी खत्म किया ही था कि तभी 'नन्ही गोगो के अजीब कारनामे' की नींव पड़ गई. कैसे...? चलिए, यह किस्सा भी सुना देता हूं. और इसका संबंध भी चीनू से ही है.
असल में 'चीनू का चिड़ियाघर' लिखकर मैंने सोचा था, "चलो, मुक्ति मिली!'' पर मुक्ति क्या इतनी जल्दी मिलती है? थोड़े समय बाद मैंने देखा कि वही जो 'चीनू का चिड़ियाघर' की चीनू है ना, थोड़ी-सी बड़ी होकर मेरे पास आ गई और बोली, "अंकल, मुझ पर लिखो, कोई कहानी!...पर जरा बढ़िया-सी लिखना.''
ओह, मेरे तो छक्के छूट गए! मैंने कहा, "ओ चीनू, तुम पर लिखा तो था 'चीनू का चिड़ियाघर'. तो अब...! अब क्या चाहिए तुम्हें?'' सुनकर वह फिक्क से हंसने लगी. और उसका एक टूटा हुआ दांत था, वह भी हंसने लगा. बोली, "अरे अंकल, अब मैं वही चीनू छोड़े ही हूं! अब मैं बड़ी हो गई हूं. और हां, अब मैंने अपना नाम भी बदल लिया है. गोगो!...अब गोगो नाम है मेरा. कहिए मनु अंकल, मेरा नाम पसंद आया आपको?''
"बहुत-बहुत पसंद आया...गोगो कमाल का नाम है! पर भई गोगो, अब मैं लिखूंगा क्या? बस यही नहीं सूझ रहा.''
"वाह, इसमें क्या मुश्किल है?'' गोगो बिल्कुल दादी-नानी बनकर बोली, "ईजी...वेरी ईजी! आप तो मनु अंकल, बड़ी फनी बातें करते हैं, वरना मुझ पर लिखना क्या मुश्किल है? आपको पता है, मैं दिन भर अपने खिलौने से क्या-क्या मजेदार खेल खेलती हूं और क्या-क्या बातें करती हूं! और अभी परसों तो मैंने अपने टेडीबियर को खीर भी खिलाई थी, सच्ची-मुच्ची! कभी खेलते-खेलते ठुनककर मैं कहां से कहां गायब हो जाती हूं और मम्मी को कैसे छकाती हूं—यह तो मम्मी से ही आप पूछना! कभी उन्हें मुझ पर गुस्सा आता है, कभी वे मुझ पर कभी रीझती हैं और हंसते-हंसते बेहाल हो जाती हैं. क्या आप इसे लिख नहीं सकते? तो लिखिए ना, लिख डालिए जल्दी से!...और हां, दो-चार किस्से जरा अपने दिमाग से भी डालिए. आखिर आप राइटर किस बात के हैं?''
हां तो दोस्तो, बात माननी पड़ी गोगो की. और फिर कलम चली तो कुछ ऐसे कि मैं खुद चकरा गया कि "भैया, चल तो पड़ी...मगर ये रुकेगी कहां?'' क्योंकि गोगो की शरारतों के मजेदार किस्से तो खत्म होने में ही नहीं आते थे. फिर एक दिन गोगो आई तो चहककर बोली, "अच्छा अंकल, बाय...! अब मैं जाती हूं.'' कहकर गई, तो मैंने हकबकाकर देखा, मेरे सामने मेरी टेढ़ी-मेढ़ी लिखाई और उलझी-उलझी सतरों में लिखे गए कोई अस्सी-नब्बे पन्ने पड़े थे. और पहले सफे पर सबसे ऊपर लिखा था, बाल उपन्यास- 'नन्ही गोगो के अजीब कारनामे'.
यह कुछ ऐसा मामला था कि मैं कुछ चकित और कुछ हक्का-बक्का-सा था. किसी छोटी बच्ची पर, बहुत छोटी बच्ची पर- जो बहुत भोली थी, नटखट भी और जब देखो तब कल्पना की दुनिया में ही मिलती थी- मैं कुछ लिखूंगा, सच पूछो तो इससे पहले मैंने सोचा नहीं था. पर गोगो तो ठहरी गोगो. अब तक जो कुछ मैंने लिखा, उससे शायद ज्यादा तसल्ली नहीं थी उसे....या शायद उसकी छोटी-सी दुनिया, जो कुछ मैंने लिखा, उससे बड़ी, बहुत बड़ी, बहुत-बहुत बड़ी थी. मैंने जो कुछ भी लिखा, उसमें बहुत कुछ था, जो छूट गया था और शायद इसीलिए गोगो विकल थी.
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तो एक दिन क्या देखता हूं, गोगो फिर मेरे सामने मौजूद है. वह पहले से थोड़ी और बड़ी हो गई है और भोलेपन की जगह उसकी बांकी-बांकी शरारतों ने ले ली है. आते ही बोली, "देखिए मनु अंकल, आपको बस एक बार और मेरी कहानी लिखनी है- बस, एक बार और! फिर मैं नहीं कहूंगी.''
"ना-ना...गोगो ना, अब मैं भला क्या लिखूंगा?'' कहकर मैंने रस्सी छुड़ानी चाही, तो उसकी वही फिक्क-सी हंसी खिल उठी. बोली, "अंकल, अब मैं बड़ी हो गई हूं, तो मेरा नाम भी बदल गया है. अब मैं पुनपुन हूं, पुनपुन! और हां, आप मेरे भाई से नहीं मिले- अरे, पुंपू, ओ पुंपू, कहां गया?'' पुनपुन के पुकारते ही उसका शरारती भाई पुंपू हाथ में क्रिकेट का बल्ला लिए और सिर पर कैप लगाए मेरे सामने मौजूद....और फिर उन दोनों ने भाई, आफत मचा दी. सच्ची-मुच्ची! ऐसे-ऐसे प्यार और झगड़े के किस्से कि सुनते-सुनते कभी मैं मुसकराता, कभी सीरियस हो जाता और कभी पेट पकड़कर इस बुरी तरह हंसता कि हंसते-हंसते मेरी हालत खराब हो जाती.
