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साहित्य आजतक 2019: सुधीश पचौरी बोले- 18वीं शताब्दी में शुरू हुआ विचारधारा का आतंक

सुधीश पचौरी ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा कि यह कुछ नया विचार है, शायद 18वीं शताब्दी में विचारधारा का आतंक थोड़ा शुरू हुआ. इससे पहले भारतीय परंपरा में साहित्य और विचारधारा का सीधा ताल्लुक बनता नहीं, न स्टेट से कोई ताल्लुक होता था. कवि कविता करता था और कवि की महत्ता इतनी बड़ी थी कि राजा भी उसको नमस्कार करता था.

साहित्य आजतक के मंच पर सुधीश पचौरी, सच्चिदानंद जोशी और अनंत विजय (फोटो: के. आसिफ) साहित्य आजतक के मंच पर सुधीश पचौरी, सच्चिदानंद जोशी और अनंत विजय (फोटो: के. आसिफ)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 02 नवंबर 2019,
  • अपडेटेड 7:36 AM IST

  • साहित्य आजतक के दूसरे दिन की शुरुआत छठ गीत से हुई
  • बीजेपी नेता मनोज तिवारी ने मंच से गाए कई भोजपुरी गीत

साहित्य का सबसे बड़ा महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2019' शुक्रवार (1 नवंबर) से शुरू हो गया है. कार्यक्रम का आज दूसरा दिन है. दूसरे दिन 'साहित्य आजतक' के 'हल्ला बोल' मंच पर 'विचारधारा का साहित्य' सेशन में सुधीश पचौरी (लेखक), सच्चिदानंद जोशी (सदस्य सचिव, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र) और अनंत विजय (लेखक, आलोचक) ने अपनी राय रखी. इस सेशन का संचालन आजतक के एग्जिक्यूटिव एडिटर रोहित सरदाना ने किया. इस चर्चा के दौरान तीनों अतिथियों ने अपनी बातें बेबाकी से रखीं. चर्चा की शुरुआत करते हुए रोहित ने कहा विचारधारा साहित्य को बनाती है या साहित्य विचारधारा को बनाती है. दोनों एक-दूसरे को मजबूत करते हैं या कमजोर करते हैं, दोनों में से किस पर किसकी छाया रहती है और दोनों में से कौन किसको आगे बढ़ाता है या पीछे खींचता है, इन सारे सवालों पर बात करेंगे.


