
Delhi Sahitya Aajtak 2024 Imran Pratapgarhi: राजधानी दिल्ली में एक बार फिर शब्द-सुरों का महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2024' का मंच सज गया है. तीन दिवसीय इस कार्यक्रम में नेता, अभिनेता, कलाकारों समेत बड़े-बड़े दिग्गज शामिल होंगे. यह आयोजन 22 नवंबर से 24 नवंबर तक चलेगा. पहले दिन शायर और राज्यसभा सांसद (कांग्रेस) इमरान प्रतापगढ़ी 'सियासत और शायरी' कार्यक्रम में मेहमान बनकर आए.
उत्तर प्रदेश सरकार के यश भारती पुरस्कार से सम्मानित शायर और कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी ने अपने शायराना कलाम से दर्शकों का दिल जीता. कार्यक्रम के पहले दिन यानी शुक्रवार, 22 नवंबर को 'स्टेज-1 हल्ला बोल चौपाल' पर 'सियासत और शायरी' में इमरान का सेशन आयोजित हुआ सेशन मॉडरेट करने के लिए जानी-मानी एंकर अंजना ओम कश्यप मंच पर रहीं.
शेर-ओ-शायरी की दुनिया और राजनीति में आने की वजहों पर बात करते हुए इमरान ने बुद्धिसेन शर्मा का शेर सुनाया. उन्होंने कहा कि जब शुरुआती दिनों वो शायरी कर रहे थे, उस दौर में उन्होंने राजनीति के बारे में लोग ऐसा लिख रहे थे...
दिये बुझाती शोलों को भड़काती है,
आंधी को भी दुनियादारी आती है,
राजनीति के गलियारों में मत जाना,
नागिन अपने बच्चों को खा जाती है.
पिता चाहते थे डॉक्टर बनूं
इमरान प्रतापगढ़ी ने कहा कि मेरे पिता चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं. फिर जब मैं शायरी की राह पर निकला तो उन्हें लगा 'लड़का खराब हो गया'. उन्होंने बताया कि मैंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से लिटरेचर से पढ़ाई की. फिर शायरी को पेशा चुना और अब सियासत का हिस्सा हूं. हालांकि उन्होंने मंच पर बताया कि उन्होंने पत्रकारिता की भी पढ़ाई की है लेकिन यह पेशा नहीं चुना.
चुनावी रैलियों में लोगों से कैसे कनेक्ट करते हैं?
मैं इसलिए जिंदा हूं क्योंकि बोल रहा हूं,
दुनिया किसी गूंगे की कहानी नहीं लिखती.
इमरान ने कहा कि मेरे लिए लोगों से जुड़ना बहुत आसान होता है. वहां लोग मुझे सुनने आते हैं देखने नहीं. फिल्म स्टार्स आते हैं किसी प्रोग्राम में तो लोग उन्हें देखने आते हैं. मेरे साथ यह है कि जो आवाम मुझे सुनने आती है वो आई हुई भीड़ होती है, लाई हुई नहीं होती.
इन्कलाब का नारा होगा,
पहला नाम हमारा होगा,
धरती के आंसू निकलेंगे और समंदर खारा होगा,
दर्पण कितना प्यारा होगा, जिसमें अक्स तुम्हारा होगा,
एक अकेला क्या कर लेता,
भीड़ ने घेरके मारा होगा, पहला नाम हमारा होगा.
जब तारीख लिखी जाएगी, जब इतिहास लिखा जाएगा,
जब तारीख लिखी जाएगी, कैसा हश्र तुम्हारा होगा,
इन्कलाब का नारा होगा...
इमरान के अंदर इतना दर्द क्यों है?
सवाल का जवाब देते हुए इमरान ने कहा कि मैं हिंदी साहित्य का विद्यार्थी रहा हूं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में, जिस दौर में मैं बड़ा हो रहा था, समाज की घटनाएं मुझ पर प्रभाव डाल रही थीं. उस समय सिस्टम एक अलग तरीके से व्यवहार कर रहा था और खासतौर से मैं जिस समाज से आता हूं मैं उस समाज के दर्द को ज्यादा जल्दी महसूस करता हूं क्योंकि मैं उनके बीच में रहता हूं. मैंने उस भेदभाव और सिस्टम के जुल्म ओ सितम को करीब से देखा है. और शायर हूं तो जाहिर सी बात है दर्द तो है दिल में.
जुल्म के दौर की तारीख रकम करते हैं,
इतना आसान नहीं ये काम जो हम करते हैं,
काट देते हैं सदा हाथ हमारे जालिम और,
हम उन कटे हाथों को अलम करते हैं.
हम कोशिश कर रहे थे कि उस दर्द को महसूस करें और जब मीडिया उस दर्द को, जुल्म-ओ-सितम को अपना हिस्सा नहीं बना रही थी. मेरी कोशिश थी कि जो मेरे पास प्लेटफॉर्म है मैं उसका इस्तेमाल जुल्म ओ सितम को गाने के लिए करूं और मुझे लगता है कि मैं कामयाब रहा बहुत हद तक, मैंने अपनी बात दुनिया के सामने रखी.