आखिर में वही हुआ, जिसके लिए पुंपू ने इतना जोर देकर कहा था. फिर से कलम चली और मुझे नहीं पता कि मेरी कलम को कौन कहां-कहां किन बीहड़ों में, और किस अजीबोगरीब दुनिया में उड़ाए लिए जाता है जिसमें रोजमर्रा की छोटी-मोटी शरारतों, झगड़ों, शिकवे-शिकायतों, रूठने और मनाने के अनंत किस्सों के साथ एक अजब बात यह हुई कि रियल दुनिया और फंतासी के बीच के सारे फर्क गायब हो गए. यह तो अजब हालत थी. बड़ी अजब, पर इसमें आनंद भी बहुत था. किसी फाख्ता की तरह दूर-दूर तक उड़ने का आनंद. मैं इस दुनिया को कभी न जान पाता, अगर 'चीनू का चिड़ियाघर' वाली चीनू से न मिलता, 'नन्ही गोगो के अजीब कारनामे' वाली गोगो से न मिलता और पुंपू और पुनपुन से न मिलता.
इससे बच्चों की दुनिया को मैं कितना समझ पाया, यह तो मैं नहीं जानता, पर हां, इससे मेरे साथ एक गड़बड़ यह जरूर हुई है कि कभी बड़ों की दुनिया में बैठना पड़े तो मैं हकबका-सा जाता हूं और समझ नहीं पाता कि किससे क्या बात करूं? पर बच्चों की दुनिया में पहुंचते ही मेरी आंखों में खुशी की चमक आ जाती है और थोड़ी देर में ही मैं उनके साथ मजे में गप्पें लगाता हुआ, हंसता-खिलखिलाता नजर आता हूं.
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राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से छपे अपने बहुचर्चित बाल उपन्यास 'नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे' के बारे में भी शायद मुझे चंद सतरें लिखनी चाहिए. इस उपन्यास में भी एक छोटा बच्चा है, कुप्पू. इसे आत्मकथात्मक उपन्यास तो मैं नहीं कहना चाहूंगा, पर बचपन में मैं कैसा था, इसकी एक झलक इसमें जरूर है. आप कह सकते हैं, कुप्पू की नटखट शरारतों में मेरे समय का बचपन और आज का बचपन एकमेक होकर सामने आते हैं. हां, इतना और बता दूं कि बचपन में मेरा नाम कुक्कू था. शायद वही कुक्कू इस बाल उपन्यास में थोड़ी शक्ल बदलकर कुप्पू के रूप में मौजूद है.
इस उपन्यास का नायक कुप्पू बैठा-बैठा कुछ सोचता रहता है और फिर उससे तरह-तरह के किस्से-कहानियां शुरू हो जाती हैं. एक बार उसने सोचा कि अगर यह कुर्सी, जिस पर मैं बैठा हूं, उड़ने लगे तो कितना मजा आएगा! और फिर सचमुच कुप्पू की कुर्सी उड़ने लगती है और बड़े अजब-गजब तमाशे होते हैं. यों 'नटटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे' में बाहर की नहीं, अंदर की दुनिया है. उसके सपने और इच्छा-संसार ही इन कहानियों की शक्ल में ढल गया है. कभी उसे गणित देश के राजा-रानी, राजकुमार और राजकुमारी मिलते हैं जो पलक झपकते उसकी उलझनें सुलझाते हैं तो कभी सपने में गुलाबी देश के पूंछ वाले लोग. विचित्र दृश्यों, विचित्र सपनों और फंतासी वाली इन कहानियों में कहीं कुरकुरे बिस्कुट की बेकरी वाले भोलाभाई नजर आते हैं तो कहीं धूप की चादर ओढ़कर घूमता कुप्पू हमें हैरान कर देता है.
हालांकि इन्हीं नटखट शरारतों के बीच कुप्पू धीरे-धीरे बड़ा भी हो रहा है. उपन्यास के अंत में कुप्पू के एक निबंध में देश को आगे ले जाने का उसका सपना हर किसी को हैरान कर देता है और कुछ समय बाद ही डॉ कलाम का संदेश उसे मिलता है, "शाबाश कुप्पू...!''
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अब साहित्य अकादेमी से प्रकाशित अपने रोमांचक बाल उपन्यास 'खजाने वाली चिड़िया' के बारे में दो शब्द. मेरे अब तक के बाल उपन्यासों से यह काफी भिन्न है. इसमें चार दोस्त हैं. एक मोटा यानी भुल्लन है, एक दुबला-पतला सींकिया पिंटू है, एक बड़ा भावुक और कल्पना की दुनिया में रहने वाला नील है और इन सबका लीडर या कप्तान संजू है, जिसकी बात सभी मानते हैं. उनमें से सभी को खजाने वाली चिड़िया का सपना आता है, जिसके मिल जाने से उनकी सारी मुश्किलें खत्म हो जाएंगी.
वे जब भी आपस में मिलते हैं, उसी की बातें करते हैं. घर के लोग छोटी-छोटी चीजों के लिए पैसे की तंगी का रोना रोते रहते हैं. इन चारों नन्हे नायकों को लगता है कि उस खजाने वाली चिड़िया से बहुत सारा धन मिल जाने के बाद उनकी सारी परेशानियां खत्म हो जाएंगी. और फिर एक दिन घर वालों को बिना बताए वे उसकी तलाश में निकल पड़ते हैं. वह खजाने वाली अनोखी चिड़िया कहां मिलेगी, उन्हें पता नहीं है. पर वे यहां-वहां भटकते हुए, हर जगह उसे ढूंढ़ते हैं.
वे पहले जंगल में उसकी तलाश करते हैं, जहां उन्हें बहुत तरह के विचित्र अनुभव होते हैं. कहीं विशाल हाथी तो कहीं रहस्यमय गुफाएं मिलती हैं, कहीं पुराने जमाने का खूबसूरत महल. फिर एक बूढ़े साधु बाबा मिलते हैं, जो बरसों से इसी जंगल में हैं. वे अपनी कहानी सुनाकर चारों बच्चों को घर लौटने के लिए कहते हैं. पर अभी ये नन्हे उत्साही बच्चे खजाने वाली चिड़िया की कुछ और तलाश करना चाहते हैं. चलते-चलते वे एक अजब देश में पहुंचते हैं जहां आलसी लोग बसते हैं. उन्हें ठगों से जूझना पड़ता है और फिर वे एक ऐसे स्थान अलगोजापुर में पहुंचते हैं, जहां हवाओं में संगीत बिखरा हुआ है. वहां से लौटते समय शहर आकर वे एक आलीशान मगर खूनी कोठी तक जा पहुंचते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां बच्चे अंदर जाते हैं, पर फिर उनका कुछ पता नहीं चलता.