सुधीश पचौरी ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा कि यह कुछ नया विचार है, शायद 18वीं शताब्दी में विचारधारा का आतंक थोड़ा शुरू हुआ. इससे पहले भारतीय परंपरा में साहित्य और विचारधारा का सीधा ताल्लुक बनता नहीं, न स्टेट से कोई ताल्लुक होता था. कवि कविता करता था और कवि की महत्ता इतनी बड़ी थी कि राजा भी उसको नमस्कार करता था. ये बहुत बाद की बात है खासकर जब फ्रेंच रिवोल्यूशन के बाद की बात है कि आइडियोलॉजी को विश्व दृष्टि के तौर पर लिया जाने लगा. जब कैपिटलिज्म का उभार हुआ और उसके बाद में मार्क्सवाद आया तो यह चीजें बिल्कुल साफ हो गईं कि विचारधारा के बिना काम नहीं चलने वाला. सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद में पूंजीवाद ने अपने नेचर को बदला और इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन की जगह वह सर्विस सेक्टर में आ गई तब से आइडियोलॉजी का क्षरण शुरू हो गया. यद्यपि उस दौरान समाजवाद था, पूंजीवाद था लेकिन उसकी जो ताकत थी वह कम हो गई. पहली किताब एंड ऑफ आइडियोलॉजी 1960 में डेनियल बेन ने लिखी. जिसमें उन्होंने कहा कि आइडियोलॉजी अब कारगर नहीं है. लेकिन जब से साहित्य को भी मार्क्सवादी नजरिए से देखा जाने लगा. लेनिन के जमाने में माना जाता था कि साहित्य क्रांति का कलपुर्जा है, उसके बिना क्रांति पूरी नहीं हो सकती. इसलिए प्रचार साहित्य आने लगा प्रोपेगंडा लिटरेचर आने लगा और उस नजर से वह बेकार हो गया. अब हम अगर ध्यान से देखें तो भारत में जो प्रगतिशील आंदोलन आया उसमें दो तरह के वर्ग हो गए. एक वे जो रचनाकार थे, जैसे प्रेमचंद, प्रेमचंद भले ही विचारों से प्रगतिशीलता को मानें लेकिन बहुत से मामलों में वे उतने प्रगतिशील नहीं दिखाई देते जितने की प्रसाद नजर आते हैं खासकर स्त्री मुक्ति के संदर्भ में. लेकिन जहां तक गरीबों की बात है, विकास की बात है वहां प्रेमचंद एक एजेंडा पूरा का पूरा देते हैं लेकिन वह रचनाओं के जरिए निकलता है. वह विचार के जरिए नहीं निकलता है. जैसे आज की बात आ गई आज विचारधारा अपनी जगह पड़ी रहती है साहित्यकार अपना काम करता रहता है. और अब तो यह बात आ गई है कि साहित्यकार चाहे जितना विचारधारा ठूंस दे मुख्य बात है कि रचना क्या है और रचना का अर्थ ही है कि वह विचारधारा में अटकती है कि नहीं, कोई अच्छी रचना किसी एक विचारधारा में अटक कर नहीं रह पाती. हालांकि बहुत से लोग अभी भी खूंटे से अटके हुए हैं. कहने का अर्थ है कि विचारधारा और साहित्य एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं.

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अनंत विजय ने कहा- खूंटा बहुत छोटा शब्द है दरअसल मार्क्सवाद का खंभा गड़ा हुआ है. उस खंभे को ऐसे लोगों ने पकड़ रखा है जिनको लगता है कि खंभे से दूर जाते ही सब खत्म हो जाएगा. मार्क्सवाद के लोग ऐसे हैं जिनके रचनाओं में कुछ और होता है, ये कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं. ये प्रति तर्क दिया जा सकता है कि व्यक्ति किसी विचारधारा को हो सकता है उससे उसकी रचना का क्या, जैसे वह चरित्रहीन हो सकता है लेकिन अपनी रचनाओं में बहुत ही उत्तम चरित्र वाले नायक का चित्रण करता है. लेकिन जब आप ऐसी बातें करते हो तो समाज में आपको मान्यता नहीं मिलती. जो झूठे भ्रम फैलाकर आप मान्यता लेते भी हो वो बहुत देर तक टिकता नहीं है. दरअसल विचारधारा की दिक्कत यह हुई, विचारधारा के बारे में जब हम भारतीय संदर्भ में बात करते हैं मैं थोड़ा खुलकर बोलता हूं इसलिए बहुत सारे आक्रमण भी झेलता हूं, मार्क्सवादियों ने इस देश में साहित्य का कबाड़ा कर दिया. ना सिर्फ साहित्य बल्कि सामाजिक, आर्थिक में जो मौलिक लेखन होता था उसको बंद कर दिया. प्रगति प्रकाशन की किताबें यहां खूब बिकने लगीं. इतनी बिकने लगीं कि भारतीय वैचारिकी को बाधित कर दिया उन्होंने. इसके पीछे भारत सरकार और रूस की सरकार का संयुक्त प्रयास था. इसके तो अब प्रमाण भी मिलने लगे हैं. सारे दस्तावेज अगर आप देखें तो कई प्रमाण हैं कि मार्क्सवाद को यहां फैलाने और मार्क्सवाद को नीचे तक ले जाने के लिए उन लोगों ने बहुत ही संगठित प्रयास किया. उस प्रयास का प्रतिफल यह था कि भारत के विश्वविद्यालयों में खास कर हिंदी विभाग में जो लिटरेचर से जुड़े हैं उनमें आप जाकर देख लीजिए उनमें बस लोगों ने वामपंथ का बिल्ला नहीं लगाया हुआ है.

