![भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'रेखा' का कवर [सौजन्यः राजकमल प्रकाशन]](https://akm-img-a-in.tosshub.com/aajtak/images/story/201908/rekha_1567149144_749x421.jpeg?size=1200:675)
पाप और पुण्य जैसे सवाल पर अमर कृति चित्रलेखा लिख पूरी दुनिया में मशहूर महान उपन्यासकार साल 1903 में आज के ही दिन पैदा हुए थे. मानवीय संबंधों पर उनकी गज़ब की पकड़ थी. आज उनकी जयंती पर साहित्य आजतक पर पढ़िए उनके उपन्यास रेखा का एक मजेदार अंश. इसे पढ़ते हुए आपको एक पूरी कहानी पढ़ने का सा भान होगा.
भगवतीचरण वर्मा ने इस उपन्यास में शरीर की भूख से पीड़ित एक आधुनिक, लेकिन एक ऐसी असहाय नारी की करुण कहानी कही है जो अपने अन्तर के संघर्षों में दुनिया के सब सहारे गँवा बैठी. रेखा ने श्रद्धातिरेक से अपनी उम्र से कहीं बड़े उस व्यक्ति से विवाह कर लिया जिसे वह अपनी आत्मा तो समर्पित कर सकी, लेकिन जिसके प्रति उसका शरीर निष्ठावान नहीं रह सका.
शरीर के सतरंगी नागपाश और आत्मा के उत्तरदायी संयम के बीच हिलोरें खाती हुई रेखा एक दुर्घटना की तरह है, जिसके लिए एक ओर यदि उसका भावुक मन जिम्मेदार है, तो दूसरी ओर पुरुष की वह अक्षम्य 'कमजोरी' भी, जिसे समाज 'स्वाभाविक' कहकर बचना चाहता है. वस्तुतः रेखा जैसी युवती के बहाने आधुनिक भारतीय नारी की यह दारुण कथा पाठकों के मन को गहरे तक झकझोर जाती है.
पुस्तक अंशः रेखा
"मैं आपकी बात समझा नहीं." योगेन्द्रनाथ ने रेखा को गौर से देखते हुए कहा.
''बड़ी सीधी-सी बात मैंने आपसे पूछी. आदमी कसरत करके, अच्छा खाकर अपने को सुडौल बनाता है. सैंडो, राममूर्ति- ये जितने नाम आते हैं, इन सबने अपना शारीरिक विकास किया. और आत्मिक विकास योगियों ने किया, तपस्या करके, अध्ययन करके मनन-चिन्तन करके गांधी योगी थे, उनका क्षेत्र था आत्मिक विकास; गामा पहलवान था, उसका क्षेत्र था शारीरिक विकास. मैं गलत तो नहीं कहती, डॉक्टर?"
जो बात रेखा ने कही थी, योगेन्द्रनाथ उसका उत्तर सोचने लगा. योगेन्द्रनाथ को चुप देखकर रेखा ने अपनी बात आगे बढ़ाई, "डॉक्टर, शरीर बूढ़ा हो जाता है, लेकिन आत्मा तो बूढ़ी नहीं होती. शरीर जन्म लेता है, मरता है, लेकिन आत्मा अमर है, अजन्मा है. यही तो हमारा हिन्दू-दर्शन कहता है. ऐसी हालत में मैं तो इस निर्णय पर पहुँचती हूँ कि शरीर और आत्मा का अन्तर आधारमूल अन्तर है. शरीर के अपने निजी गुण हैं, शरीर की अपनी निजी कमजोरियाँ हैं. इन कमजोरियों को दूर किया जा सकता है शरीर के विशेष अंगों को नष्ट करके. डॉक्टर, मैं पूछती हूँ कि शरीर को विकृत बना लेना कहाँ तक उचित है?"
एकाएक योगेन्द्रनाथ एक झटके के साथ उठ खड़ा हुआ; रेखा के तर्क ने उसे काफी उत्तेजित कर दिया हो जैसे.