अंत में पुलिस कप्तान हरिहरनाथ से मिलकर वे अपराधियों को पकड़वाते हैं. सब ओर उनके नाम का डंका बजने लगता है. तभी घर के लोग उन्हें लेने आ पहुंचते हैं. उपन्यास के अंत में ये चारों उत्साही दोस्त घर लौट रहे हैं और उनकी आंखों में जीवन में कुछ करने का सपना है. उन्हें खुशी है कि खजाने वाली चिड़िया भले ही नहीं मिली, पर अब उनके पास अपने अनुभवों का विशाल खजाना है, जो जिंदगी जीने में उनकी बड़ी मदद करेगा.
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'सब्जियों का मेला' मेरे लिखे बाल उपन्यासों में सबसे अजब और निराला है. हास्य-विनोद और कौतुक से भरपूर एक ऐसा उपन्यास, जिसे लिखने में खुद मुझे बहुत आनंद आया. हालांकि यह मेरे उन बाल उपन्यासों में से है, जिन्हें लिखने में बहुत समय लगा. मैं चाहता था कि सब्जियों का एक जीता-जागता और हलचलों भरा संसार बच्चों के सामने आए. और उसमें हर सब्जी की एक निराली ही छवि हो. औरों से बिल्कुल अलग, और अपने आप में बड़ी अद्भुत भी.
आप कभी जरा गौर से देखिए तो! भिंडी हो या करेला, या फिर लौकी, टिंडा, टमाटर, पालक, गाजर, आलू, कचालू, कटहल, गोभी, परवल. मूली, मिर्च, धनिया, पुदीना सबकी कैसी अलग भंगिमा, एक अलग ही अदा और धज है. क्या वह मेरे उपन्यास में नहीं उभरनी चाहिए? मैंने तय किया कि जब तक ऐसा नहीं होता, मैं इस पर काम करता रहूंगा....
मेरे अंदर बैठा वह पता नहीं कौन चित्रकार था, जो हर सब्जी की शख्सियत कुछ ऐसे उभार रहा था, कि कोई कोना छूटा नहीं रहने देना चाहता था. कभी उमेश भाई को बोल-बोलकर लिखवाते हुए, थोड़े विनोद भाव से मैं खुद भी हंसने लगता. कभी मेरी आंखों में अचानक ही लास्य भाव तैरने लगता, और चेहरे पर एक मीठी शरारत आ जाती. यह भी किसी बच्चों के खेल जैसा खेल ही तो था. और मुझे इसमें मजा आ रहा था....लेकिन फिर जब मैंने करेला रानी को सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की तेजस्विनी नेत्री के रूप में चित्रित किया, तो भाषा में बड़ा अद्भुत आवेग भी आया. लौकीदेवी का किसी शांत रस से भरपूर देवी जैसा चित्रण करना मुझे प्रिय लगा. सच पूछिए तो वह धरती की महादेवी लगती है, जिसके भीषण कष्ट और उन्हें अपने जीवन भर के तप और संयम से सुनहला कर लेने की उसकी कूवत, दूसरों के लिए जीवन निसार करने की तड़प, सब कुछ अद्भुत है. बड़ी उदात्त. वह सच में इस धरती की कोई पवित्र संन्यासिनी है, जिसे किसी एकांत में तपस्या करने में नहीं, बल्कि सबके सुख-आनंद के लिए कुछ करने में ही सच्चा आनंद मिलता है.
इसी तरह सब्जीपुर के दो खास चरित्रों टिंडामल और कद्दूमल के चरित्रांकन में जो हास्य रस उभरा, उससे शुरू में तो मैं खुद ही अनजान था. और कद्दूमल की विचित्र घुड़सवारी तो कोई इस उपन्यास को पढ़ने के बाद भूल ही नहीं सकता. श्रीमान कटहलराम का पुरानी जमींदारी वाली शान से मंडित दर्प भरा व्यक्तित्व भी सब्जीपुर में निराला ही है. बैगन राजा का सरल हास्य-विनोदमय रूप ही मुझे भाया, जिसमें एक स्वाभाविक राजसी गरिमा भी है. हालांकि थोड़ी चिकनी मुसकान ओढ़े मंत्री आलूराम का चित्रण करते हुए, उसकी चतुराई भरी भंगिमाओं को भी आंकना मुझे जरूरी लगा. ऐसे ही सब्जीपुर के दो पक्के दोस्तों आलूराम, कचालूराम के आपसी प्यार के साथ-साथ उनकी कुट्टी और अब्बा का किस्सा तो खुद में एक पूरा नाटक ही है, जिसे मैंने खासी नाटकीयता के साथ, और बहुत रस ले-लेकर लिखा है.
उपन्यास के अंत में सब्जियों के महा सम्मेलन वाला अध्याय भी बहुत आनंद ले-लेकर लिखा गया. इस महा सम्मेलन में गाए गए गीत उसकी जान हैं. इनमें सब्जियों से जुड़ी समस्याओं भी उभरीं, उनकी खुशियां और दर्द भी.
'सब्जियों का मेला' उपन्यास लिखने का एक मकसद और भी था. अकसर बच्चे घर में सब्जियां तो बहुत देखते हैं. पर शायद उम्हें लगता हो कि सब्जियों तो बाजार में मिलती हैं. गए और खऱीद लाए. पर सब्जियां बाजार और मंडियों में आती कहां से हैं? जरा इस बारे में वे गहराई से सोचें तो बहुत नई-नई बातें उनके सामने निकलकर आएंगी. तभी यह भी समझ में आएगा कि हर सब्जी का, फिर चाहे वह करेला, कद्दू, लौकी, धनिया, पुदीना और हरी मिर्च ही क्यों न हो, दूसरों से जुदा व्यक्तित्व है. फिर आलू, बैगन, गोभी, मटर, गाजर जैसी सब्जियों के रोब-दाब, रूप-रंग और ठाट का तो कहना ही क्या है! सबकी एक अलग शान और अदा है, जो दूर से ही पुकारती है, "जरा हमें समझो!...हमें भी पहचानो!''
