
"कहीं बहुत ज़्यादा अंधेरा है, अचानक से कोई आता है और उस राह में एक चिराग़ जला देता है. कुछ साल पहले आजतक ने एक ऐसी शुरुआत की है और बताया है कि साहित्य इस तरह,से भी सेलिब्रेट किया जा सकता है. इसकी शामें, इसके सेशन्स, यहां पर होने वाली पोएट्री और स्टोरी टेलिंग... ये तमाम चीज़ें इतनी ख़ूबसूरती और बड़े पैमाने पर सेलिब्रेट की जा सकती हैं, ये साहित्य आजतक के मंच से ही मुमकिन हो पाया है. मैं इसके लिए साहित्य आजतक और इसकी पूरी टीम को मुबारकबाद देता हूं."
साहित्य आजतक (Sahitya AajTak) के बारे में ये बातें शायर और गीतकार आलोक श्रीवास्तव ने aajtak.in से बातचीत के वक़्त कहीं, जो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (Delhi) के मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में होने वाले 'साहित्य आजतक' में तशरीफ़ लाए थे. उन्होंने कहा कि 'साहित्य आजतक' अदब की दुनिया में रौशनी की तरह है.
'सियासत को राह दिखाना अदीब का दायित्व...'
'साहित्य में सियासत या सियासत में साहित्य' के सवाल पर आलोक श्रीवास्तव ने कहा, "मुझे लगता है कि साहित्य में सियासत और सियासत में साहित्य होना ही नहीं चाहिए. मेरा मानना है कि साहित्य का काम ही सियासी लोगों को राह दिखाने का है. मुश्किल ये हो रही है कि उनको राहें दिखाने की जगह हम उनकी राहों पर चलने लगे हैं. मुझे ऐसा लगता है कि सियासी राहों पर चलने के बजाय, साहित्यकार, अदीब, लेखक और कवि का ये दायित्व होता है कि वो सियासत को राह दिखाए."
आलोक श्रीवास्तव ने रामधारी सिंह दिनकर और नेहरू से जुड़ा एक वाक़या सुनाते हुए कहा, "पंडित नेहरू लाल क़िले की सीढ़िया चढ़ रहे थे, पीछे रामधारी सिंह दिनकर थे, अचानक नेहरू का पांव लड़खड़ाया और दिनकर जी ने उन्हें संभाल लिया. नेहरू ने उनका शुक्रिया अदा किया कि अरे दिनकर जी आपने मुझे संभाल लिया. इसके बाद दिनकर जी ने उन्हें जवाब दिया कि इसमें कोई नई बात नहीं है, सियासत जब-जब लड़खड़ाएगी साहित्य और अदब उसे संभालता रहेगा."
आलोक श्रीवास्तव आगे कहते हैं, "अदीबों का काम सियासत को संभालना है, न कि सियासत संभालना. मैं ये नहीं कह रहा हूं कि साहित्य के लोग सियासत संभालें, मैं ये कह रहा हूं कि साहित्य के लोग सियासत को संभालें. सियासत संभालने और सियासत को संभालने... दोनों में फ़र्क है."
आशुतोष राणा की बात का ज़िक्र करते हुए आलोक श्रीवास्तव कहते हैं, "'हम राम को तो मानते हैं, लेकिन राम की नहीं मानते', इस 'को' और 'की' का जो अंतर है, ये सियासत और साहित्य दोनों जगह लागू होता है."
साहित्य पर सोशल मीडिया का क्या असर?
आलोक श्रीवास्तव कहते हैं कि हर चीज़ के दो पहलू होते हैं, मायने ये रखता है कि आप उसको किस तरह से देखते हैं. हर टूल अपने आप में पॉज़िटिव और बहुत काम का भी है. वहीं, दूसरी तरफ़ उसी टूल से आप कुछ ख़राबी भी पैदा करत सकते हैं. फ़र्क़ इससे पड़ता है कि आप कितनी क्रिएटिविटी और पॉज़िटिविटी से इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. हमको ही फ़ैसला करना है कि हम किस तरह से इसका इस्तेमाल करें. अगर अहम अंदर से बहुत निगेटिव होंगे और मुआशरे (समाज) को ख़राब करने का हमारा मन होगा, तो हम इसी का ग़लत इस्तेमाल कर लेंगे.
ख़ुश्बू को फ़ैलने का बहुत शौक़ है मगर,
मुमकिन नहीं हवाओं से रिश्ता किए बग़ैर.
- बिस्मिल सईदी
आलोक श्रीवास्तव कहते हैं कि आप लोग (साहित्य आजतक) हवाएं हैं, जो हमारी ख़ुश्बू को फ़ैलाती हैं. अगर किसी के मस्तिष्क, मानस और चित्त में दुर्गंध भरी होगी, तो वो सोशल मीडिया पर आएगा और दुर्गंध फ़ैलाएगा. हमारे अंदर अच्छी और बुरी चीज़ों को परखने की क़ाबिलियत होनी चाहिए.
ज़बान-ए-तिफ़्ल से खुलते हैं ख़ानदान के राज़,
अदब, शऊर, सलीक़े घरों से मिलते हैं.
- नामालूम
उर्दू और हिंदी के नए शायरों/कवियों पर बात करते हुए आलोक श्रीवास्तव कहते हैं, "मौजूदा वक़्त में नए लोगों की लेखनी मुझे बहुत अच्छी लग रही है. अगर कोई तथ्यात्मक और वैचारिक बात है, तो मुझे Free Verse (मुक्त छंद) पोएट्री भी बहुत अच्छी लगती है. मैं ऐसा मानता हूं कि चाहे वो गीत हो, ग़ज़ल हो, मुक्त छंद की नज़्म हो, कविता हो... ज़बान का आना, आपकी जो स्टडी पर निर्भर करता है. आप अदब में वो करते हैं, जो आपने अपने घर के अदब से सीखा होता है."