"रेखाजी, शरीर और आत्मा दो पृथक तत्व हैं, मैं मानता हूँ, लेकिन जैसा मैंने आपसे आरम्भ में ही कहा, बिना शरीर के आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है. कम-से-कम इस भौतिक जगत में. आत्मा का हरेक कर्म, हरेक भोग शरीर द्वारा होता है, आपको इतना तो स्वीकार करना पड़ेगा. लेकिन यह मान लेना कि आत्मा निर्विकार है, गलत होगा. आत्मा के पास गुणों के साथ-साथ विकृतियाँ मौजूद हैं. ज्ञान और अज्ञान, मानवता और पशुता-ये सब आत्मा के ही धर्म हैं. इस समय मैं आपको यह सब विस्तार के साथ नहीं समझा सकता, आप नशे में हैं, और मैं कह सकता हूँ कि कुछ-कुछ नशा मुझ पर भी है, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि आपकी विचारधारा गलत दिशा में है."
रेखा उठकर योगेन्द्रनाथ के सामने खड़ी हो गई. योगेन्द्रनाथ का शराब का प्याला- उसके हाथ में देते हुए उसने कहा, "अरे, आप मुझसे नाराज हो गए. मेरे तर्कों को कुतर्क कहकर प्रोफेसर भी मुझसे इसी तरह नाराज हो जाया करते हैं; लेकिन मैंने भी तो दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया है. लीजिए, अपना गिलास खत्म कीजिए, मैं अब आपसे तर्क नहीं करूंगी. कितनी अहम्मन्यता आपके पास है! लेकिन पुरुष की अहम्मन्यता बर्दाश्त करना हम स्त्रियों का स्वभाव ही है शायद, इसलिए मैं आपका बुरा नहीं मानूंगी. आप उठकर खड़े क्यों हो गए? बैठिए न! अभी तो सिर्फ नौ बजे हैं." रेखा ने योगेन्द्रनाथ का हाथ पकड़कर सोफे पर बिठा दिया. इस बार वह स्वयं सोफे पर उसके बगल में बैठ गई.
कुछ हिचकिचाते हुए योगेन्द्रनाथ ने कहा, "अब आप मुझे जाने दीजिए रेखाजी न जाने क्यों मुझे डर लग रहा है!" रेखा ने देखा कि योगेन्द्रनाथ के स्वर में एक विवशता और करुणा है. रेखा योगेन्द्रनाथ की बात सुनकर हंस पड़ी, फिर उसने गंभीर होकर पूछा, ''डॉक्टर, एक सवाल मैं आपसे पूछूँगी, किससे डर लग रहा है आपको ? प्रोफेसर से, मुझसे या अपने-आपसे ?"
''मैं कह नहीं सकता."
"तो मैं फिर आपको बतलाती हूं. आपको मुझसे डर नहीं लग रहा है, क्योंकि मैं आपसे कमजोर हूँ. एक तरह से आपके लिए मैं अस्तित्वहीन-सी हूँ. और आपको प्रोफेसर से भी डर नहीं लग रहा, क्योंकि वह घर में नहीं, और अभी घंडा-डेढ़ घंटा उनके लौटने की कोई सम्भावना भी नहीं है आपको असल में अपने -आपसे ही डर लग रहा है, है न ऐसा ? लेकिन अपने से डरना सबसे बड़ा अवगुण है." यह कहकर रेखा ने योगेन्द्रनाथ का हाथ अपने हाथ में ले लिया. योगेन्द्रनाथ ने अनुभव किया कि उसकी धमनियों में रक्त का संचार तेजी पकड़ता जा रहा है. उसने रेखा के हाथ से अपना हाथ छुड़ाया नहीं, लड़खड़ाते स्वर में उसने कहा, "भय किससे लग रहा है, यह मैं नहीं जानता; लेकिन भय की भावना मेरे अन्दर है, इतना मैं अनुभव कर रहा हूँ. हो सकता है कि आपकी ही बात ठीक हो. लेकिन अपने अंदर वाले भय को मैं दबाऊं कैसे ?''
''इस बात में मैं आपसे अधिक भाग्यशाली और सुलझी हुई हूँ. मुझे अपने से भय नहीं लगता. कभी अपने से ही भय लगता था, मैं स्वीकार करती हूँ. लेकिन यह अतीत की बात है, जो मिट चुका है डॉक्टर! खैर छोड़िए भी इस बात को, जो मिट चुका, वह मिट चुका. सत्य यह है कि मुझे अपने से भय नहीं लगता और मेरी सलाह मानकर आप भी अपने से डरना छोड़ दीजिए."
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पुस्तक : रेखा
लेखक : भगवतीचरण वर्मा
विधा : उपन्यास
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 225/ रुपए पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 240