हो सकता है कि सब्जियों के इस दिलचस्प अंदाज को देखकर बाल पाठकों के मुंह से निकल पड़े, "अरे, सब्जियों की दुनिया इतनी रंगारंग, खूबसूरत और विविधताओं से भरी है, यह तो हमें पता ही नहीं था!''
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बच्चों के लिए लिखे गए अपने ताजा उपन्यासों में 'किस्सा चमचम परी और गुड़ियाघर का' मुझे काफी पसंद है, जो बिल्कुल नए ढंग का, और बहुत जिंदादिल चरित्रों से भरा एक फंतासी उपन्यास है. कहानी की नायिका है नीला, जिसकी परीक्षाएं खत्म हो गई हैं. वह घूमते हुए चाँदनी चौक के एक पार्क में जाती है. उसने सोचा था कि आज वहां काफी बच्चे आएंगे और खास हलचल होगी. पर उसे यह देखकर हैरानी होती है कि वह पार्क तो एकदम खाली-खाली सा है. पता नहीं बच्चे आए क्यों नहीं?...पर थोड़ी देर में श्वेत वस्त्र पहने एक सुंदर बच्ची उसे नजर आती है. उसे लगा, यह कुछ अलग सी है. फिर जब बातों-बातों में नीला को पता चला कि वह एक परी है और उसके बारे में बहुत कुछ जानती है, तो वह अचकचा सी गई, 'क्या सचमुच?'
चमचम परी को अभी धरती के बारे में बहुत सी बातें नहीं पता. पर वह नीला के साथ घूमने निकलती है तो थोड़ा-थोड़ा इस धरती और यहां के लोगों को जानने लगती है. तमाम दुख और परेशानियों के बावजूद अपनी धुन में जी रहे लोगों के दिलों में बसे अपरंपार प्यार, करुणा और सहानुभूति को भी, जिसने उसका मन मोह लिया है. नीला के साथ चाँदनी चौक के बाजार में घूमते हुए चमचम परी की मुलाकात एक बूढ़े बांसुरी वाले से भी होती है. उसकी एक बेटी थी, जो बरसों पहले गुजर गई थी. चमचम परी को देखकर उसे अपनी खोई हुई बेटी की याद आ गई, जो ऐसी ही प्यारी थी, जैसी चमचम परी. और यह सब बताते हुए बूढ़े बांसुरी वाले की आवाज में जैसे प्यार और करुणा छलछला उठती है.
चमचम परी के लिए यह एक अलग ही अनुभव था, जिसने उसे भी भावुक बना दिया. उसने जीवन में पहले कभी यह अनुभव नहीं किया था. ऐसे ही नीला अपनी सहेली पिंकी और चमचम परी के साथ गुड़ियाघर की सैर करने निकली, तो जो विचित्र अनुभव उन्हें हुए, वे सब भी एक भावपूर्ण किस्से के रूप में इस उपन्यास में मौजूद हैं.
कहने को 'किस्सा चमचम परी और गुड़ियाघर का' एक फंतासी उपन्यास है. पर यह उपन्यास सच पूछिए तो प्रेम रस से सराबोर है, जिसमें जीवन छल-छल कर रहा है. उपन्यास खत्म कर लेने के बाद भी बच्चे न चमचम परी को भूल पाँएंगे और न नीला, पिंकी व उनकी अन्य सहेलियों को. मित्रता की बड़ी प्रसन्न और मनोहारी छवियां हैं इसमें. चमचम परी के साथ चाँदनी चौक और गुड़ियाघर की सैर का वर्णन खुद मैंने इतना रस लेकर किया है, कि मुझे यकीन है, बच्चे इन्हें पढ़ेंगे तो आनंदविभोर हो उठेंगे.
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मेरे ताजा बाल उपन्यासों में 'चिंकू-मिंकू और दो दोस्त गधे' भी ऐसा ही दिलचस्प और लीक से हटकर लिखा गया बाल उपन्यास है. इसमें चिंकू और मिंकू दो दोस्त हैं और उनके दो गधे हैं, बदरू और बांका, जिनकी आपस में गहरी दोस्ती है. एक दफा चिंकू और मिंकू ने सोचा कि आदमी बैठा-बैठा गोबर का चौथ हो जाता है, तो चलो, कहीं घूमकर आते हैं. फिर वे यह भी सोचते हैं कि इस बहाने उनके दोस्त गधे भी जरा दुनिया देख लेंगे और उनका जी भी बहलेगा.
सो चिंकू, मिंकू और उनके दो दोस्त गधे बदरू और बांका एक लंबी य़ात्रा पर निकल पड़ते हैं, जिसका ओर-छोर खुद उन्हें भी पता नहीं था. रास्ते में तरह-तरह के लोग मिलते हैं, कई दुख-परेशानियां और मुश्किलें आती हैं, पर साथ ही नए-नए अनुभव भी होते हैं. कभी-कभी तो इतने अच्छे लोग मिल लोग मिल जाते हैं, और उनके साथ ही इतने अचरज भरे अनुभव भी, कि वे रोमांचित हो उठते हैं. सोचते हैं कि अगर घर में ही बैठे रहते तो भला इतने प्यारे लोग, और ऐसी रंग-बिरंगी दुनिया भला कहां देखने को मिलती? और उनके दोस्त गधों की अपरंपार खुशी का तो कहना ही क्या. वे तो मानो खुशी से फूले नहीं समा रहे. पहली बार उन्होंने इतनी लंबी-चौड़ी, खुली दुनिया देखी थी, जिसमें अपना हुनर दिखाने के लिए वे बेसब्र हो उठे.
