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आने वाले कल को संवारने के लिए जरूरी है 'बचपन की आजादी'

इस पुस्तक में लेखक ने अपने संघर्ष के किस्सों की गवाही उन लेखों के जरिए दी है जो कालांतर में देश के अलग अलग राष्ट्रीय समाचार पत्रों में न सिर्फ छपे बल्कि कैलाश सत्यार्थी को बचपन बचाने वाले योद्धा के रूप में स्थापित करते रहे.

जीवन के संघर्षों की कहानी 'आजाद बचपन की ओर' जीवन के संघर्षों की कहानी 'आजाद बचपन की ओर'
प्रियंका झा
  • नई दिल्ली,
  • 23 फरवरी 2016,
  • अपडेटेड 3:12 PM IST

किताब का नाम: आजाद बचपन की ओर
लेखक: कैलाश सत्यार्थी
प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन

दुनिया भर में 17 करोड़ बच्चे इतने बदकिस्मत हैं कि उनका बचपन बाल मजदूरी की चक्की में पिस रहा है. करीब छह करोड़ बच्चे कभी भी स्कूल का मुंह तक नहीं देख पाते और करीब 12 करोड़ बच्चे की तकदीर इतनी अच्छी नहीं होती कि वो अपनी पढ़ाई शुरूआती सालों में जारी रखकर पूरी कर सकें. तकरीबन साढ़े आठ लाख बच्चे गुलामी, वेश्यावृत्ति, भिखमंगों और खतरनाक उद्योगों की जंजीरों में जकड़े हुए हैं. इतनी तादाद में बच्चों की ये फौज अपनी किस्मत से लड़ रही है, और ये सिक्के का एक पहलू है.

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जबकि इसी सिक्के के दूसरी तरफ भी एक तस्वीर दिखाई देती है, जो बच्चों के हक में लड़ने वालों को हौसला देती है. बच्चों पर होने वाले जुल्मों, सितम को सरकार, समाज या फिर कॉरपोरेट जगत अब नज़रअंदाज नहीं कर सकते.

नोबेल शांति पुरस्कार हासिल करने वाले और अपना सारा जीवन बच्चों के हक की लड़ाई लड़ने वाले कैलाश सत्यार्थी की पुस्तक 'आजाद बचपन की ओर' में इन सारी बातों को उजागर किया गया है. प्रभात प्रकाशन की ओर से प्रकाशित इस पुस्तक में कैलाश सत्यार्थी ने अपने 35 साल के संघर्ष के उन हिस्सों का उल्लेख किया है, जो उनके इस सफर में पड़ाव की शक्ल में सामने आए. 1980 से शुरू किए गए बंधुआ मजदूरी और बाल दासता के खिलाफ अभियान का जिक्र वाकई काबिले गौर है क्योंकि इन हिस्सों का उल्लेख इस बात को भी जाहिर करता है कि लेखक को वास्तव में इंसानियत का समाजशास्त्र समझने और बचपन को संभालने का तजुर्बा हासिल करने में किन किन हालातों का सामना करना पड़ा और उन परिस्थितियों से पार पाते हुए अपने सफर को जारी रखा.

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इस पुस्तक में लेखक ने अपने संघर्ष के किस्सों की गवाही उन लेखों के जरिए दी है जो कालांतर में देश के अलग अलग राष्ट्रीय समाचार पत्रों में न सिर्फ छपे बल्कि कैलाश सत्यार्थी को बचपन बचाने वाले योद्धा के रूप में स्थापित करते रहे.

इसी पुस्तक के शुरुआती पन्नों में विभिन्न शीर्षकों के तहत कैलाश सत्यार्थी ने अपने उस अनुभव को भी साझा किया है, जिसे उन्होंने अपनी इस लंबी लड़ाई के दौरान महसूस किया. उनका मानना है कि सामाजिक चेतना को जगाने और मुल्क के बचपन को संवारने और उन्हें उनका हक दिलाने के साथ-साथ देश की मुख्य धारा का हिस्सा बनाने के लिए जरूरी है कि देश में राजनैतिक इच्छा शक्ति हो. बदकिस्मती से देश में सक्रिय तमाम राजनैतिक पार्टियां सत्ता संघर्ष तो करती दिखती हैं, मगर बच्चे और उनका खोता हुआ बचपन उनकी प्राथमिकता नहीं हैं. शायद यही वजह है कि 1976 में बने बंधुआ मजदूरी उन्मूलन मजदूरी के कानून और 1986 में बने बाल मजदूरी उन्मूलन कानून के बनने के बावजूद आजतक किसी भी मालिक और आरोपी को एक दिन के लिए भी जेल की सलाखों के पीछे नहीं रहना पड़ा.

 

इस किताब के जरिए कैलाश सत्यार्थी मुल्क की जिस तस्वीर के साथ सामने आए हैं वो वाकई न सिर्फ चौंकाती है बल्कि डराती भी है. किताब का सार भी यही कहता है कि अगर अपने कल को संवारना चाहते हैं तो हमें आज ही अपने बचपन की परवरिश और उनकी समुचित शिक्षा का इंतजाम कर देना चाहिए. इतना ही नहीं देश की सियासत बच्चों के लिए बच्चों की खातिर और बचपन बचाओं की मुहिम में जुटे तो सब कुछ ठीक हो सकता है. इससे मुल्क भी खुशहाल होगा. शायद ये देश फिर से सोने की चिड़िया कहलाने लगे.

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