एक किस्सा बताते हुए अनंत विजय ने आगे कहा कि पचौरी जी ने नरेन्द्र कोहली जी को जनवादी लेखक संघ का सदस्य बना दिया और कहीं का संयोजक नियुक्त कर दिया. अब कहां कोहली जी और कहां जनवाद लेकिन कोहली जी से जब इन्होंने कहा तो उन्होंने तर्क दिया कि राम से बड़ा जनवादी कौन था ये बता दो वो तो जंगल में 14 साल रहे. आदिवासियों के बीच रहे. उसके बाद इन पर दबाव आए इनके तमाम मित्रों ने इन पर दबाव डाला कि कोहली जी को हटा दो. अंत क्या हुआ कि कोहली जी जैसे लेखक को पचौरी जी को जनवादी लेखक संघ से बाहर करना पड़ा. स्थिति यह है कि एक लेखक को इसलिए निकाला गया क्योंकि वह मार्क्स की जगह राम की बात करता है, वह भारतीयता की माला जपता है, वह रूस की तरफ नहीं देखता है. अपनी रचनाओं में यथार्थ की मिट्टी उतनी नहीं तोड़ता. ये जो अस्पृश्यता का भाव फैलाया मार्क्सवादियों ने उसने भारतीय साहित्य का बहुत नुकसान किया. खासकर हिंदी में अगर देखें तो वो विचारधारा को लेकर जबतक चलते थे तबतक ठीक था लेकिन मैं ये बात बार-बार कहता हूं कि विचारधारा को धारा बनाना और धारा में बाकी सारे लेखकों को चलने के लिए दुराग्रह करना यह मार्क्सवादियों की सबसे बड़ी भूल थी और आज हालात यह है कि तमाम मार्क्सवादी आजकल बाल स्वयंसेवक होने की जुगत में लगे हैं. गोपाल कांडा की तरह ही तमाम मार्क्सवादी लेखक बाल स्वयंसेवक और शिशु स्वयंसेवक बनने में लगे हैं. ये विचारधारा का विचलन है. आप इससे समझ सकते हैं कि यह विचारधारा स्वार्थ पर आधारित है और इसका विचारों से कोई लेना-देना नहीं है.

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सच्चिदानंद जोशी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि साहित्य में आतंकवाद तो विचारधारा के ही स्तर पर जबरदस्त रहा है. पहले से रहा है और अभी भी रहा है. कौन क्या लिखेगा, कौन उसे पढ़ेगा, कौन उसकी आलोचना करेगा, कौन उसे किस पुरस्कार के लिए अनुशंसित करेगा यह सबकुछ विचारधारा पर ही आधारित होता रहा है और इसलिए इसने इतना आतंक मचाया हुआ है इसलिए एक दौर रहा है कि एक समय में सारे लेखर एक विचारधारा के ही रहेंगे, अब आज अगर राज बदल गया है तो दूसरे विचारधारा के लेखकों को थोड़ा सा मौका मिल गया है तो दूसरों के पेट में दर्द होता है कि साब अब इन्हीं को बुलाया जा रहा है दूसरों को नहीं बुलाया जा रहा है. आप पिछले 50 सालों तक दूसरों की छाती को रौंदते-पीटते रहे तब आपको नहीं लगा कि दूसरे लोग भी हैं कहीं, दूसरे लोग भी उसी स्तर का लिख रहे होंगे. विश्वविद्यालयों में नियुक्ति से लेकर सब जगह विचारधारा का ही आतंक रहा. खासकर साहित्य से संबंधित विषयों में बहुत ज्यादा आतंक रहा. पिछले 5 सालों में यदि कोई दूसरा आगे बढ़ गया, पुरुस्कृत हो गया तो वह भी बर्दाश्त नहीं हो रहा है इस हद तक आतंकवाद पहुंच गया. जब तक ये विचारधारा विचारधार में थी तब तक ठीक थी जब उसका वाद बन गया और वाद बनना बहुत खतरनाक होता है. वाद बनना सारी चीज को दूसरी ओर ले जाता है. हिंदूपन बहुत अच्छा है, हिंदूवा बना दिया, हिंदुत्व बना दिया, बहुत खतरनाक हो गया. इसमें जो फर्क है उसे समझने की कोशिश कीजिए. इस फर्क को मिटाने का षड्यंत्र पूर्वक जो प्रयास किया गया है और लगातार कर रहे हैं और इसीलिए हमने इस समाज से आतंक के चलते ग्रे एरिया खत्म कर दिया है या तो यह पूरा काला होना चाहिए या पूरा सफेद होना चाहिए. अगर आप बाएं नहीं हैं तो आप दाएं हैं बीच में आप नहीं रह सकते.