रास्ते में जगह-जगह बच्चे उन्हें घेर लेते. ऐसे में बदरू और बांका को अपने नायाब करतब दिखाने का मौका मिल जाता और बच्चे तालियां बजा-बजाकर उनका उत्साह बढ़ाते. कुछ लोग हैरान होकर पूछते, "भैया तुम लोग किस सर्कस कंपनी के हो?'' सुनकर चिंकू और मंकू मुसकराने लगते.
इस बीच बहुत कुछ घटता है. चारों ओर चिंकू-मिंकू और उनके करामाती गधों की चर्चा होने लगती है. जो भी उन्हें देखता है, तारीफ के पुल बांधे बिना नहीं रहता. गधे भी इसे महसूस करते हैं, और अपने ही ढंग से उछल-कूदकर अपनी खुशी प्रकट करते हैं. बेड़नी गांव में बदरू और बांका ने अपना कौतुक भरा खेल-तमाशा दिखाया तो गांव के मुखिया रामभद्दर एकदम हक्के-बक्के ही रह गए. उन्होंने पूछ ही लिया, "क्यों जी, चिंकू-मिंकू...? तुम जो भी कहो, वही तुम्हारे ये जादूगर गधे पल भर में कर देवे हैं. तो क्यों जी, क्या ये तुम्हारी बोली-बानी भी समझते हैं, या फिर कोई और ही चक्कर है...?''
बीच-बीच में कुछ परेशानियां खड़ी करने वाले लोग भी मिलते हैं. पर आखिर में कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उन्हें खुद ही शरमिंदा होना पड़ता है. जितने स्वाभिमानी चिंकू और मिंकू हैं, उतने ही उनके दोस्त गधे बदरू और बांका भी. इसीलिए कुछ महा घमंडी धनपतियों ने ढेर सारा पैसा देकर, बदले में बदरू और बांका को खरीदना चाहा, तो दोनों दोस्तों के साथ-साथ बदरू और बांका ने भी ऐसे तेवर दिखा दिए कि वे मुंहमारे से हो गए.
फिर एक लंबे अरसे बाद चिंकू, मिंकू को घर की याद आई. अपने प्यारे-प्यारे दोस्त गधों के साथ वे घर वापस चल पड़े. बहुत दिनों बाद वे अपने गांव पोशंगीपुर लौटे तो सोच रहे थे कि कहीं घर वालों की डांट न खानी पड़े. पर उनसे भी पहले उनकी शानदार कारनामों की कहानियां गांव में पहुंच चुकी थीं. फिर तो दोनों दोस्तों चिंकू-मिंकू और उनके प्यारे-प्यारे दोस्त गधों का जोरदार स्वागत होना ही था. वह हुआ. और उन करामाती गधों को भी अब सबका प्यार-दुलार और इज्जत मिलने लगी.
सारी दुनिया अब चिंकू-मिंकू और उनके दोस्त गधों को जान गई थी और अब उनकी जिंदगी में भी हंसी-खुशी के नए रंग बिखर गए थे.
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'भोलू पढ़ता नई किताब' भी कुछ अलग ढंग का उपन्यास है, जो पढ़-लिखकर कुछ बनने की सीख देता है. पर यह संदेश उपन्यास में किसी स्थूल उपदेश के रूप में नहीं है, बल्कि पूरी कहानी में इतने महीने धागे की तरह पिरोया हुआ है कि बाल पाठक पढ़ते हुए खूब आनंदित होते हैं.
उपन्यास का नायक है, भोलू. एक भालू का बच्चा, जिसे पढ़ना-लिखना नहीं आता. सब बुद्धू कहकर उसकी हंसी उड़ाते हैं, इसलिए वह मलिंगा जंगल से, जहां उसका घर है, भागकर बहुत दूर चला आया. थककर वह एक पेड़ के नीचे बैठा है, पर उसके भीतर की हलचल फिर भी नहीं थमती. लोगों के उपहास भरे बोल अब भी उसके कानों गूँज रहे हैं. दुख के मारे भोलू अकेले में ही बुदबुदाने लगता है, "मेरी जिंदगी बेकार है. इससे तो मैं मर ही जाता, तो अच्छा है...!''
भोलू की बुदबुदाहट उस पेड़ पर बैठे एक बंदर मुटकू ने सुन ली. मुटकू बड़ा समझदार है. हौसले वाला भी. वह भोलू को समझाता है कि हर मुश्किल का कोई न कोई हल भी जरूर निकलता है. हिम्मत छोड़ देना तो अच्छी बात नहीं है.
तभी मुटकू को याद आया कि कुछ अरसा पहले उसे कहानियों की एक सुंदर सी किताब गीताराम मास्टर जी ने दी थी. वह उसी से भोलू को बड़े प्यार से पढ़ना सिखाता है. भोलू धीरे-धीरे सीखता भी जा रहा है. यह बड़ी ही मजेदार कहानियों की किताब है. मुटकू से कहानियां सुनकर भोलू विकल होकर सोचता है, कि काश, मैं भी इसी तरह तेजी से किताब पढ़ पाता! फिर तो इतनी सारी कहानियां झटपट पढ़ लेता. वह मन ही मन तय कर लेता है कि चाहे जो कुछ भी हो, मैं जल्दी से पढ़ना सीखकर रहूंगा. भोलू में अब पढ़ने की सच्ची लगन पैदा हो चुकी थी.
उपन्यास के अंत में भोलू प्यारे दोस्त मुटकू के साथ अपने घर, मलिंगा जंगल में पहुंचता है, तो वहां उसे बड़ी इज्जत और मान-सम्मान मिलता है. भोलू पढ़-लिखकर अब विद्वान हो गया है, सबको इस बात की खुशी है. सब उसे बड़े आदर से भोलूराम कहकर बुलाते हैं.
मलिंगा जंगल के प्राणी अब भोलू से बहुत कुछ सीखते हैं, नई-नई कहानियां भी सुनते हैं. यों भोलू और मुटकू के पहुंचने पर जंगल में रोज रात्रि को लालटेन जलाकर प्रौढ़ शिक्षा की कक्षाएं लगने लगती हैं, जिससे जंगल की आबोहवा बदल गई है. उपन्यास में प्रौढ़ शिक्षा का यह विचार उसे एक उदात्त मोड़ दे देता है. खुद बच्चों के मन पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा.
