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पुस्तक समीक्षाः वाया मीडिया, पत्रकारिता में लड़कियों का खुरदरा यथार्थ

'वाया मीडिया: एक रोमिंग कॉरस्पॉडेंट की डायरी' में कवयित्री, पत्रकार व कथाकार गीताश्री ने लगभग डेढ़ दशक, 1990 से लेकर 2005 तक के कालखंड में पत्रकारिता में लड़कियों की कथा को समेटा है.

उपन्यास 'वाया मीडिया: एक रोमिंग कॉरस्पॉडेंट की डायरी' का कवर उपन्यास 'वाया मीडिया: एक रोमिंग कॉरस्पॉडेंट की डायरी' का कवर
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 01 अप्रैल 2020,
  • अपडेटेड 2:38 PM IST

पत्रकारिता आरंभ से ही पुरुष प्रधान क्षेत्र रहा है और आज तक बना हुआ है. ऐसे में हिंदी प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में सन 90 के दशक में प्रवेश करने वाली महिलाओं के संघर्ष और चुनौतियों को समझना आसान नहीं है. पहली चुनौती तो उनके चयन से ही शुरू हो जाती है. परिवार की ओर से इस व्यवसाय के चयन की सहमति, वह भी नब्बे के दशक में; आसान नहीं था. अपने जुनून के चलते कुछ महिलाओं ने प्रवेश तो पा लिया लेकिन कितनी ही दुश्वारियां उनके आगे मुंह बाये खड़ी थीं. इसी संघर्ष को गीताश्री ने 'अनुराधा', 'अनुपमा', 'शालिनी', 'रंजना' और 'वाणी' जैसे पात्रों के माध्यम से दिखने का प्रयत्न किया है.

'वाया मीडिया: एक रोमिंग कॉरस्पॉडेंट की डायरी' 1990 से लेकर 2005 तक के कालखंड; लगभग डेढ़ दशक की कथा है. इस पुस्तक में हिंदी प्रिंट मीडिया में महिलाओं का आगमन और उनके संघर्ष को यथार्थ रूप में, बड़े संतुलित ढंग से चित्रित किया गया है. हमारे समाज में स्त्रियों से कुछ अधिक ही अपेक्षाएं रहती हैं. पत्रकारिता जैसे व्यवसाय के साथ उन अपेक्षाओं को पूरा करना किसी चुनौती से कम नहीं. चौबीस घंटे की ड्यूटी के साथ पारिवारिक दायित्वों को पूरा करना कितना मुश्किल है, सहज ही इसकी कल्पना की जा सकती है. पत्रकारिता महिलाओं के लिए आज भी अत्यंत चुनौती भरा क्षेत्र है.

इस उपन्यास में अनुराधा, अनुपमा, शालिनी और रंजना जैसे पात्र हैं, जिनका व्यक्तित्व अलग-अलग है. अनुपमा धीर-गंभीर व्यक्तित्व से युक्त है तो अनुराधा बिलकुल बिंदास, साहसी और मस्तमौला. जबकि शालिनी और रंजीता कुछ मिलते-जुलते से चरित्र हैं, लेकिन शालिनी अधिक परिपक्व है. शालिनी की धारणा है- "पुरुष स्त्री का कोई मतलब नहीं.... हम सब एक पेशे से जुड़े हैं, एक बिरादरी है.... क्यों लड़ें आपस में?" पृष्ठ- 75. सबकी कार्यशैली, व्यवहार और रुचियां भिन्न-भिन्न हैं. लेखिका ने इन काल्पनिक पात्रों के माध्यम से नब्बे के दशक की महिला पत्रकारों की दुनिया का यथार्थ रूप में चित्रण किया है. जैसा कि उपन्यास की भूमिका में गीताश्री ने लिखा है, "सच-सच बयान कल्पना बस नमक जितनी." पृष्ठ-11. 'वाया मीडिया' की कथा आदि से अंत तक समान रूप से चलती है, बहुत अधिक आरोह-अवरोह यहां नहीं हैं. उपन्यास में चार पड़ाव हैं-'मैं अनुराधा: दिल्ली बरास्ता शिमला', 'अनुपमा....अर्थात दक्षिण-दुःख आख्यान', 'साथी कुबूल; आका ख़ारिज, तथा 'खूब जमेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने चार'.