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सुधीश पचौरी ने आगे कहा कि विश्व यु्द्ध के बाद दो ही वाद थे पूंजीवाद और समाजवाद. एक कहता था सबको स्वतंत्रता चाहिए एक कहता था नहीं सबको रोटी चाहिए. जबसे सोशलिज्म खत्म हुआ एक नई चीज आ गई फंडालिटिज्म यानी तत्ववाद, वो इस्लामिक तत्ववाद हो, वो सिख तत्ववाद हो, वो हिंदू तत्ववाद हो, वो ईसाई तत्ववाद हो. जो किताबें सबसे ज्यादा बैन की गईं वो ऐसी थीं जो किसी को धार्मिक स्तर पर चोट करती हों. आज के मनोविज्ञान को ध्यान से देखें तो जो हम अनुभव करते हैं उसमें बाकायदा हमारी मुल्यांकन प्रणाली काम करती चली जाती है. लेकिन आज एक नई चीज पैदा हो गई है जिसके बारे में मैं ध्यान दिलाना चाहुंगा कि वाद जैसी चीज सिर्फ सुविधा है किसी भी शब्द के आगे लगा देने से बन जाता है लेकिन उसका फायदा है कि हम किसी भी चीज को एक ही जगह छान सकते हैं. खासकर हिंदी में क्या हो रहा है कि अवसरवाद भी छिप जा रहा है मार्क्सवाद में. यदि मैं कहीं अपनी जाति लगा दे रहा हूं, धर्म लगा दे रहा हूं या फिर अपनी भाषा लिख दे रहा हूं, अपने गौत्र को लगा दे रहा हूं और बीच में मार्क्सवाद लगा दे रहा हूं. मार्क्सवाद आज भी सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में है. उसको सबसे ज्यादा पढ़ने वाले लोग कहीं हैं तो पश्चिम में हैं. आज हमारे यहां एक नई विचारधारा आई हुई है, राष्ट्रवाद. अगर मैं सवाल करूं तो देशद्रोही, राष्ट्र द्रोही, यह क्या बात हुई. किसी ने कॉर्टून बना दिया तो अंदर हो गया, किसी ने कुछ लिख दिया तो अंदर हो गया और कुछ लोग ऐसे हैं जो सबको गाली देते हैं फिर भी सुरक्षित रहते हैं. मेरा कहना है कि स्टेट की हमेशा एक विचारधारा होती है. स्टेट का एक प्रोग्राम होगा, स्टेट की एक दिशा होगी. जैसे आज कहा जाता है कि सबका साथ सबका विकास, यह एक विचारधारा है. आप चाहे कुछ कर लीजिए इसमें एक आइडिया समाया हुआ है. एक राष्ट्र एक देश एक सरकार एक दल एक कानून ये क्या है, ये एक विचारधारा है. अगर हम सरल भाषा में कहें तो यह राष्ट्रवाद की विचारधारा है.