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इधर लिखे गए मेरे बाल उपन्यासों में 'फागुन गांव का बुधना और निम्मा परी' भी खासा रोचक फंतासी उपन्यास है, जिसका एक छोर गांव के जीवन यथार्थ से भी जुड़ा है. गांव के सीधे-सरल लोग, उनका निश्छल प्रेम तथा मेहनत और सच्चाई का आदर्श परियों को भी लुभाता है. इस बाल उपन्यास की खास बात यह है कि इसमें यथार्थ औऱ फैंटेसी एक-दूसरे के प्रभाव को कम न करके, उलटा बढ़ाते हैं. इस लिहाज से 'फागुन गांव का बुधना और निम्मा परी' मेरा ऐसा बाल उपन्यास है, जिसे बच्चे साँस रोककर पढ़ेंगे. हालांकि फंतासी के साथ साथ उसमें गांव के जीवन का यथार्थ और सच्चाइयां भी बहुत मार्मिकता के साथ उभरकर आई हैं.
उपन्यास की कथावस्तु एक गांव के मेहनतकश युवक बुधना और निम्मा परी के इर्द-गिर्द घूमती है. उपन्यास के केंद्र में परीलोक की एक परी है, जिसका नाम है निम्मा. उसे धरती के लोग बहुत अच्छे लगते हैं, और धरती की सुंदरता मोहती है. एक दिन घूमते-घूमते निम्मा परी एक नदी किनारे पहुंच जाती है. वहां की हरियाली, फूलों से लदे पेड़-पौधे और प्रकृति की मनोहारी सुंदरता उसे बांध लेती है. वह सोचती है कि अरे, धरती सुंदर है, यह तो मुझे पता था. पर वह इतनी सुंदर है, यह तो मुझे आज ही पता चला है! चलते-चलते वह फागुन गांव में पहुंचती है. वहां दूर से उसे एक साँवला युवक दिखाई पड़ता है, जो ईँटें ढो रहा है. यह बुधना है, जो मेहनत-मजदूरी करके अपना गुजारा करता है. ईंटों के एक बड़े से चट्टे से ईंटें उठा-उठाकर वह कहीं ले जा रहा है. उसके काले शरीर पर पसीने की बूँदें चमक रही हैं. निम्मा परी उसे देखती है तो बस देखती ही रह जाती है.
परी बुधना के पास पहुंचती है और उससे बातें करने लगती है. तभी उसे पता चलता है, बुधना एक सीधा-सादा मजदूर है, जिसे ईमानदारी से अपना काम करना पसंद है. अपने माथे पर छलक आई पसीने की बूँदों को बुधना अँगोछे से पोंछता है, और फिर से अपने काम में जुट जाता है. निम्मा परी को बुधना अच्छा लगा. उसने मन ही मन कहा, 'कितनी सीधी-सरल बातें हैं इसकी. कितनी निश्छल हंसी....इससे सुंदर आदमी भला इस धरती पर और कौन होगा!'
निम्मा परी बुधना से आग्रह करती है कि वह भी उसके साथ-साथ ईंटें उठाकर ले जाएगी. बुधना उसे बरजता है, "अरे, इतनी भारी ईंटें हैं, तुम नहीं उठा पाओगी?'' इस पर निम्मा परी का जवाब है, "क्यों, तुम उठा सकते हो, तो मैं क्यों नहीं?''
सारे दिन दोनों मिलकर काम करते हैं. शाम तक ईंटों के उस बड़े से चट्टे से ईँटें उठा-उठाकर वे उस जगह पहुंचाते हैं, जहां चिनाई का काम चल रहा है. शाम को काम खत्म होने पर निम्मा बुधना के साथ उसकी झोंपड़ी में पहुंची तो वहां उसे बुधना की बड़ी ही स्नेहमयी अम्मां मिलती है. बुधना की अम्मां को पता चला कि निम्मा उनकी झोंपड़ी में ही रुकेगी, तो वह उसके लिए घी और कुछ दूसरी चीजें लेने अड़ोस-पड़ोस के घरों में जाने लगती है, ताकि निम्मा की कुछ खातिरदारी हो सके. पर निम्मा परी अम्मां को रोककर कहती है, "नहीं अम्मां, जो आप लोग खाते हैं, मैं भी वही खाऊंगी.'' वह बुधना के साथ ही बैठकर, प्याज और हरी मिर्च के साथ एक मोटी सी रोटी खाती है. फिर अगले दिन से ही गांव की दूसरी लड़कियों की तरह पानी भरने जाने लगती है. अम्मां से वह मक्का और बाजरे की रोटियां पोना सीखती है. साथ ही रोज बुधना के साथ मजदूरी करने जाती है.
कुछ समय बाद बुधना और निम्मा परी का विवाह होता है. यह बड़ा सादा सा, आदर्श विवाह है. विवाह के बाद भी निम्मा परी अपना मेहनत-मजदूरी का काम नहीं छोड़ती. दोनों पति-पत्नी दोस्तों की तरह साथ-साथ काम करते हैं और खुश रहते हैं. कहां तो काला भुजंग बुधना, और कहां कच्चे दूध सी गोरी, उजली निम्मा परी. पर दोनों की जोड़ी ऐसी सुंदर है कि देखकर लोग निहाल होते हैं.
उपन्यास के अंत में एक बड़ा भावनात्मक प्रसंग है. बुधना और निम्मा परी के विवाह में शामिल होने के लिए परीलोक से परियां आती हैं, परीरानी भी. वे बुधना को रत्न, मणियों आदि बेशकीमती उपहार भेंट करना चाहती हैं, जिससे बुधना के जीवन में कोई कमी न रहे और वह हंसी-खुशी अपनी जिंदगी गुजार सके. पर निम्मा परी बुधना का स्वभाव जानती है. इसलिए वह उन्हें समझाती है कि बुधना को यह अच्छा नहीं लगेगा. असल में बुधना के चरित्र की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह जैसा भी है, एक स्वाभिमान भरी जिंदगी जीना चाहता है. उसे अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं है. और यही बात निम्मा और बुधना को आपस में प्यार के धागे से जोड़ती भी है.
