
तरक्की के इस दौर में, सभ्यता और आधुनिकता के बीच तालमेल बनाने की होड़ मची हुई है. इस दौर में परिवारों का ढांचा भी बदल गया है. संयुक्त परिवारों की जटिलताओं के दौर से निकलने के बाद तरक्की पसंद लोगों ने एकल परिवार की नई परिकल्पना संसार को दी थी. मगर तरक्की के रास्ते पर तेज रफ्तार दौड़ते कदमों को परिवार और उसकी जिम्मेदारियां पैरों में बेड़ी का अहसास कराने लगी हैं शायद, तभी तो जिम्मेदारियों की जंजीरों ने तेज दौड़ते कदमों की रफ्तार सुस्त की, इंसान ने इससे भी अपना पीछा छुड़ाने का इंतजाम करना शुरू कर दिया और अब एक नए संसार की तरफ कदम बढ़ाता दिखने लगा है, जिसे सिंगल फादर या सिंगल मदर का नाम दिया जा रहा है.
सच पूछो तो ये एक जीवन, एक सभ्यता और एक परिवार जैसे स्वरुप और नियति को लेकर एक चुनौती भी कही जा सकती है. लेकिन ये चुनौतियां आपको और आपके जीवन को किस तरह परेशान कर सकती हैं और इन चुनौतियों के सामने आने के बाद वो कौन कौन से अहसास और संस्कार हैं, जिनकी बदौलत वाकई में परिवार, समाज और सभ्यता के इंद्रधनुषी रंग इंसान को अपनी जिंदगी में भरने की इच्छा फिर से पनपने लगती है. बस इसी पूरे सिलसिले का नाम है पॉल की तीर्थयात्रा.
किस्तों में कहे गए किस्सों की कहानी
डेनमार्क की रहने वाली भारतीय मूल की अर्चना ने पॉल की तीर्थयात्रा में इस विषय को बेशक किस्तों में कहे गए एक किस्से के जरिए छूने की कोशिश की है. मगर उनकी इस कोशिश में दर्द की वो तस्वीर भी नजर आ जाती है. जिसके दायरे से जो गुजरता है शायद उसे ही इसका अहसास हो सकता है. इस किस्से में अर्चना ने दो ऐसे किरदार बुने, जिनकी पृष्ठिभूमि भारतीय है. कहना गलत नहीं होगा कि सभ्यता और समाज उस किरदार और उनकी पृष्ठभूमि के संस्कार का ही हिस्सा है और उन्हीं संस्कारों के जरिए वो अपनी जिंदगी के कई बड़े और अहम फैसलों में उन बातों को नजर अंदाज नहीं कर पाते, जिन्हें पश्चिमी समाज में शायद कोई तरजीह नहीं मिल पाती.
कहानी से खुद जुड़ जाता है पाठक
इस कहानी में पॉल का किरदार किस कदर उतार चढ़ाव के दौर में डूबता उतराता जीवन के झंझावतों से जूझता हुआ आखिरकार एक ऐसे ठिकाने पर पहुंच ही जाता हैं. जिसे पॉल ने खुद पहले से ही तय किया था. पूरी कहानी का ताना बाना कुछ इस तरीके से बुना गया है कि पढ़ने वाला पहले तो खुद को एक पाठक की तौर पर ही निश्चत करता है. लेकिन जैसे जैसे किस्सा आगे बढ़ता जाता है. भाषा और उसके प्रभाव का ऐसा असर भी हो सकता है कि पढ़ने वाला खुद को उसी कहानी से जोड़ता महसूस होने लगता है. लेकिन इसके बाद जैसे ही पाठक खुद को इस कहानी का हिस्सेदार समझने का गुमान पालता है फौरन पॉल की यात्रा पूरी होने लगती है और पाठक खुद को धीरे धीरे इस कहानी से बाहर निकाल लाता है.
कहानी की जड़ें इतनी आसानी से नहीं होगी खत्म
लिहाजा कहानी के खत्म होने के बाद झटका नहीं लगता. लेखक अर्चना पैन्यूली ने डेनमार्क में रहते हुए इस उपन्यास का निर्माण किया, वो वाकई अद्भुद और आलौकिक भी है. इस कथानक के जरिए ये भी देखा जा सकता है कि हिन्दुस्तान की सरहद से सैकड़ों मील दूर होने के बाद भी जड़ें इतनी आसानी से खत्म नहीं हो जाती. दुनिया में नजर आने वाले नए समुदाय के अंदुरूनी परिवेश के कई ऐसे सवाल भी हैं, जिनके जवाब जानने की छटपटाहट शायद लाखों करोड़ों लोगों के दिलों में रहती है. लेकिन बदकिस्मती से कोई भी उनकी जटिलताओं, संवेदनाओं और जीवन शैलियों को गहराई से समझने की कोशिश भी नहीं करना चाहता और यही बात उस समाज का सबसे खास हिस्सा भी हो जाती है. जहां इन लोगों की कुंठाओं को पनाह मिलती है.
राजपाल एंड संस ने की प्रकाशित
इस पुस्तक को देश के सबसे पुराने प्रकाशकों में से एक राजपाल एंड संस ने छापकर उन लेखकों को भी हौसला देने का प्रयास किया है, जो अपने कारोबार, या कामकाज के सिलसिले में देश और धरती से दूर भले ही हो गए...लेकिन अपनी जड़ों को सींचने का जज्बा उनमें आज भी है. यकीनी तौर पर इस पुस्तक के जरिए अर्चना पैन्यूली उन लोगों को दीक्षित करती महसूस होती है. जो अपनी यादों और अपने सुख दुख की परतों में सिमटकर अपना वजूद तलाश करने की जद्दोजहद करते हैं.
किताब- पॉल की तीर्थयात्रा
लेखक- अर्चना पैन्यूली
प्रकाशक- राजपाल एंड संस
मूल्य- 265/-