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बुक कैफे में आज 'रोज़ बुनता हूँ सपने'| केशव मोहन पाण्डेय के कविता संग्रह पर जय प्रकाश पाण्डेय

कथ्य और कथन की ताज़गी भरी केशव मोहन पाण्डेय के कविता-संग्रह 'रोज़ बुनता हूँ सपने' की कविताओं में देश, परिवार और गांव के अनेक रूपों का बहुत सहज और प्रभावशाली चित्रण हुआ है. आशावाद, संघर्ष, कवि की उड़ान-क्षमता, अभिव्यक्ति-सामर्थ्य, अनुभव, बिंब, प्रतीक, भाव से लबरेज इस संग्रह पर साहित्य तक के बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' में सुनिए वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय की राय

बुक कैफे में आज कविता संग्रह 'रोज़ बुनता हूँ सपने' की समीक्षा बुक कैफे में आज कविता संग्रह 'रोज़ बुनता हूँ सपने' की समीक्षा
जय प्रकाश पाण्डेय
  • नई दिल्ली,
  • 24 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 5:22 PM IST

मैं शब्द सीखता हूं
शब्द लिखता हूं
शब्द पढ़ता हूं
शब्द गढ़ता हूं.
शब्दों को गढ़ने वाले
हर रोग-व्याधि को
ठोकर मार देते हैं
शत्रुओं का पानी उतार देते हैं...  यह पंक्तियां जाने-माने लेखक-कवि केशव मोहन पाण्डेय के कविता-संग्रह 'रोज़ बुनता हूँ सपने' शामिल कविता 'जो शब्द गढ़ते हैं' की हैं. केशव मोहन पाण्डेय हिंदी और भोजपुरी में सर्जना करते हैं. उनकी हिंदी में 'संभवामि युगे युगे', 'ऑनलाइन ज़िंदगी'; भोजपुरी में 'कठकरेज', 'एक मुठी सरसों' जैसी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वे 'पंच पल्लव', 'पंच पर्णिका', 'समवेत' आदि पुस्तकों का संपादन भी कर चुके हैं. कविता, गीत, लघुकथा, वर्ण-पिरामिड, हाइकु आदि विधाओं की दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकों के सह-लेखक केशव का मूल स्वर कविता है.
शायद यही वजह है कि उनके संग्रह 'रोज़ बुनता हूँ सपने' के शुभकामना संदेश में वरिष्ठ और वयोवृद्ध साहित्यकार प्रोफेसर रामदरश मिश्र लिखते हैं- कथ्य और कथन की ताज़गी भरी इन कविताओं में देश, परिवार और गांव के अनेक रूपों का बहुत सहज और प्रभावशाली चित्रण हुआ है. विशेषतया गांव अपने विविध आयामों के साथ उजागर हुआ है. उसकी मिट्टी, उसकी प्रकृति, उसके दुःख-दर्द, उसकी पगडंडिया, उसके त्योहार मार्मिक रूप में चित्रित हुए हैं. माता-पिता के संदर्भ में लिखी गईं कविताओं का अपना सौन्दर्य है. नारी-जीवन का सत्य भी कई कविताओं में बोलता है. विशेषतया लड़कियों पर लिखित कविताएं बहुत मार्मिक हैं. इन सारी कविताओं में मनुष्यता की आभा दीप्त हो रही है, प्रेम का राग मुखर हो रहा है. बहुत प्रीतिकर बात यह है कि ये कविताएं कवि के अनुभव और मूल्य चेतना से निःसृत हुई हैं, इसलिए ये बहुत सहज और पठनीय हैं. इनमें प्रयुक्त बिम्ब हमारे अपने लगते हैं.