मेरा यह बाल उपन्यास थोड़े संक्षिप्त रूप में बाल साहित्य की बहुचर्चित पत्रिका 'बालवाटिका' में छपा था, तो इस पर पाठकों के फोन और चिट्ठियों की जैसे बारिश आ गई. सबका कहना था कि ऐसी परीकथा तो उन्होंने कभी पढ़ी नहीं. बल्कि वे तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि कोई परीकथा ऐसी भी हो सकती है. प्रायः सभी का यह कहना था कि इस बाल उपन्यास की नायिका निम्मा परी कहने को तो परी है, पर वह तो कहीं से भी परी नहीं लगती. न तो उसके पंख हैं, न उसके पास कोई चमत्कारी चाँदी की छड़ी है. अपनी जादुई शक्तियों का भी कोई कमाल वह नही दिखाती....तो यह कैसी परीकथा?
इस पर मेरा जवाब था कि यही तो मैं अपनी इस कथाकृति के जरिए बताना चाहता हूं, कि देखो भाई, बदले हुए जमाने की परियां भी कितनी बदल गई हैं, और परीकथाएं भी.
कहना न होगा कि मित्रों और बाल पाठकों की प्रीतिकर चिट्ठियों ने मेरे इस विश्वास को कहीं और मजबूत कर दिया है कि वे बदले हुए समय में कुछ नया पढ़ना चाहते हैं, जो उनके दिल को छू सके.
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मेरे ताजा बाल उपन्यासों में 'सांताक्लाज का पिटारा' भी कुछ अलग तरह की प्रयोगात्मक कथाकृति है. खासी चुनौतीपूर्ण भी. सांताक्लाज के बारे में कहा जाता है कि वह क्रिसमस पर बच्चों के पास आता है और उन्हें सुंदर-सुंदर उपहार देकर जाता है. बल्कि किसी बच्चे की अगर कोई अधूरी चाह है, जिसे उसके माता-पिता या अभिभावक अपनी किसी विवशता के कारण पूरा न कर पा रहे हों, तो उसे भी सांताक्लाज आकर अपने अनूठे उपहारों से पूरा करता है. वह हर बच्चे को ढेर सारी खुशियां देने के लिए आता है.
उपन्यास की शुरुआत में सांता को हम इस बात से चिंतित देखते है कि क्रिसमस आने वाला है. लाखों बच्चे उसका इंतजार कर रहे होंगे. इसलिए उसे जल्दी से जल्दी उनके लिए बढ़िया उपहार जुटा लेने चाहिए. धीरे-धीरे उसके पास बढ़िया उपहारों का ढेर लगता जा रहा है, और उसका पिटारा भरता जा रहा है.
इस बीच सांताक्लाज घूम-घूमकर बच्चों के सुख-दुख का हाल लेने निकल पड़ा है. कोई बच्चा इसलिए परेशान के उसके मम्मी-पापा गरीब हैं और उसे एक मामूली खिलौना तक नहीं दिला सकते. एक ही टूटे खिलौने से उसे काम चलाना पड़ता है. अड़ोस-पड़ोस के बच्चे उसे अपने साथ नहीं खिलाते, और उसका अपमान तक करते हैं. कोई बच्चा इसलिए परेशान है कि उसके पापा की नौकरी छूट गई है और वे उसकी स्कूल फीस भी नहीं जमा करवा सकते. तो ऐसे में क्रिसमस भला उसके लिए क्या खुशी लेकर आएगा? कोई इसलिए दुखी है कि उसके मम्मी-पापा हमेशा आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं. घर में जरा भी चैन नहीं है....
ऐसे ही एक अनाथ बच्चे का दुख, तकलीफ और बेहाली अलग है, जिसे हर जगह दुरदुराया जाता है. उस अभागी लड़की के दुख और परेशानियों को भी कोई नहीं समझ सकता, जिसके भाई को तो घर में भरपूर प्यार मिलता है, उसकी हर इच्छा पूरी की जाती है, पर लड़की होने के कारण उसे बात-बात पर झिड़क दिया जाता है. एक ढाबे में काम करने और दिन भर मालिक की डांट खाने वाला गरीब और फटेहाल बच्चा सोचता है कि उसका जीवन किसी नरक से कम नहीं है. क्या उसके जीवन में भी कभी खुशी के दो पल आएंगे? बच्चों से बेशुमार प्यार करने वाले सांता को क्या कभी उसका भी खयाल आएगा?
लेकिन सांता को हर बच्चे का खयाल है. गरीब बस्तियों की इन टेढ़ी-मेढ़ी, ऊबड़-खाबड़ सड़कों, तंग गलियों और छोटे-छोटे मकानों में कैसे उसकी घोडागाड़ी पहुंचती है, यह खुद में एक कहानी है. यहां तक कि काफी टेढ़ी-मेढ़ी, तंग गलियोँ और ऊबड़-खाबड़ रास्तों को पार करता हुआ सांता जैसे-तैसे ढाबे में काम करने वाले गरीब बच्चे के कमरे में भी पहुंच जाता है, और बड़े प्यार से उसके आंसुओं को पोंछता है.
अब सांताक्लाज का पूरा पिटारा खाली हो चुका है और वह खुश है कि नन्हे-नन्हे अबोध बच्चों के चेहरे पर वह थोड़ी खुशियों भरी मुसकान ला सका है. हालांकि एक बात बार-बार उसके मन को कचोटती है कि वह अकेला क्या-क्या करे? काश, वे बच्चे जो सुख-संपन्नता में रह रहे हैं, नन्हे-नन्हे सांताक्लाज बनकर उन गरीब और लाचार बच्चों के लिए कुछ करें, जो दुखी हैं, उदास हैं, और जीवन में बहुत छोटी-छोटी खुशियों के लिए तरस रहे हैं. अगर ऐसा हुआ तो यह दुनिया सचमुच कितनी अच्छी और खुशहाल बन जाएगी!