"जो लक्ष्य अनुपमा अपने श्रम और प्रतिभा के बूते हासिल करना चाहती थी, रंजना ने उसके लिए शॉर्टकट चुनना पसंद किया था. जो पत्रकारिता अनुपमा के लिए जीवन पद्धति थी, वही पत्रकारिता रंजना के लिए फ़क़त एक महत्त्वकांक्षा थी." पृष्ठ-126. और इस प्रक्रिया में रंजना का बार-बार जीतना तथा अनुपमा की बार-बार, लगातार हार, उसे कुंठा और ईर्ष्या से भर देती है. 'वक्त के हिसाब से चोला बदलने की रंजना की इस अदा ने अनुपमा के मन में एक अनायास कौतुहल पैदा कर दिया था. वह रंजना को बिलकुल आर-पार देखने को लालायित थी. अनुपमा सोचने को विवश हो जाती है, "आखिर उस लड़की में ऐसा क्या ख़ास है, जिसने मुझे अपने वजूद को लेकर आशंका, डर और असुरक्षा से भर दिया है?...जिन रास्तों पर रंजना चल रही थी, क्या उन रास्तों को उसे भी आज़माकर देखना चाहिए?" निडर, साहसी, ईमानदार और पत्रकारिता को समर्पित अनुपमा की मनोदशा बहुत कुछ कहती है. इतनी जटिल और विरोधी व्यवस्था के बीच 'स्व' के अस्तित्व को बचाये रहना किसी चुनौती से कम नहीं. जब आपका समूचा अस्तित्त्व डगमगाने लगे.' यह एक स्वभाविक प्रकिया है. अनुपमा की रंजना से ईर्ष्या मात्र तात्कालिक है क्योंकि वह जानती है पुरुषों के लिए "किसी भी परिभाषा में औरत एक देह भर होती है." पृष्ठ-128.

'वाया मीडिया' की एक सबसे सकारात्मक जो चीज़ मुझे लगी, वह 'बहनापे का भाव' है. इस उपन्यास में "स्त्रियां ही स्त्रियों की दुश्मन होती हैं" जैसे मुहावरे को पूरी तरह से नकार दिया गया है और उन कारकों को खोजने का प्रयास है, जिनके कारण स्त्रियां स्त्रियों की दुश्मन बन जाती हैं या कहें दिखाई देती हैं. तमाम विरोधी स्थितियों के बीच एवं सभी पितृसत्तात्मक चालों के बाद; एक स्तर पर आकर स्त्री पात्र, वास्तविक स्थितियों को न केवल समझने लगते हैं, वरन उन चालों से बचना और खंडन करना भी सीख जाते. अनुपमा के ये शब्द पितृसत्ता की सच्चाई को साफ़-साफ़ दिखाते हैं, "चौखट से बाहर पैर निकालती हुई, अपनी शर्तों पर जीती हुई, हर स्वतंत्रचेता स्त्री निरंजन कपूर जैसे मर्दों के लिए चालू ही होती है. पुरुषों ने अपने लिए इसके विपरीत कोई शब्द क्यों नहीं गढ़ा. क्या अकेली रंजना ही जिम्मेदार है, पुरुषों के पास चरित्र नहीं होता. जिनका अपना कोई चरित्र नहीं होता, वो ही दूसरों के चरित्र को जज करते हैं. स्त्रियां जीवन में मिल जाएं तो चालू, न मिलें तो चालू." पृष्ठ-179. एक समय अनुपमा को रंजना से बड़ी चिढ़ सी थी लेकिन जब उसे पितृसत्तात्मक समाज की सच्चाई समझ आने लगती है तो वह विद्रोही हो जाती है, "पूरा मीडिया मेल डॉमिनेटिंग है राजीव जी, स्त्रियां इस्तेमाल की जा रही हैं, हमें ये खेल समझ में आ गया है."