सर्व भाषा ट्रस्ट के अध्यक्ष और इंटरनेशनल हिंदी एसोसिएशन के दिल्ली चैप्टर के अध्यक्ष रहे अशोक लव 'सपने बुनती जीवंत कविताएं' वाली भूमिका में लिखते हैं कि केशव मोहन पाण्डेय बहुमुखी प्रतिभासंपन्न साहित्यकार हैं. साहित्य की विभिन्न विधाओं में सृजन करते हुए कविताओं में उनकी प्रतिभा विशेष रूप से मुखरित हुई है. वास्तव में कविता उनकी आत्मा में रची-बसी है. उनके गद्य साहित्य पर भी उनके कवि-हृदय की झलक स्पष्ट दिखाई देती है. कवितामय गद्य का अपना विशिष्ट सौंदर्य होता है.
वे उन कविताओं का जिक्र करते हैं, जिनमें केशव के अलग-अलग भाव सामने आते हैं. जैसे 
गांव छोड़कर महानगर दिल्ली में आ बसने की व्यथा वाली कविता 'मेरा शहरी होना'- 
अब जब याद आता है छूटा हुआ घर
इस फ़्लैट में
तब बहुत उदास हो जाता है मन,
कि एक डोंगी से
छूट गया उसका घाट
आकर दूसरे किनारे पर
वैसे, जैसे दूर हो गया
पिता का साया
जीवन की राह दिखाकर!
यह व्यथा एक व्यक्ति की नहीं है, उन हज़ारों-हज़ार व्यक्तियों की है जिन्हें जीविकोपार्जन हेतु घर-बार-गांव-कस्बे-नगर छोड़ने पड़ते हैं.
यह आज की कविता है. आर्थिक कारणों से व्यक्ति गांव छोड़कर आजीविका हेतु नगरों में आ जाता है और संवेदनहीन भीड़ में गांव की गंध खोजता है. वह गंध नहीं मिलती तो कवि की वेदना इन शब्दों का रूप ले लेती है-
जैसे दूर हो गया
पिता का साया,
उड़ गया
मां का आंचल,
और नहीं बचा पाया मैं
शहरी होकर
संबंधों का इत्र
कि जब भी चाहूं
सुगंधित अनुभव कर सकूं
छिड़ककर जिसे अपने आस-पास...
यह है कवि द्वारा भोगे सत्य की कविता! आज गांव छूट गए हैं, शहर छूट गए हैं, देश ही परदेश बन गया है. विदेशों में जाकर बसने की पृष्ठभूमि का कारण भी आर्थिक स्थिति है. कवि को लगता है शहर में आकर वह मशीन बन गया है. 'मैं मशीन हूं' कविता की भावाभिव्यक्ति देखिए- 
...और जाना ही पड़ता है काम पर
रेंट, रोटी और रोज़गार की व्यवस्था के लिए
...कल तक तो आदमी था
सब कुछ पाकर
आज मैं मशीन बन गया हूं.
इस जीवन को जीते-जीते व्यक्ति टूट जाता है, बिखर जाता है. कवि ने व्यक्ति की इस टूटन का 'आदमी एकाएक नहीं टूटता' कविता में सुंदर चित्रण किया है.
आदमी एकाएक नहीं टूटता
टूटती हैं कोशिकाएं रिश्तों की
अपनत्व की
जो जुड़ी होती हैं.
एक-दूसरे से जन्मजात
और टूटने पर कोशिकाओं का
विकृत हो जाता है स्वरूप आदमी का.