अनंत विजय ने पलटवार करते हुए कहा कि मार्क्सवादियों ने अन्य लेखकों को छपने से तो रोका ही इसके साथ-साथ उन्होंने सिर्फ वैचारिक आतंकवाद ही नहीं फैलाया बल्कि तमाम साहित्यिक भ्रष्टाचार भी किए. जो प्रगतिशील शब्द है, घोटाला वहीं है. बिना पूंजी के आप मार्क्सवादी लेखक नहीं हो सकते. दारू और मुर्गा का जोड़ मार्क्सवादी लेखक बनाता है. परंपरावादी मतलब दकियानूसी हो गया है. जो परंपरावादी होते हैं दरअसल वो प्रगतिशील होते हैं जबकि जो खुद को प्रगतिशील बताते हैं वो परंपरावादी होते हैं, वो बदलना ही नहीं चाहते, वो खूंटे से अलग होना ही नहीं चाहते. वो लोग टमटम के घोड़े की तरह सीधे ही देखना चाहते हैं. विचारधारा कोई बुरी नहीं होती. विचारधारा वाले लोग भ्रष्ट होते हैं. सच्चिदानंद जोशी ने भी अपनी बात जोड़ते हुए कहा कि आपके अंदर से जो उभरा वो साहित्य है अगर आप उसमें अपनी विचारधारा जोड़ेंगे तो वो टेलर्ड हो जाएगा. सेशन के अंत में प्रभात प्रकाशन से छपी सच्चिदानंद जोशी की पुस्तक 'पल भर की पहचान' का लोकार्पण भी किया गया.

मिलिए सेशन के अतिथियों से...
आपको बता दें कि इस सेशन के अतिथि रहे सुधीश पचौरी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, एक लेखक के अलावा आलोचक एवं मीडिया विश्लेषक के तौर पर भी उनकी बड़ी पहचान है. पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययन के बड़े हस्ताक्षर सच्चिदानंद जोशी को भी किसी परिचय की जरूरत नहीं है. कई किताबें लिख चुके सच्चिदानंद विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं और फिलहाल इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव हैं. वहीं दूसरी ओर अनंत विजय को अपने स्तंभों, समकालीन साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों पर अपनी मारक टिप्पणियों के लिए इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म क्रिटिक का पुरस्कार मिला है.

शुक्रवार को यूं हुई कार्यक्रम की शुरुआत
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की सरस्वती वंदना और इंडिया टुडे ग्रुप की वाइस चेयरपर्सन कली पुरी ने कार्यक्रम के उद्घाटन संबोधन के साथ कार्यक्रम की शुरुआत हुई . इस बार 'साहित्य आजतक' में सात मंच हैं जहां से लगातार तीन दिन 200 हस्तियां आपसे रू-ब-रू होंगी. साहित्य, कला, संगीत, संस्कृति का यह जलसा 3 नवंबर तक चलेगा.

इस साल शुरू हुआ था 'साहित्य आजतक' का सफर
साहित्य आजतक कार्यक्रम का आयोजन इस बार भी दिल्ली के  इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में किया गया है. तीन दिन तक चलने वाले साहित्य के महाकुंभ साहित्य आजतक में कला, साहित्य, संगीत, संस्कृति और सिनेमा जगत की मशहूर हस्तियां शामिल होंगी. बता दें कि साल 2016 में पहली बार 'साहित्य आजतक' की शुरुआत हुई थी. साहित्य आजतक कार्यक्रम के आयोजन का यह चौथा साल है.

इस बार कई भारतीय भाषाओं को किया गया है शामिल
इस बार साहित्य आजतक में कई और भारतीय भाषाओं के दिग्गज लेखक भी आ रहे हैं. जिनमें हिंदी, उर्दू, भोजपुरी, मैथिली, अंग्रेजी के अलावा, राजस्थानी, पंजाबी, ओड़िया, गुजराती, मराठी, छत्तीसगढ़ी जैसी भाषाएं और कई बोलियां शामिल हैं.

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