कहना न होगा कि इधर लिखे गए मेरे बाल उपन्यासों में 'सांताक्लाज का पिटारा' एक ऐसी कृति है, जिसे लिखने के बाद मेरे मन और आत्मा को बेपनाह सुकून मिला है. एक ऐसा उपन्यास जिसे लिखते हुए बार-बार मेरी आंखों में आंसू छलछला आए हैं. पर फिर भी इसे लिखे बगैर मुझे चैन नहीं पड़ सकता था. इसलिए कि इस उपन्यास का नायक सांता, बहुत-बहुत सहृदय सांता तो है ही, पर वह थोडा सा प्रकाश मनु भी है! उसके भीतर जो कवि हृदय है, वह भी शायद प्रकाश मनु का ही है!
बाबा नागार्जुन की कविता की पंक्ति है, 'कालिदास, सच-सच बतलाना, अज रोया, या तुम रोए थे?' क्या मैं बताऊं कि 'सांताक्लाज का पिटारा' लिखते हुए, बार-बार बाबा की यह पंक्ति मुझे याद आ रही थी, और रुला रही थी!
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इसके अलावा भी अभी कई उपन्यास हैं, जो भीतर लगातार दस्तक दे रहे हैं और लिखे जाने की प्रतीक्षा में हैं. पता नहीं, वे कब लिखे जाएंगे? पर भीतर तो वे हर बार नए-नए रंग-रूपों में मुझे नजर आते हैं और बुरी तरह उकसाते हैं कि "मनु जी, हमें लिखो, जरूर लिखो...सब कुछ छोड़कर पहले हमें लिख डालो!...''
समय-समय पर बच्चों की राय और बड़ी उत्साहपूर्ण प्रतिक्रियाएं भी मुझे मिलती रही हैं. ऐसे ही एक बच्चे ने मेरा बाल उपन्यास 'एक था ठुनठुनिया' पढ़कर जिस सीधे-सरल ढंग से अपने आनंद की अभिव्यक्ति की, उसे मैं भूल नहीं पाया. इसी तरह कभी-कभी बिहार और झारखंड के किसी दूर-दूराज के गांव से फोन आता है कि "आप प्रकाश मनु जी बोल रहे हैं ना?'' मेरे हां कहने पर टूटी-फूटी भाषा में एक आनंदमय स्वर उभरता है, "अंकल, आप बहुत अच्छा लिखते हैं!...मैंने अपने स्कूल के पुस्तकालय से लेकर आपकी किताब पढ़ी, बड़ी अच्छी लगी. उसमें आपका मोबाइल नंबर भी था....आपसे बात करके हमें बड़ा अच्छा लग रहा है.''
कभी-कभी दिल्ली के दूर-दराज के किसी इलाके से भी अचानक कोई फोन आ जाता है, कि "आप मनु सर हैं न?...हमारे पुस्तकालय में आपकी बहुत किताबें हैं. मुझे बड़ी अच्छी लगती हैं आपकी किताबें. आपका लिखने का ढंग बहुत अच्छा है....''
जिंदगी की राजमर्रा की इस भागा-दौड़ी और धूल-धक्कड़ में अब बहुत कुछ भूलने भी लगा हूं, पर भला रचना पढ़कर छल-छल वाणी में अपने मन की बात कहने वाले बच्चों के आनंद भरे उत्साह को कैसे भुलाऊं? एक लेखक के रूप में मेरे लिए यह सुख, बहुत बड़ा सुख है. यही सुख एक लेखक का सबसे बड़ा खजाना भी है. और क्या मैं कहूं कि एक लेखक के लिए दुनिया में इससे बड़ा पुरस्कार कोई हो नहीं सकता. दुनिया का बड़े से बड़ा पुरस्कार भी, कम से कम बाल पाठकों के इस उत्साह भरे निर्मल आनंद के आगे तो छोटा ही है!
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अंत में एक बात और कहना चाहता हूं. जहां तक लिखने का सवाल है, बच्चों या बड़ों के लिए लिखने में मुझे कोई फर्क नजर नहीं आता. बच्चों के लिए लिखूं या बड़ों के लिए, भीतर उसी दबाव या रचनात्मक तनाव से गुजरना पड़ता है. ऐसा कभी नहीं लगा कि बच्चों की रचना है तो क्या है, जैसे मर्जी लिख दो. इसके बजाय बच्चों के लिए कुछ भी लिखना हो तो मैं उसमें अपना दिल, अपनी आंखें पिरोता हूं. बच्चे मेरे गुरु भी हैं, ईश्वर भी. उनकी निर्मलता में ही मैं ईश्वर को देख पाता हूं, और उनके लिए लिखते हुए, सचमुच एक अलौकिक आनंद महसूस करता हूं.
फिर बच्चों के लिए कुछ ठीक-ठाक लिख पाना मुझे हमेशा एक बड़ी चुनौती लगती है. बिल्कुल शुरुआत में तो लगती ही थी, आज भी लगती है. बल्कि सच्ची बात तो यह है कि बाल साहित्य लिखते हुए कोई पैंतालीस बरस हो गए, पर आज भी हालत यह है कि जब मैं कोई नई रचना शुरू करता हूं तो दिल बुरी तरह धड़कता है. लगता है कि पहली बार हाथ में कलम पकड़ रहा हूं, और जब तक रचना पूरी होने के आनंद क्षण तक नहीं पहुंचता, तब तक पसीने-पसीने रहता हूं और भीतर धक-धक होती रहती है.
रचना पूरी होने पर एक बच्चे के रूप में मैं खुद ही उसे पढ़ता हूं और तब सबसे पहले अपने आप से ही पूछता हूं कि पास हुआ या फेल...? इसके बाद ही वह रचना बच्चों के हाथ में आती है.
पता नहीं, रचना का यह अंतर्द्वंद्व जो मेरे साथ है, वह औरों के साथ भी ठीक वैसा ही है या नहीं? सबका ढंग अपना हो सकता है. होना भी चाहिए. पर बच्चों और बचपन को पूरी निश्छलता के साथ प्यार किए बिना आप बच्चों के लिए कुछ भी लिख नहीं सकते, यह मेरा अपना अनुभव है. और सच ही, इसी से बच्चों के लिए लिखने की अपार ऊर्जा और आनंद भी मुझे मिलता है.
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संपर्कः प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008, मो. 09810602327, ईमेल- prakashmanu333@gmail.com