
हिंदी साहित्य के इतिहास पर पिछली एक शताब्दी में काफी काम हुआ और लिखा पढ़ा गया है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारी बाबू से लेकर नए दौर के विषय विशेषज्ञों तक इसकी कड़ियों को पिरोकर एक परिमार्जित साहित्य इतिहास बनाने की कोशिशें होती रही हैं. और अब इस कड़ी में एक और पुस्तक जुड़ गई है.
नई पुस्तक है ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ और इसके लेखक हैं डॉ मान सिंह वर्मा. पुस्तक भारत भारती प्रकाशन मेरठ से प्रकाशित हुई है और मात्र 300 रूपए में पेपरबैक संस्करण लोगों के लिए उपलब्ध है. हालांकि सज्जा और कवर के लिहाज से पुस्तक साधारण दिखती है लेकिन अनुक्रम देखकर इसकी व्यापकता का अंदाज़ा लगता है.
डॉ मान सिंह वर्मा अपने कई वर्षों के प्रयास के बाद इसे मूर्तरूप दे सके हैं. और यह मेहनत पुस्तक की परिकल्पना और गठन में दिखाई भी देती है. हिंदी साहित्य के इतिहास के अभी तक बताए- लिखे ढर्रे से बाहर देखने की कोशिश इस पुस्तक में की गई है. यह पुस्तक साहित्य के इतिहास में कुछ लापता नामों और विधाओं को भी जोड़ने में सफल रही है और इस तरह यह अधिक समावेशी इतिहास की ओर लेकर जाने में सफल पुस्तक है.
भारतेंदु से शुरु करके हिंदी खड़ी बोली के इतिहास को देखने की परिपाटी में डॉ मान सिंह वर्मा एक और नाम जोड़ते हैं. वो भारतेंदु हरिशचंद्र और श्रीधर पाठक से भी पहले संतकवि गंगादास (1823-1913) को अपने शोध और तर्क के आधार पर खड़ी हिंदी के पहले कवि के तौर पर स्थापित करते हैं और उनको साहित्य इतिहास का हिस्सा बनाते हैं.
पुस्तक जितना पीछे जाकर इतिहास में गोते लगाती है उसी तत्परता से आगे की ओर भी देखती है और इसी क्रम में गीत-गज़ल और हाइकु को भी हिंदी लेखन की नव विधाओं के तौर पर मान्यता देते हुए उन्हें भी हिंदी साहित्य के इतिहास में जगह दी गई है.
इतना ही नहीं, पुस्तक हिंदी साहित्य के लिए अपना योगदान देने वाले अहिंदी लेखकों और कवियों को भी अपने में संजोती है और हिंदी की धरोहर को और प्रसार देने वाले नायकों में इन नामों को शामिल करती है.
हिंदी साहित्य का इतिहास जिन देशकाल और परिस्थितियों से गुज़रा है और जिनकी इसमें भनक दिखती है, उसे भी डॉ मान सिंह वर्मा अपने इतिहास लेखन का हिस्सा बनाते हैं. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के उन चेहरों को भी हिंदी साहित्य के इतिहास में स्थान दिया है जिन्होंने अपने लेखन और प्रचार-प्रसार के माध्यम से हिंदी को बढ़ाने का काम किया है.
व्यापक पुस्तक का दायरापुस्तक हिंदी साहित्य के इतिहास को आदिकाल से शुरु करते हुए इसमें सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य को भी स्थान देती है. दरअसल, हिंदी के बनने के क्रम में इनको बाहर रखकर बात नहीं की जा सकती है.
साथ ही रीतिकाल के गद्य साहित्य को भी यह पुस्तक अलग से स्थान देकर ब्रज, दक्खिनी, खड़ी बोली गद्य और राजस्थानी गद्य को अच्छे से समझाती है.
ख़ास बात यह है कि इस पुस्तक को प्रयोजनमूलक भी रखा गया है और साथ ही हिंदी साहित्य के इतिहास को और व्यापक दायरे में रखने की कोशिश भी की गई है. इससे विद्यार्थियों को हिंदी साहित्य की समझ में तो मदद मिलती ही है, साथ ही परीक्षाओं की दृष्टि से भी यह पुस्तक खासी उपयोगी है.
अपने अद्यतन होने और अपनी समग्रता के कारण यह पुस्तक संग्रहणीय है और इसे आसानी से अपनी किताबों की चयनसूची में शामिल किया जाना चाहिए ताकि जब-तब इसकी मदद से संदर्भों को साधने में मदद मिल सके.