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दिल्ली में दमन और दर्द के बीच गुजरा उर्दू का शानदार दौर: सैफ महमूद

इतिहासकार स्वप्ना लिडल ने बताया कि उस दौर की दिल्ली और आज की दिल्ली में जो नहीं बदला वो ये कि तब भी लोग हर शहर से यहां आते थे और आज भी कोने-कोने से आ रहे हैं.

सत्र 'दिल्ली जो एक शहर था' (फोटो- आजतक) सत्र 'दिल्ली जो एक शहर था' (फोटो- आजतक)
अनुग्रह मिश्र
  • नई दिल्ली,
  • 17 नवंबर 2018,
  • अपडेटेड 1:58 PM IST

'साहित्य आजतक' के दूसरे दिन हल्ला बोल चौपाल पर पहले सत्र 'दिल्ली जो एक शहर था' का आयोजन किया गया. इस सत्र में लेखक और शायर डॉक्टर सैफ महमूद के साथ इतिहासकार डॉक्टर स्वप्ना लिडल ने शिरकत की. इस कार्यक्रम में जैसा सत्र के नाम से जाहिर है दिल्ली की विरासत और संस्कृति पर चर्चा की गई.

इस सत्र के दौरान दिल्ली शहर के मिजाज पर विस्तार से बातचीत हुई. साथ ही शेरो-शायरी के उस दौर को भी याद किया जब मिर्जा गालिब दिल्ली की गलियों में घूमा करते थे. इतिहासकार स्वप्ना लिडल ने बताया कि उस दौर की दिल्ली और आज की दिल्ली में जो नहीं बदला वो ये कि तब भी लोग हर शहर से यहां आते थे और आज भी कोने-कोने से आ रहे हैं. दिल्ली में जो भी लोग आए और बस गए वो अपने साथ अपना खाना, जुबान, पहनावा साथ लेकर आए हैं. उन्होंने कहा कि यही बात साहित्य और रचनाओं में भी झलकती है.

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देश-दुनिया का भ्रमण करने वाले सैफ महमूद ने दिल्ली के बसने और उजड़ने को लेकर मीर का शेर सुनाते हुए कहा, 'दिल और दिल्ली दोनों अगर हैं खराब, तो कुछ लुत्फ इस उजड़े घर में भी हैं.' उन्होंने कहा कि दर्द और दमन के बीच ही उर्दू साहित्य का शानदार दौर गुजरा, उदाहरण के दौर पर फैज़ ने अपना सबसे उम्दा कलाम जेल में कैद के दौरान लिखा. उन्होंने कहा कि दिल्ली सिर्फ एक शहर नहीं बल्कि एक तहजीब का नाम है.

दिल्ली बदल रही है...

दिल वालों की दिल्ली क्या आज के दौर में बदल गई है. इस सवाल के जवाब में इतिहासकार स्वप्ना ने कहा कि लोगों के तनाव और शहरीकरण भी उनके मिजाज को बदलने की वजह है. लोगों को खुली हवा में सांस नहीं मिल पा रही है. हम जिस तरह का शहर बना रहे हैं उसी का असर हमारे दिमाग पर पड़ रहा है और इसका संस्कृति या सभ्यता से कोई-लेना देना नहीं है.

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