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केशव मोहन पाण्डेय के कविता-संग्रह 'रोज़ बुनता हूँ सपने' का आवरण चित्र

संग्रह 'रोज़ बुनता हूँ सपने' की 'मेरे गांव की पगडंडी' कविता को पढ़ते समय गांव की पगडंडी का बिंब आंखों के समक्ष तैरने लगता है. इसमें गांव की पृष्ठभूमि का सजीव चित्रण हुआ है. परती ज़मीन, वन, गन्ने के खेत, धान की हरियाली, मक्के की बाली, सियार, अरहर की सघनता, बेल वाले खरबन्ना आदि को पार करती पगडंडी सजीव हो गई है. पगडंडी का मानवीकरण अद्भुत हुआ है. इसके साथ ही गांवों की विभिन्न स्थितियों का चित्रण करने में कवि का अभिव्यक्ति कौशल देखते ही बनता है. कविता का समापन पगडंडी की व्यथा-कथा के रूप में हुआ है. चंचल अल्हड़ नदी को शहर की नज़र लग जाती है और विकास की हवा पगडंडी को लील जाती है. मानवीकरण अलंकार और प्रतीकों के माध्यम से कवि ने पगडंडी को जीवंत कर दिया है. पूरी कविता अंत तक आते-आते टीस-सी छोड़ जाती है.
नदी को लेकर संग्रह की कविताएं 'नदी को बहने दो' और 'नदी हत्यारिन होती जा रही है', शीर्षक विरोधाभासी-से लगते हैं. नदी एक ही है परंतु कवि के भाव भिन्न हैं, इसलिए उत्सुकता होती है कि कवि ने नदी को इन दो रूपों में क्यों चित्रित किया है? पहली कविता में कवि की इच्छा है कि नदी को मरने नहीं देना चाहिए, नदी आशंकित है, भयभीत है कि विकास के कारण उसका दम घुट जाएगा. कवि के अनुसार बहती नदी 'सभ्यता है/संस्कृति है/राष्ट्र की पहचान है, विकास का मूल है.'
नदी को पीड़ा मत सहने दो
सुनो,
जो कुछ भी कहना चाहती है
कहने दो
नदी को बहने दो.
'नदी हत्यारिन होती जा रही है' कविता में कवि के शब्द हैं -
हत्यारिन होती जा रही है नदी 
और बदले की आग में
नहीं पहचान रही है
दोषी और निर्दोष कौन है?
कवि को लगता है नदी में मनुष्य के गुण आ गए हैं. वह भी 'हमारे साथ राजनीति करती है/आने वाले समय के लिए मानवीय विपक्ष से डरती है.' 
'नदी होती हैं लड़कियां' में कवि ने लड़कियों को नदी-सा नहीं, नदी ही माना है. जिस प्रकार नदी अपना मार्ग प्रशस्त करने के लिए अपने मार्ग की समस्त बाधाओं को चूर-चूर कर देती है; उसी भांति लड़कियां भी निरंतर गतिशील होकर अपने लक्ष्य तक, अपने असीम तक पहुंचना चाहती हैं. वे अपने स्वभावानुसार शनैः-शनैः मुस्कराते हुए आगे बढ़ जाती हैं. नदी भी किनारों का स्पर्श करते हुए मंद-मंद गति से आगे बढ़ती है. दोनों के जीवन में विघ्न-बाधाएं आती हैं; तब दोनों के रूप बदल जाते हैं. कवि ने उनके विकराल रूप को इस प्रकार चित्रित किया है-
जब तोड़ना होता है बाँध
मार्ग में बनने वाली रुकावट को,
तब विकराल हो जाती हैं
लील जाती हैं
प्रत्येक वन-जीवन को
गांव-शहर को
बस्ती और खेतों को भी.
नदी रूपी लड़कियां इस प्रकार मार्ग के अवरोधों को चकनाचूर कर अग्रसर होती हैं.
अपनी अकूत शक्ति के आगे
किसी की नहीं सुनती लड़कियां
तब धारण करती हैं
विकराल रूप
तोड़ ही देती हैं
अपने लक्ष्य तक पहुंचने की
हर बेड़ी को
सदा ही तो.
'लड़की' कविता में कवि ने लड़की की तुलना चिड़िया से की है जो अनंत का स्पर्श करने हेतु आकाश में उड़ान भरती है. वह विराट की ओर नदी की लहर के रूप में निरंतर बहती रहती है. वह स्त्री के रूप में नेह की वर्षा करती है. कवि ने लड़कियों के यथार्थ को मार्मिक ढंग से चित्रित किया है-
परंतु लड़की आज भी
बोल नहीं पा रही है
ठीक से,
आज भी धरती बनकर
बिछती जा रही है
पांवों के नीचे.
लड़कियों को लेकर, बेटियों को लेकर आदर्श की जितनी बातें कर लें, जितनी नारेबाज़ी कर लें, जितने महिला-आयोग बना लें, कवि की इन पंक्तियों ने उनकी वास्तविक सामाजिक स्थिति को उजागर कर दिया है. 
लव ने बेटियां, मां, पिता, प्रेम और कविता पर रचित केशव की कविताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि कविता कवि का संबल है, अस्तित्व को बनाए रखने का माध्यम है, उसकी प्राणदायिनी ऊर्जा है, कविता उसके लिए सुगंधित पुष्पों की महक है. इस संग्रह की अन्य कविताएं कवि की भिन्न-भिन्न भावों की कविताएं हैं. जिनमें आशावाद, संघर्ष, कवि उड़ान-क्षमता, अभिव्यक्ति-सामर्थ्य, अनुभव, बिंब, प्रतीक, भाव सभी अभिव्यक्त हुए हैं. 
'रोज बुनता हूं सपने' के आत्मकथ्य में कवि कहता है, कोरोना की विभीषिका के बाद हताश हुए मन में उजास भरने की सुखद परिणति हैं मेरी कविताएं. कविता मेरे लिए संजीवनी है. जब मैं सस्वर नहीं चीख पाता, नहीं रो पाता, मुखर होकर नहीं प्रत्युत्तर दे पाता, तब कविता साहस, संबल और साथ देती है.
आज साहित्य तक के बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय ने केशव मोहन पाण्डेय के कविता-संग्रह 'रोज़ बुनता हूँ सपने' की चर्चा की है. सर्व भाषा प्रकाशन से प्रकाशित इस कृति में कुल 60 कविताएं, शामिल हैं और इस पुस्तक के हार्डबाउंड संस्करण का मूल्य 300 रुपए है. 
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'रोज़ बुनता हूँ सपने' केशव मोहन पाण्डेय का कविता संग्रह है. सर्व भाषा ट्रस्ट की ओर से उसे सर्व भाषा प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. पृष्ठ संख्या है 148 और मूल्य है 300 रुपए.

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