मत समझना कि मैं एक गीत गाता रहा,
मैं तो जख्मों का मातम मनाता रहा,
यह समझकर जालिम पिघल जाएगा,
मैं तरन्नुम में मातम मनाता रहा.
'मैं जुल्म पर मातम मनाता रहा', लेकिन ये जुल्म किस पर हो रहा है?
इस सवाल के जवाब पर इमरान प्रतापगढ़ी ने कहा कि समाज में हाशिये पर मौजूद हर इंसान पर. वो हिंदू भी है, मुस्लमान भी है, सिख भी है और इसाई भी, इन पर हमेशा से सिस्टम कर रहा है और आज भी कर रहा है. इससे एक लंबी लड़ाई लड़ने की जरूरत है. इसमें सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कलमकारों की, कलमकार सत्ता का अस्थायी विपक्ष है. हमारी जिम्मेदारी है कि जब मैं शायर बनकर बोलूं तो फिर हाकिम से आंख मिलाकर बात करूं.
जब मैं 2010 से 2014 के बीच शेर-नज्म लिख रहा था, 'मां हम भी तेरे बेटे हैं...' वो 2011 में लिखी थी, मदरसों की नज्म 2012 में लिखी. उसके बाद हालात जैसे-जैसे बदलते गए मैंने कोशिश की कि मैं अपनी कलम के साथ इंसाफ करता रहूं.
पार्टी तो नहीं बदलूंगा, राजनीति छोड़ दूंगा: इमरान प्रतापगढ़ी
शायरी और पार्टी की विचारधार पर पूछे गए एक सवाल पर इमरान ने कहा कि मैं एक पार्टी के साथ काम कर रहा हूं, हम किसी संस्थान के साथ काम कर करते हैं. संस्थान हमें सम्मान देता है हम संस्थान की विचारधारा के साथ सहमत होते हैं तब तक साथ चलते हैं जिस दिन हमें लगेगा कि संस्थान हमारी विचारधारा से सहमत नहीं है, हमारी शर्तों को नहीं मान रहा है तो उस दिन ये हो सकता है. मेरा अपना उसूल है कि मैं पार्टी तो नहीं बदलूंगा, राजनीति छोड़ दूंगा. हमारी अपनी एक अलग दुनिया है. यह कहना कि मेरा सियासत से कोई लेना नहीं है वो सबसे बड़ी सियासत है. वो अपने आप को सबका रखना चाहता है. इस पर एक शेर सुनाते हुए अपनी बात कुछ यूं रखी...
खौफ नहीं जिसे मुरझाने का मैं उस गुल के साथ खड़ा हूं,
कैसा भी दौर आए लेकिन मैं राहुल के साथ खड़ा हूं,
कल भी खुल के साथ खड़ा था आज भी खुल के साथ खड़ा हूं,
कैसा भी दौर आए मैं राहुल के साथ खड़ा हूं.
बीच-बीच में उन्होंने अपनी शायरी और नजमों से दर्शकों को बांधे रखा उनमें से एक है-
सुन नहीं पाए बेजुबानी को,
आप समझे नहीं कहानी को,
ये जो आतिशपरस्त फिरका है,
बददुआ दे रहा है पानी को,
आप समझे नहीं कहानी को,
ढ़ूढ़ लेती है हथकड़ी इक दिन,
खेल समझो न हकबयानी को,
आप समझे नहीं कहानी को,
आप चुपचाप जुल्म सहते हैं,
क्या हुआ आपकी जवानी को.
विचारधारा की वजह से सोशल मीडिया पर 'लिन्चिंग' पर बीच का रास्ता क्या हो सकता है?
मैं अपनी नई नस्लों से एक बात कहूंगा, सोशल मीडिया आपकी बात पहुंचाने का जरिया भर है. बहस का प्लेटफॉर्म नहीं है, वहां बहस मत करिए. आपको ट्वीट करना, फेसबुक-इंस्टा पर कुछ लिखना है तो लिख दीजिए अपनी बात पहुंचा दीजिए. उस पर रिप्लाई करने मत जाइए, कमेंट पढ़ने की जबरदस्ती कोशिश मत कीजिए और पढ़िए भी तो किसी को रिप्लाई मत करिए क्योंकि आप रिप्लाई करेंगे और आप सोचेंगे कि सामने वाला आपसे सहमत हो जाए, ऐसा नहीं है. वहां एक पूरी पेड टीम बैठी है. अपनी बात रख दीजिए बस.
एक साथ 146 सांसदों के सस्पेंड होने पर सुनाई कविता-
जख्म पर जख्म खाकर निकले हैं,
हां मगर मुस्कुराकर निकले हैं,
सिर झुकाने का हुक्म जब आया
और भी सिर उठाकर निकले हैं,
कि हर सितम का जवाब आएगा,
देखना इन्कलाब आएगा,
अच्छे दिन का जो किए थे वो वादा,
उनका दिन भी खराब आएगा,
हम तो निकले हैं मुस्कुराते हुए,
और वो तिलमिलाकर निकले हैं,
और भी सिर उठाकर निकले हैं.