उपन्यास के माध्यम से जैसे लेखिका ने एक चेतावनी दी है, "लड़की के काम में कमी निकालिए, उसके काम से उसका मूल्यांकन करिए, उसके चरित्र तक न पहुंचिए. स्त्री का चरित्र उसकी आत्मा से जुड़ा होता है." पृष्ठ-179. गीताश्री ने हिंदी प्रिंट पत्रकारिता, वैसे पत्रकारिता के सभी रूपों में न्यूनाधिक एक जैसी दशा है, के चमकते चेहरे के पीछे की कालिख़ को सामने लाने का कार्य किया है. विशेष रूप से स्त्री पत्रकारों के संदर्भ में. पत्रकारिता ऐसा क्षेत्र है जहां उन्हें दिन हो या रात काम करना पड़ता है. जो लड़कियां इस क्षेत्र में आती है वे इस सच्चाई को जानती हैं और तैयार भी रहती हैं. महिलाओं के लिए ऑड टाइम या कठिन कार्य से इतर कई तरह के संकट और चुनौतियां होती हैं, जिनसे उन्हें निरंतर जूझना पड़ता है लेकिन उन्हें कई तरह के कटाक्ष झेलने पड़ते हैं यथा, "हम लोग इसीलिए लड़कियों और महिलाओं को रिपोर्टिंग में प्रेफ़र नहीं करते. लड़कियां ऑड ड्यूटी करेंगी नहीं, बाहर भेजो तो दस बहाने. जब देखो....घर-बार, बाल-बच्चे का ही रोना रोती रहती हैं. अरे भाई! पत्रकारिता कर लो, या फिर घर-परिवार ही संभालो. दोनों हाथों में तो लड्डू नहीं मिलेगा ना...."पृष्ठ-110. जबकि अनुराधा के रूप में एक ऐसी पत्रकार जो ऐसी 'स्टोरीज़ कवर' करती जिन्हें करते पुरुष भी कतराएंगे. किंतु फिर भी इस तरह के कटाक्ष महिलाओं को केवल पत्रकारिता नहीं बल्कि अधिकांश व्यवसायों में सुनने को मिलते हैं. इस उपन्यास में महिला पत्रकारों के परिवार की चर्चा बहुत कम है. यहां उनके पारिवारिक दायित्वों और व्यावसायिक जिम्मेदारियों के संतुलन प्रश्न प्रमुख न होकर पत्रकारिता के क्षेत्र महिलाओं की स्थिति के प्रश्न को प्रमुखता से उठाया गया है. लेखिका की चिंता है, "एक तो लड़कियां हमारे प्रोफेशन में पहले से ही कम हैं....गिनी-चुनी लड़कियां प्रिंट मीडिया में बची रह गई हैं, ऊपर से ये साजिशें, बदनामियां, एक-दूसरे को नीचे दिखने की कोशिशें....चाहे वह करे,या फिर हम करें....मुझे फिक्र होती है....बहुत संघर्ष करके हम लोग यहां तक पहुंच सके हैं....यह कारवां कहीं रुक न जाये."

पुरुष प्रधान पत्रकारिता के क्षेत्र में महिलाओं का आना, दुर्गम परिस्थियों में काम करना, कई तरह की विवशताओं और असुरक्षाबोध के बीच अपने अस्तित्व को बचाये रखना और अपनी विशेष पहचान भी बनाना आसान नहीं था, लेकिन समीक्ष्य उपन्यास के स्त्री पात्र अदम्य साहस और जिजीविषा से युक्त हैं. परिस्थितियां कितनी भी दुष्कर क्यों न हों? वे हार नहीं मानतीं. डटी रहतीं हैं. यह उपन्यास महिला पत्रकारों की एक ऐसी पीढ़ी को लेकर है जो न केवल अपने लिए एक सम्मानजनक स्थान बना रही थी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी मार्ग प्रशस्त कर रही थी.

'वाया मीडिया' उपन्यास जहां एक ओर तो पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाली कठिनाइयों, चुनौतियों और अवरोधों को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर आंतरिक रूप से होने वाली उठा-पटक, षड्यंत्र, शोषण, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, राजनीति को भी उजागर करता है. विशेष रूप से महिलाओं के सन्दर्भ में. यहां किसी पुरुष को नायक या खलनायक के रूप में प्रस्तुत न करके एक समूची व्यवस्था के अंग के रूप में दिखाया गया है. जहां अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग होते हैं. और इस पुरुष प्रधान व्यवस्था में अपने पैर जमाने व अपनी पहचान बनाने लिए महिलाओं ने कितने संघर्ष किये हैं . इसका प्रमाणिक अंकन यहां देखा जा सकता है. उपन्यास की भाषा दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली प्रवाहपूर्ण भाषा है. कहा जाता है जिसके सन्दर्भ में 'भाखा बहता नीर है'. इसे एक शोध परक उपन्यास भी कहा जा सकता है. हिंदी प्रिंट पत्रकारिता के स्वरूप को समझने के लिए इसे एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक कहा जा सकता है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए.
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पुस्तक- वाया मीडिया: एक रोमिंग कॉरस्पॉडेंट की डायरी
लेखक- गीताश्री
विधा- उपन्यास
भाषा- हिंदी
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन
मूल्य- 225 रुपए
पृष्ठ संख्या- 184

संपर्कः डॉ सीमा शर्मा, एल-235 शास्त्रीनगर, मेरठ, पिन- 250004 उ. प्र., ई मेल-sseema561@gmail.com मो. 9457034271

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